क्या यही सच है?
क्या यही सच है?
सूरज की सुनहरी किरणें,
जब धरती पर गिरती है,
कुछ नया-नया सा,
करने को कहती है।
पत्तों पर फिसलती
ओंस की बूँदें,
नया स॔गीत बनाती है ।
पैरों पर जब गिरती है
नई थिरकन भर देती है ।
मन को उजला उजला कर देती है।
नई तरंग से हर रोज़
एक नई भोर कर देती है ।
पत्ते जब लहराते हैं,
बहती पवन छूकर,
सिहरन भरती है,
नीरव सागर में उठती लहरें,
नई उमंग भरती है।
चाँद की चाँदनी,
तपती तपिश में,
राहत लाती है।
वनों में खिलता जीवन,
जीने का उद्देश्य बनाता है।
बरखा में नाचते मोर,
आनंद का उत्सव मनाने को,
मन ललचाता है,
पर वनों के बिना, वृक्षों के बिना,
क्या ये सब मन सोचता है।
अब सुनाई देती है तो,
सिर्फ प्रतिध्वनियाँ,
कभी सुनामी की,
तो कभी भूकंप की,
कभी तूफान की,
तो कभी ज्वालामुखी की।
क्योंकि हमने किया है,
प्रकृति का शोषण,
माँ पृथ्वी के आशीर्वाद,
का दोहन।
कभी हर ऋतु का जश्न मनता था,
आज वर्षा ऋतु, ग्रीष्म ऋतु के आते ही,
कहर छा जाता है।
बाढ़-सूखे का प्रकोप हो जाता है,
अकेले में सिर्फ़,
प्रकृति का रूदन ही सुनाई देता है।
