हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Classics

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

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ययाति और देवयानी

ययाति और देवयानी

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देवराज इन्द्र का दरबार सजा हुआ था । जयंती की मृत्यु के पश्चात इन्द्र की मनोदशा अच्छी नहीं थी । वे शोक संतप्त थे । वैसे इन्द्र लोक में दुखों का क्या काम ? वहां तो एक से बढकर एक सुख भरे पड़े हैं । परन्तु अपनों के खोने का दुख कोई भी सुख पूरा नहीं कर सकता है । तिलोत्मा, उर्वशी , मेनका, रम्भा और अन्य अप्सराओं ने गीत, संगीत , नृत्य, सौन्दर्य सब विधाओं के द्वारा अथक प्रयास कर लिया कि वे देवराज को शोक के सागर से निकाल कर आनंद के उड़न खटोले पर बैठाकर अद्भुत सैर करा दें पर जब हृदय व्यथित हो तब कोई भी भोग विलास की सामग्री संताप हरने में विफल हो जाती है । सभी देवता देवराज की इस दशा से शोकाकुल थे । 


तभी एक परिचारक आया और कहा "दैत्य महाराजा वृषपर्वा का एक दूत आया है । यदि अनुमति हो तो उसे सादर ले आऊं" ? 

दैत्यराज के दूत का नाम सुनकर सभा में हलचल होने लगी । सभी देवता आपस में खुसुर-पुसुर करने लगे "दैत्यराज का दूत क्यों आया है ? क्या देवता और दैत्यों में फिर से युद्ध आरंभ होने जा रहा है" ? 

दूसरा देवता बोला "पहले ही कितने साल चला था यह युद्ध ? कितनी हानि हुई थी इस युद्ध में जन धन की ? अब फिर से यह सिलसिला शुरू होने को है क्या" ? 


गुरू ब्रहस्पति शांत बैठे थे । देवराज इन्द्र ने उनसे पूछा "गुरूदेव, क्या दूत को बुलवा लें" ? 

"अन्य कोई विकल्प शेष रखा है क्या आपने देवराज ? बिना सोचे समझे आपने अग्निदेव को प्रेषित कर शुक्राचार्य के शिष्यों को जीवित जलाने का जो घृणित कार्य आपने किया है तो अब उसका परिणाम वहन करने के लिए भी उद्यत हो जाओ" ब्रहस्पति जी ने इन्द्र को लगभग डांटते हुए कहा । 

"उस समय मैं बहुत अमर्ष में था गुरूदेव । जयंती की मृत्यु का शोक इतना अधिक था कि मैं वह कर बैठा जो मुझे नहीं करना चाहिए था । लेकिन अब क्या हो सकता है ? अब तो घटना घट चुकी है" देवराज इंद्र ने पश्चाताप करते हुए कहा । 

"इसीलिए कहा है कि कोई भी कृत्य राग -द्वेष के वशीभूत होकर नहीं करना चाहिए । निष्काम कर्म ही श्रेयस्कर होते हैं । पर कोई बात नहीं , जो घटना घटित होनी थी वह तो हो गई, अब देखते हैं कि दैत्यराज वृषपर्वा का दूत क्या संदेशा लेकर आया है" । 


थोड़ी देर में एक परिचारक आया जिसके साथ में महाराज वृषपर्वा का दूत भी था । दूत को उचित सम्मान के साथ एक आसन दिया गया और उसके आने का कारण पूछा गया । 

दूत बोला "हमारे महाराज ने कहला भेजा है कि देवराज ने आचार्य शुक्र के आश्रम में जो विध्वंस किया है उस संबंध में हमारे अमात्य सुशर्मा आपसे वार्ता करने के लिए आयेंगे । बस, यही बात कहनी थी मुझे" । दूत ने अपनी बात देवराज के सम्मुख रख दी । 

"अमात्य सुशर्मा कब आयेंगे" ? 

"ये मुझे ज्ञात नहीं है देवराज । मुझे जो संदेश दिया था मैंने वह संदेश ज्यों का त्यों आपको सुना दिया है । मेरे पास कहने को अब और कुछ भी नहीं है" । दूत ने अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी । 


दूत का उचित सत्कार कर उसे विदा कर दिया । दूत के जाने के बाद सभा में वार्तालाप होने लगा 

"लगता है कि महाराज वृषपर्वा बहुत क्रोधित हैं । उन्होंने अमात्य को इसीलिए भेजा है" वरुण बोले 

"मैंने तो यह सुना है कि उन्होंने युद्ध की तैयारियां भी आरंभ कर दी हैं" अग्निदेव ने धीरे से कहा 

"यदि उन्होंने युद्ध की तैयारियां प्रारंभ कर दी हैं तो हम लोग शांत क्यों बैठे हैं ? हम भी अपनी तैयारियां क्यों नहीं आरंभ कर दें ? क्या इसके लिए हमें महाराज वृषपर्वा की अनुमति लेनी होगी" ? सूर्यदेव बोले । 

"शान्त! शांत !" देवराज ने सभी को शांत कराया । "गुरूदेव, आप ही बताइए कि हमें क्या करना है" देवराज इन्द्र ने बड़े आदर गुरू ब्रहस्पति से पूछा । 

"अभी तो शांत रहकर हर गतिविधि पर दृष्टि रखनी चाहिए । सभी देवता ऐसा कोई कार्य न करें जिससे दैत्यों का अपमान हो , वे उत्तेजित नहीं हो । उन्हें छेड़ा नहीं जाये क्योंकि यदि उन्हें एक बार छेड़ दिया तो फिर हमारे बचने की संभावना बिल्कुल क्षीण हो जायेगी" । गुरू ब्रहस्पति देवराज को चेतावनी देते हुए बोले ।  

"ठीक है । पहले अमात्य सुशर्मा को आने दो । देखते हैं कि वे क्या कहते हैं । उसके पश्चात अपनी योजना बनाकर कार्यवाही प्रारंभ करेंगे । क्यों सही है न गुरुदेव" ? देवराज ने गुरू ब्रहस्पति से अपनी बात पर मुहर लगवा ली । 


लगभग बीस दिनों के बाद अमात्य सुशर्मा का आगमन हुआ । उनकी चाल में अकड़ थी । भाव भंगिमा आक्रोश वाली थी जैसे कोई जलता हुआ सितारा देवलोक को भस्मीभूत करने के लिए आ गया हो । अमात्य की उस भाव भंगिमा को देखकर देवलोक के परिचर भयभीत हो गए और दौड़कर देवराज को उनके आगमन का समाचार सुनाया । देवराज ने अमात्य का स्वागत करने के लिए चंद्र देव को भेजा । चंद्र देव शीतलता के समुद्र हैं । उनके संपर्क में आने से चारों ओर शीतलता व्याप्त हो जाती है । चंद्र देव से मिलकर अमात्य सुशर्मा की टेढी भाव भंगिमा कुछ सीधी हुई । चंद्र देव उन्हें ससम्मान देवराज इंद्र की सभा में ले चले । देवराज इंद्र ने आगे बढ़कर सुशर्मा का स्वागत किया और उन्हें उचित आसन दिया । 


"देवराज, आप तो जानते ही हैं कि देवता और दैत्यों में आरम्भ से ही कलह होती आई है । हमने अनेक बार स्वर्ग लोक पर विजय पाई है और उस कारण आपको स्वर्ग लोक छोड़कर भागना पड़ा है । जबसे देवी जयंती गुरू शुक्राचार्य की पत्नी बनी थीं तबसे इस कलह पर विराम लग गया था । अब उनके देहावसान होने पर आपने पुनः उसी कलह को पुनर्जीवित कर दिया है । इस घटना से दैत्यों में भयंकर आक्रोश है । आचार्य शुक्र के आश्रम पर आपने आक्रमण करके दैत्य साम्राज्य पर आक्रमण किया है जिसे महाराज वृषपर्वा बहुत गंभीरता से ले रहे हैं । वे इन्द्र लोक पर आक्रमण करने की योजना बना रहे हैं" सुशर्मा थोड़ी देर शान्त रहे फिर बोलने लगे "जबसे शुक्राचार्य ने मृत संजीवनी विद्या भगवान भोलेनाथ से प्राप्त की है तबसे हम दैत्यों का उत्साह सातवें आसमान पर है । अब दैत्य लगभग अमर हो चुके हैं । यह शक्ति केवल दैत्यों के पास है , देवताओं के पास नहीं । अब आपकी और हमारी शक्ति की कोई तुलना नहीं हो सकती है । अब हम दैत्य तीनों लोकों में अजेय बन गए हैं । इसके बावजूद आपने हमें छेड़ने का दुस्साहस किया है । इस कृत्य के दुष्प्रभाव शीघ्र ही आपके सामने आने वाले हैं । इसके लिए तैयार रहना आप लोग" । सुशर्मा ने एक तरह से धमकी ही दे डाली । 


सभा में सन्नाटा छा गया । सुशर्मा की एक एक बात सत्य थी । आज दैत्यों के पास न केवल शक्ति थी अपितु मृत संजीवनी विद्या भी थी । देवताओं के पास क्या था ? कुछ भी नहीं , फिर देवराज इन्द्र ने "काले नाग" को छेड़ने का दुस्साहस क्यों किया ? यह उनकी अदूरदर्शिता ही थी जिसका कोई समर्थन नहीं कर सकता है । देवराज ने गुरू ब्रहस्पति की ओर इशारा किया । वे बोलने लगे "आप देवराज पर अनर्गल आरोप लगा रहे हैं अमात्य । देवराज ने कोई आक्रमण नहीं किया बल्कि आपके गुरू शुक्राचार्य ने देवी जयंती को षड्यंत्र पूर्वक मार डाला । यदि शुक्राचार्य जी के पास संजीवनी विद्या होती तो उस विद्या से वे जयंती को भी जीवित कर लेते ? चूंकि वे जयंती को पुनर्जीवित नहीं कर सके इससे देवराज को यह संदेह हो गया था कि शुक्राचार्य ने जयंती को जान बूझकर पुनर्जीवित नहीं किया है । एक पुत्री की संदिग्ध मृत्यु होने पर एक पिता का आक्रोशित होना स्वाभाविक है इसलिए देवराज ने जो किया वह स्वाभाविक प्रवृति है । वैसी परिस्थिति में प्रत्येक पिता इसी प्रकार प्रतिक्रिया करता जिस प्रकार देवराज ने की थी । इसमें असामान्य कुछ भी नहीं है अत: उस घटना को अपने ऊपर आक्रमण मानना सही नहीं है । भूतकाल की बातें भूलकर हमें भविष्य पर ध्यान देना चाहिए । भविष्य में दोनों तरफ से ऐसा कोई काम नहीं होना चाहिए जिससे देवता और दानव आपस में झगड़ें । मेरा तो यही सुझाव है" । ब्रहस्पति ने देवराज का बचाव करते हुए समझदारी से विषय को भूतकाल के बजाय भविष्य पर केन्द्रित कर दिया । 

"भविष्य में शांति बनाना या नहीं बनाना देवताओं पर निर्भर करता है । हम दैत्य लोग तो शांति बनाये हुए थे परंतु आप लोगों ने उस अलिखित समझौते को भंग किया था । यदि भविष्य में भी इसी प्रकार की कार्यवाही होगी तो अबकी बार दैत्य स्वर्ग लोक पर आक्रमण कर देंगे और उसे विजित कर लेंगे । फिर यह मत कहना कि हमें चेतावनी नहीं दी गई" । सुशर्मा ने अपनी नीति स्पष्ट कर दी । 


वार्तालाप को समाप्त करते हुए देवराज इन्द्र ने कहा "हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि देवता दानवों पर प्रथम आक्रमण नहीं करेंगे । यदि दानवों ने आक्रमण किया तब हम लोग उसका भरपूर प्रत्युत्तर देने को स्वतंत्र रहेंगे । क्या आप भी ऐसा ही वचन दे सकते हैं" ? 


दैत्यों के अमात्य सुशर्मा ने विचार करने के पश्चात कहा "महाराज वृषपर्वा ने मुझे ऐसा कोई वचन देने के लिए अधिकृत नहीं किया है इसलिए मैं अभी कोई वचन नहीं दे सकता हूं । पहले महाराज की अनुमति लेनी होगी तब इस विषय पर कोई समझौता हो सकता है" । अमात्य ने अपनी बात दृढ़तापूर्वक रख दी । 


दोनों पक्षों में इस बात पर समझौता नहीं हो पाया । वार्तालाप अधूरा रहा । अगले दौर की वार्ता के पश्चात किसी समझौते पर पहुंचने का निर्णय लिया गया । देवताओं को इस बात की प्रसन्नता थी कि अभी आसन्न युद्ध टल गया है । दानवों को इस बात की प्रसन्नता थी कि उन्होंने अपना शक्ति प्रदर्शन करके देवताओं को भयभीत कर दिया है । इसके पश्चात अमात्य सुशर्मा वापस आ गया । 


क्रमशः 



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