चलना ही नियति
चलना ही नियति
एक दिन सूरज का पथ रोक के
मैंने कहा,
एक बात कहूँ
बुरा तो न मानोगे ?
क्यूँ नहीं थोडा
बैठ लेते तुम
थकते नही हो ?
कुछ देर बतिया लो
चलते बहुत हो
थक गए होगे,
न हो तो थोडा सुस्ता लो !
सूरज हंसा और बोला,
तुम्हारा शुक्रिया !
पर रुक नहीं पाउँगा,
मैने फिर से पूछा क्यों ?
सूरज क्या थकता नहीं कभी तू !
कभी नहीं चाहता तेरा मन कि,
आज घर बैठूं
थोडा सुस्ता लूँ
चलो आज छुट्टी
मै भी मना लूँ ?
कभी तो थकता होगा तू भी
अपनी इस अनवरत यात्रा से
कभी तो तेरे घोड़े भी देखते होंगे
आशा भरी दृष्टि से तेरी ओर…!
थोडा सा रुकने - सुस्ताने का
मन नहीं करता क्या ?
तेरे घरवाले कभी नहीं चाहते
के तू उनके साथ बिताये पल चार
कोई बात कहे मीठी सी,
बच्चो को करे प्यार ?
सुन के सूरज मुस्काया
और बोला
मन कि छोडो,
उसकी तो अपार है माया !
उसकी लगा सुनाने तो
कुछ नहीं हो पायेगा
इतने सालो से जो चल रहा है,
मेरा तप टूट जायेगा !
अगर मै रुक गया तो
धरती भी रुक जाएगी
रुक जायेंगे ये रात - दिन, मौसम, ऋतुये
तब तुम सब कहाँ ठोर पाओगे ?
अपने लिए नहीं
सदैव तुम्हारे लिए चलता हूँ !
सूरज हूँ मै,
चलना और जलना
यही मेरी नियति है !
हम सब को जो चलाती है,
सबकी माँ प्रकृति है !
अपनी माँँ के नियम
नहीं तोड़ सकता
कुछ भी हो चलना
नहीं छोड़ सकता...!