बेटी ना देना
बेटी ना देना
नन्ही किरण भोर की, फिर से मुस्कुराई थी।
आँगन को चहकाने, बिटिया कोख में आई थी।
खुशी की लहर घर में, फिर से दौड़ आई थी।
खिले थे चेहरे सारे, जब तक ये खबर ना पाई थी।
छा गया मातम कैसा, हाय! कैसी किस्मत पाई थी।
घर पर बोझ बनने, बिटिया कोख में आई थी।
मार दो अभी इसे, आवाज़ हर ओर से आई थी।
कोख में पल रही मैं, बड़े जोरो से घबराई थी।
सहम कर सिमट गयी, पेट के किसी कोने में।
माँ को समझाया बहुत, जब बैठ गयी थी वो रोने में।
बाबा... बाबा की याद आई, मैंने जोरो से गुहार लगाई।
कोई सुनेगा नहीं तो, बाबा को कस के पुकार लगाई।
सुना था कहीं बिटिया, बाबा की शान होती है।
सारे छोड़ दे संग पर वो तो, बाबा की जान होती है।
पर बाबा ही यहाँ निर्दयी कायर था, बेटी का बोझ उठा ना सका।
अपनी नन्ही गुड़िया की खातिर, कोई जोखिम उठा ना सका।
बाबा मैं तेरी ही बिटिया हूँ, घर-आँगन की चिड़िया हूँ।
मुझे ना मारो जन्म से पहले, मैं तुम्हारी ही तो गुड़िया हूँ।
मैं ना माँगूगी कोई किला, बस जूठे खा कर रह लूँगी।
सारे काम करुँगी घर के, और मार भाई की सह लूँगी।
ना देना कोई अधिकार, मैं तुम्हारा सहारा बनूँगी।
छोड़ दे जो भाई मझधार में, मैं तुम्हारा किनारा बनूँगी।
बस आने दो मुझे भी बाबा, अपनी इस दुनिया में।
बस प्रेम ही मिलेगा तुम्हे, तुम्हारी इस मुनिया में।
पर बाबा तुमने एक ना सुनी, पुकार अपनी बिटिया की
दम लेकर माने आखिर, जान अपनी बिटिया की।
तलवार सी मशीनें घुस गयी, बाबा बहुत चुभ रहा था।
काट रहे थे शरीर मेरा तो, बाबा बहुत दुःख रहा था।
मैं नन्ही जान खुल कर, रो भी ना पाई थी।
टुकड़ों में बँट गई मैं, जो ठीक से पूरा ना बन पाई थी।
जाती हूँ वही मैं, जहाँ से चल कर आई थी।
बेटी की ऐसी किस्मत देख, आज इंसानियत भी शरमाई थी।
पर जा के कहूँगी उसे, जिसने मुझे बनाया था।
क्या सोच कर एक बेटी को, उस कोख में डलवाया था।
जो दुनिया कद्र ना करे, ऐसी दुनिया में बेटी ना देना,
जो पिता रक्षा ना कर सके, ऐसे बाप को बेटी ना देना।
बेटी ना देना।