व्यक्तित्व-विभास -दो
व्यक्तित्व-विभास -दो


जीवन का एक तीर्थ 'बिशुनपुरा' एवं 'कर्त्तव्यनिष्ठा की चरम सिद्धि' : संदर्भ - पं. रामचन्द्र तिवारी' लेखक --- शशिबिन्दुनारायण मिश्र बिशुनपुरा गाँव मेरे जीवन में एक पावन तीर्थस्थल की तरह है, मेरे पिता जी के लिए भी और क्षेत्र में हमारे जैसे अनगिनत लोगों के लिए भी, बशर्ते जो मानते हों, क्योंकि सब-कुछ मानने / स्वीकारने पर ही निर्भर है, हिन्दी इलाके में एक कहावत प्रचलित है,"मानो तो देव, ना हीं तो पत्थर।" "जाकी रही भावना जैसी....।" बिशुनपुरा मेरे गाँव रानापार से सटे पश्चिमोत्तर दिशा में स्थित है। बिशुनपुरा गाँव राप्ती और गोर्रा दो नदियों के एकदम केन्द्रबिन्दु पर है , चारों ओर समान दूरी पर नदियाँ हैं। गोरखपुर शहर मुख्यालय से बिशुनपुरा की दूरी करीब 35 किलोमीटर है। यही भौगोलिक स्थिति हू-ब-हू मेरी जन्मभूमि रानापार की भी है। किसी बाहरी अपरिचित को नहीं लगेगा कि बिशुनपुरा और रानापार अलग-अलग गाँव हैं। रानापार की 50% से अधिक जरूरतें बिशुनपुरा से ही पूरी होती रही हैं। आज़ादी मिलने के बहुत बाद तक बिशुनपुरा सहित इलाके के सारे गाँव , गोरखपुर के सदर तहसील के अन्तर्गत आते थे , पर अब तो चौरीचौरा तहसील के अन्तर्गत आते हैं। गोरखपुर जिले के राप्ती और गोर्रा द्वाब में स्थित 50 -52 गाँव हैं। उनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और प्रतिष्ठा बिशुनपुरा को ही प्राप्त रही है। बिशुनपुरा में ही सबसे पहले सन् 1914-1915 के आसपास प्राथमिक विद्यालय खुला और सन् 1922 में उच्च प्राथमिक विद्यालय (मिडिल स्कूल) खुला । जहाँ शिक्षा है, वहीं महत्ता है। उसी दौरान बिशुनपुरा में पोस्ट आफिस (डाकखाना) खुला था, जिसका संचालन बहुत दिनों तक बिशुनपुरा निवासी परमहंसलाल के आवास पर किया जाता रहा। परमहंसलाल श्रीवास्तव ने डाक विभाग से आग्रह कर रानापार के प्रेमनारायणलाल श्रीवास्तव को बहुत दिनों तक पोस्टमैन की जिम्मेदारी दिलाई थी। ख़ैर , यह दुर्भाग्य ही है कि बिशुनपुरा पोस्ट आफिस के निजी भवन का निर्माण 100 वर्षों से अधिक समय बाद भी अब तक नहीं हो पाया है। यह जनप्रतिनिधियों की अदूरदर्शिता का परिणाम है। उसी समय के आसपास बिशुनपुरा के ही एक कायस्थ जगदीपलाल श्रीवास्तव के विशेष प्रयासों से बिशुनपुरा में पुलिस चौकी भी स्थापित हुई थी। जगदीपलाल लेखपाल / कानूनगो थे। बरही- करही-कोना सोनबरसा और आसपास के गाँव उनके हलके में आते थे। जगदीपलाल श्रीवास्तव, बरही स्टेट के बाबू रामनरेश सिंह और उनके सहोदर प्रताप बाबू से गहराई से जुड़े हुए थे, यह अलग प्रसंग है। बिशुनपुरा प्राथमिक विद्यालय की शुरू से ही जब भी बात आती है तो वहाँ शुरुआती दौर के एक अध्यापक पं. रामचन्द्र तिवारी की स्मृति एक बार मन-मस्तिष्क में अवश्य उभर आती है। जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। पंडित रामचन्द्र तिवारी जी शुरू में बिशुनपुरा में आने के समय मेरे पितामह रामानुज मिश्र जी के शैक्षिक गुरु रहे और उनकी पीढ़ी के तमाम लोगों के भी, साथ ही रामचन्द्र तिवारी अपने रिटायरमेंट के 7-8 वर्ष शेष रहते हुए मेरे पिता के भी और उनकी पीढ़ी के अनगिनत लोगों के शैक्षिक गुरु रहे । पं रामचन्द्र तिवारी जी मेरे पिता जगदीश नारायण मिश्र जी के पिता के भी गुरु, पिता जी के गुरुओं के भी गुरु और मेरे अनेक शैक्षिक गुरुओं के भी गुरु रहे। यद्यपि रामचन्द्र तिवारी जी मेरे प्रत्यक्ष गुरु कभी नहीं रहे, मैंने उन्हें देखा भी नहीं है, लेकिन आज यह महसूस करता हूँ कि मेरा मन-मस्तिष्क पं. रामचन्द्र तिवारी की अद्वितीय गुरुता से अप्रत्यक्ष और अज्ञात तौर पर प्रभावित और प्रेरित होता रहा है। क्षेत्र के शैक्षिक विकास क्रम की यात्रा में अनेकशः यह बात चर्चा में आती रही है कि बिशुनपुरा प्राथमिक विद्यालय स्थापित कराने में बिशुनपुरा निवासी मथुरालाल श्रीवास्तव का महान् योगदान रहा है। मथुरालाल श्रीवास्तव का जन्म बिशुनपुरा में ही सन् 1890 के आसपास हुआ था। मथुरालाल श्रीवास्तव अपने जीवन में बहुत सफल और प्रभावी रहे, वे दूसरों को अच्छा भोजन कराने के बहुत शौकीन थे। मेरे विद्यालय में लगभग 50 वर्षों तक उपप्रबंधक रहे स्वर्गीय धरणीधर शुक्ल उर्फ़ धरनीधर बाबा अक्सर कहा करते थे कि "मैंने बचपन में पचासों बार मथुरा चाचा के यहाँ बढ़िया भोजन किया है, बचपन में घर पर तंगहाली के कारण अच्छा भोजन नहीं मिल पाता था। मथुरालाल बिना योजना और बिना तैयारी के भी कहीं भी डेरा जमा देते थे और बनियों के यहाँ से राशन मँगाते और कहारों से बनवाकर 10-20-25 लोगों को तत्काल भोजन करा देते, यह उनके स्वभाव में था।" गोरखपुर की शैक्षिक दुनिया में रामचन्द्र तिवारी नाम की दो महान् विभूतियों ने अध्यापन क्षेत्र में अपनी महान् कर्त्तव्यनिष्ठा से जो लकीर खीँची और जिस साधनापथ का निर्माण किया है, वह अतुलनीय है,उनसे बड़ी लकीर खींचने वाला शायद ही कोई हो। समय की पाबन्दी में, अध्यापकीय दक्षता में, सख्त अनुशासन में, कर्त्तव्यनिष्ठा में और अच्छे -सहज मनुष्य के रूप में भी उन दोनों रामचन्द्र तिवारियों का कोई जोड़ देखने-सुनने को नहीं मिलता है। एक रामचन्द्र तिवारी का जन्म गोरखपुर के गोपालापुर गाँव में सन् 1897 में हुआ था, वे प्राथमिक विद्यालय बिशुनपुरा, गोरखपुर से सन् 1957 में प्रधानाध्यापक (हेडमास्टर) पद से रिटायर हुए और दूसरे वाले रामचन्द्र तिवारी का जन्म वाराणसी के एक गाँव में सन् 1924 में हुआ था, ये अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी कर गोरखपुर के महाराणा प्रताप कॉलेज में सन् 1952 में नियुक्त हुए और पाँच वर्षों बाद सन् 1957 में गोरखपुर विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग में आये सन् 1984 में यहीं से प्रोफ़ेसर एवं विभागाध्यक्ष पद से रिटायर हुए। यहाँ आलेख में विश्वविद्यालय वाले आचार्य रामचन्द्र तिवारी जी अभिप्रेत नहीं हैं। देश के जाने-माने साहित्यकार डॉ रामदरश मिश्र अपनी आत्मकथा में पहले वाले रामचन्द्र तिवारी के बारे में लिखते हैं --"प्राइमरी स्कूल में एक मास्टर थे पंडित रामचन्द्र तिवारी। ........... पंडित रामचन्द्र तिवारी हमारे गाँव के पास के गाँव गोपालापुर के निवासी थे। वे किसी और स्कूल में पढ़ाते थे। जब उनका तबादला बिशुनपुरा के स्कूल में हो रहा था तब स्कूल में आतंक छा गया कि यह मास्टर तो बड़ा निर्दय है,चैले से मारता है। तब मैं दरजा एक में था। दुर्भाग्य से वे हम लोगों की क्लास के मास्टर बनकर आये। मन्नन द्विवेदी की कविता याद न कर पाने के संदर्भ में उन्होंने पूरी क्लास को जिस बेरहमी से पीटा ,कि उनकी मार की कल्पना से रोआँ थर्रा उठता था। एक दूसरा प्रसंग याद आ रहा है।शायद दरजा दो की बात थी।तब वे दरजा दो को पढ़ाने लगे थे। उन्होंने कोई हिसाब समझाया। मेरी समझ में नहीं आया।.... वे पूछते थे,"समझ गये?" हम लोग कहते थे,हाँ।" जब वे सवाल लगवाते थे तो हम लोग ग़लत कर देते थे,इस पर वे पिटाई करते थे।मेरी भी काफी पिटाई हुई।" इस आलेख में केन्द्रीय विषय के रूप में वर्णित महानुभाव पहले वाले प्राथमिक विद्यालय बिशुनपुरा में हेडमास्टर रहे गोपलापुर निवासी पं. रामचन्द्र तिवारी हैं,जिनका ऊपर उल्लेख चल रहा है। मेरी जन्मभूमि रानापार जरूर है, पर मेरे जीवन में रानापार से अधिक बार चर्चाओं के क्रम में बिशुनपुरा का ही नाम आता है, लेखन में भी। बिशुनपुरा मेरे गाँव रानापार के एकदम सटे हुए बगल वाला गाँव है, दूरी बमुश्किल 500 मीटर, बढ़ती हुई जनसंख्या से अब तो दोनों गाँव मिले हुए लगते हैं, अब केवल एक सड़क से दोनों गाँवों के सिवान का निर्धारण होता है। रानापार जहाँ मेरे लिए 'स्वर्गादपि गरीयसी' है वहीं पर बिशुनपुरा मेरे लिए 'त्रिवेणी माधवं सोमम्' है, जहाँ से मुझे आस्था, प्रेरणा और संतुष्टि मिलती है। बिशुनपुरा मेरी प्रारम्भिक शैक्षिक आधारभूमि है और वर्तमान में मेरी कर्मभूमि भी है और मेरे पिता जी के लिए भी बिशुनपुरा प्रारम्भिक शैक्षिक आधारभूमि और बाद में उनकी भी बिशुनपुरा की धरती लगभग 40 वर्षों तक कर्मभूमि रही है। मेरे पिता जी भी अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी कर उक्त बिशुनपुरा में पहले 1962 में इण्टर कॉलेज में मास्टर हुए और बाद में जुलाई 1964 में प्राथमिक विद्यालय में नियुक्त हुए और वहीं से जून वर्ष 2003 में सत्रलाभ सहित सेवानिवृत्त हुए थे। रानापार और बिशुनपुरा दोनों मेरे लिए बड़े तीर्थस्थल की तरह है, जिनका तिरस्कार जीवन में सम्भव नहीं है। ऐसा कभी नहीं हो सकता है कि तनिक भी अवसर मिले और हम इनका आदरपूर्वक स्मरण न करें। वे स्वार्थी और लोग होते हैं जो जीवन में आगे बढ़ जाने पर उपलब्धियों के बाद अहंकारवश बिशुनपुरा को जीवन में अवसर मिलने पर भी कुछ देने की कौन कहे कभी आदरपूर्वक नाम भी नहीं लेते हैं। अनुभव ऐसा बतलाता है कि ऐसे चापलूस पंसद लोग अपनी उपलब्धियों पर अपने अहं की तुष्टि के लिए केवल दूसरों से अपनी तारीफ भर चाहते हैं। बिशुनपुरा मेरी तरह ही मेरे पिता के लिए भी महत्त्वपूर्ण है, पितामह के लिए भी और क्षेत्र में मेरे जैसे अनगिनत लोगों के लिए भी, जिनकी जीवनयात्रा में बिशुनपुरा क्षण-प्रतिक्षण साथ चल रहा है। गोरखपुर के राप्ती-गोर्रा द्वाबा में बिशुनपुरा कई दृष्टियों से केन्द्रीय गाँव है भौगोलिक दृष्टि से भी, शैक्षिक दृष्टि से भी और पूरे ब्रह्मपुर ब्लाक में बिशुनपुरा बेसिक शिक्षा का बहुत समय से उपकेन्द्र रहा है। फिलहाल बिशुनपुरा में पिछले लगभग 100 वर्षों से पोस्ट आफिस है,कन्या प्राथमिक विद्यालय है, और आज़ादी के तुरंत बाद पं. गणेश दत्त मिश्र 'मदनेश' और जमरू गाँव के कोदई प्रसाद राय आदि क्षेत्र के दर्जनों मनीषियों के सहयोग से स्थापित 'जनता विद्या विकास समिति, बाढ़ पीड़ित क्षेत्र बिशुनपुरा द्वारा संचालित स्वावलम्बी इण्टर कॉलेज भी इसी बिशुनपुरा गाँव में है, जिसके प्रथम और संस्थापक प्रबन्धक पं. वंशराज त्रिपाठी बनाये गये थे। पुलिस चौकी जिसकी चर्चा ऊपर की है, फिलहाल अब बिशुनपुरा में नहीं है, वह पुलिस चौकी बहुत बाद के दिनों में बरही इण्टर कॉलेज के पास स्थापित हुई। सौ-डे़ढ सौ साल पहले से बिशुनपुरा गाँव की पहचान बुद्धिजीवी कायस्थों (लाला बिरादरी) के गाँव के रूप में होती थी। उस समय भी बिशुनपुरा में शिक्षा के प्रति जागरूक लगभग दर्जन भर कायस्थों के परिवार थे। जो क्षेत्र में विवादों से दूर अपने बड़प्पन और बुद्धिमत्ता के लिए मशहूर थे। ऊपर उल्लेख कर चुका हूँ लगभग सवा सौ साल पहले की बात है बिशुनपुरा में एक बुद्धिजीवी कायस्थ थे नाम था मथुरालाल श्रीवास्तव। मथुरालाल श्रीवास्तव बेहद बुद्धिमान और प्रभावी व्यक्ति थे, पेशे से पटवारी (लेखपाल) बाद में कानूनगो हुए। उनका हलका (क्षेत्र) ब्रह्मपुर -मीठाबेल -नयी बाजार और आसपास का इलाका था। उस समय मीठाबेल-ब्रह्मपुर के दूबे ब्राह्मणों की जिले में बहुत प्रतिष्ठा, पहुँच और प्रभाव था, उनके बीच मथुरालाल का भी बड़ा आदर भाव था। लोग बताते हैं कि बिशुनपुरा -रानापार-डुमरी- पकड्डीहा और आसपास के कुछ बुद्धिजीवियों और प्रभावशाली लोगों के प्रयास से विकास खण्ड जो आज ब्रह्मपुर के नाम से है,वह बिशुनपुरा में स्थापित होने वाला था, लेकिन इसकी भनक जब मीठाबेल-ब्रह्मपुर और उधर के प्रभावशाली बुद्धिजीवियों को लगी तो उनकी पहुँच शासन में भारी पड़ गयी और विकास खण्ड, बिशुनपुरा की बजाय ब्रह्मपुर में ही स्थापित हो गया। लग रहा है कि मैं विषयान्तर हो रहा हूँ। जब गाँव में पढ़ाई-लिखाई का रिवाज नहीं था,बस शुरू हो रहा था। दरजा दो-चार पास कर लेना भी कम बात नहीं थी, लेकिन उस युग में वह भी कहाँ सम्भव था। मथुरालाल श्रीवास्तव को बहुत जतन के बाद एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई, नाम रखा गया - राजमंगललाल श्रीवास्तव। राजमंगल जब 4-5 साल के हुए तो बालक को पढ़ाने की उन्हें चिंता हुई, दूर-दूर तक कहीं भी कोई स्कूल नहीं था। उस समय तक यानी आज से लगभग सवा सौ साल पहले तक प्राथमिक विद्यालय केवल बाँसगाँव में था। बाँसगाँव की हमारे यहाँ से दूरी लगभग 20 से 25 किलोमीटर के बीच होगी। नजदीक का वही एकमात्र स्कूल था। रानापार के पं. गणेश दत्त मिश्र 'मदनेश', पकड्डीहा के पं. प्रसिद्ध नारायण मिश्र, पं. मुनिवर मिश्र और पं. महीपति नारायण मिश्र, बिशुनपुरा के स्वयं मथुरालाल श्रीवास्तव, गोपलापुर के पं रामचन्द्र तिवारी, डुमरी के पं रामगती मिश्र प्रभृति क्षेत्र के उस समय के बहुतेरे लोगों की प्राथमिक विद्यालय की शिक्षा बाँसगाँव से ही हुई थी। ज़रा सोचिए कि नन्हें-नन्हें कोमल बच्चे प्राथमिक विद्यालय बाँसगाँव कैसे पढ़ने जाते रहे होंगे जबकि पैदल के अलावा आवागमन की कोई भी सुविधा नहीं थी। मथुरालाल बेहद दूरदर्शी कायस्थ थे जो कि अपने पुत्र की प्रारम्भिक पढ़ाई को लेकर चिंतित थे, उन्होंने अपने व्यक्तिगत प्रयासों और आसपास के गाँव के लोगों के सहयोग से अपने पुत्र सहित क्षेत्र के अन्य होनहार बच्चों को शिक्षा दिलाने के हेतु से बिशुनपुरा में प्राथमिक विद्यालय की स्थापना करायी थी, ऐसी जनश्रुति है। विभिन्न स्रोतों से जो जानकारी प्राप्त है, बिशुनपुरा प्राथमिक विद्यालय के संस्थापक अध्यापकों के रूप में अर्थात् प्रारम्भिक शिक्षकों में पं भुवनेश्वरी मिश्र, पं गया प्रसाद तिवारी , बाबू गंगा सिंह एवं बाबू जीतबंधन सिंह आदि का नाम आता है। सन् 1922 में बिशुनपुरा में उच्च प्राथमिक विद्यालय (मिडिल स्कूल) की स्थापना के समय हेडमास्टर के रूप में पं राधाकृष्ण पाण्डेय और सहायक अध्यापक बिकाऊ पंडित आदि का उल्लेख मिलता है। देश के जाने-माने साहित्यकार डॉ रामदरश मिश्र का बिकाऊ पंडित पर भी 'ज्वलन्त-प्रश्न' शीर्षक से एक बहुत उच्च कोटि का संस्मरण प्रकाशित है। मिडिल स्कूल के तत्कालीन हेडमास्टर राधाकृष्ण पाण्डेय ने सन् 1924 में डाक से मात्र पन्द्रह रूपए (15/-) का मनीआर्डर अपने घर भेजा था। मनीआर्डर की रसीद आज भी हेडमास्टर पं राधाकृष्ण पाण्डेय के पौत्र पुण्डरीकाक्ष पाण्डेय के पास सुरक्षित है। इससे उस दौर में बिशुनपुरा में पोस्ट आफिस होने की पुष्टि होती है। प्रसंगवश बताते चलें, मिडिल स्कूल में रानापार के रामानुज मिश्र सन् 1934 से 1937 के बीच हेडमास्टर पं राधाकृष्ण पाण्डेय के छात्र / शिष्य रहे। रामानुज मिश्र शरीर से काफ़ी सुंदर, स्वस्थ और अत्यंत मेधावी थे । रामानुज के पिता पंडित गणेश दत्त मिश्र 'मदनेश' की क्षेत्र में प्रतिष्ठा और उनकी अगाध विद्वता को देखते हुए बाद में चलकर हेडमास्टर राधाकृष्ण पाण्डेय ने अपनी छोटी सुपुत्री सुमित्रा का विवाह 'मदनेश' जी के होनहार पुत्र रामानुज मिश्र से अपने रिटायरमेंट से कुछ वर्ष पहले अर्थात् सन् 1940 में कर दिया था। उन्हीं रामानुज मिश्र और सुमित्रा देवी से मेरे पिता जगदीश नारायण मिश्र का जन्म हुआ। गोपालापुर निवासी पं. रामचन्द्र तिवारी की प्राथमिक विद्यालय में पहली नियुक्ति सन् 1916- 1917 के आसपास गोरखपुर के तत्कालीन महराजगंज तहसील के पास किसी प्राथमिक विद्यालय में हुई थी। कम समय में ही रामचन्द्र तिवारी की एक योग्य, कर्त्तव्यनिष्ठ, सख्त अनुशासन और समय के पाबंद शिक्षक के रूप में दूर-दूर तक ख्याति हो गयी थी। इसकी अनुगूँज तत्कालीन सदर तहसील के प्राथमिक शिक्षा अनुभाग के तत्कालीन एस. डी. आई. महीपतिनारायण मिश्र तक भी पहुँची थी। रामचन्द्र तिवारी जी की महराजगंज में 7-8 वर्षों की सेवा के बाद ही एस. डी. आई. महीपति नारायण मिश्र जी ने रामचन्द्र तिवारी जी का तबादला प्राथमिक विद्यालय बिशुनपुरा, गोरखपुर के लिए करा दिया। जब-जब विशेष पुण्यों का उदय होता है, कुछ कार्य स्थल विशेष के लिए प्रकृति कुछ लोगों को निमित्त बनाकर उपकार करती है। मथुरालाल श्रीवास्तव जी का अपने पुत्र के बहाने ही सही स्कूल स्थापित कराने का कार्य और पं. महीपति नारायण मिश्र जी का उक्त कार्य प्राथमिक विद्यालय बिशुनपुरा और क्षेत्र के ऊपर बहुत बड़ा उपकार के रूप में देखा जाना चाहिए। यदि आपके पास सामर्थ्य है, अधिकार है तो उसका उपयोग निष्कलुष / निष्काम भाव से देशहित में, समाज और आमजन के लिए अवश्य किया जाना चाहिए, सबसे बड़ा पुण्य और धर्म यही है,यह कार्य मथुरालाल श्रीवास्तव जी और महीपति नारायण मिश्र जी ने किया था। कह सकते हैं कि नियति नटी अपने कार्यकलाप ऐसे ही त्यागशील लोगों को निमित्त बनाकर कराती रहती है। हिन्दी के बहुत बड़े साहित्यकार डॉ रामदरश मिश्र अपनी आत्मकथा में आगे लिखते हैं कि बिशुनपुरा प्राथमिक विद्यालय में अध्यापकों की धुआँधार पिटाई के कारण पढ़ाई से मेरा मन बिदक गया था। उस समय अध्यापकों को ऐसा विश्वास था कि कि डंडे से ही ज्ञान का ताला खुलता है। ...... ..... ..........अध्यापन का तरीका आतंकवादी था। अंत में पटरी उठा कर फेंक दी और बारी-बारी घर में सबने ऐलान कर दिया कि पढ़ना- लिखना इस मूर्ख के वश का नहीं है।....... एक बार पंडित रामचन्द्र तिवारी की मार से दूसरे दिन स्कूल जाने की हिम्मत नहीं हुई, मैं छुट्टी मार गया, फिर लगातार छुट्टी मारनी ही थी।....... फिर स्कूल जाने का सवाल ही नहीं था।कई दिनों के बाद स्कूल जाने पर क्या हालत होगी,यह मैं जानता था। किसी के भी कहने पर स्कूल जाने को तैयार नहीं हुआ। बाबा गालियाँ देने लगे, लोग समझाने लगे कि पढ़ाई के क्या-क्या फायदे होते हैं। उपदेश, लालच, डाँट-फटकार किसी का मेरे ऊपर असर नहीं हुआ, पढ़ाई से मन एकदम भाग खड़ा हुआ। पिता जी झल्लाए -"चल बेवकूफ, नहीं पढ़ेगा तो घास काट, खाद फेंक, खेत गोड़ ......। पढ़ाई से एकदम बिदका हुआ मेरा मन बड़े उत्साह से हाथ में खुरपी लिए पिता जी के पीछे-पीछे खेत की ओर चल पड़ा।" अध्यापक रामचन्द्र तिवारी की मार के आतंक से कई दिनों तक रामदरश मिश्र और उनके गाँव डुमरी के अन्य सहपाठियों केशव प्रसाद मिश्र, कपिलदेव मिश्र, सन्त प्रसाद मिश्र उर्फ संतू, बृजनाथ मिश्र, छेदी राय आदि स्कूल नहीं गये। लगातार कई दिनों तक मार खाये इन छात्रों को स्कूल में न देखने पर शिक्षक पंडित रामचन्द्र तिवारी इन छात्रों का पता लगाते हुए उनके घर पहुँचे। रामदरश मिश्र आगे जो कहते हैं उससे पंडित रामचन्द्र तिवारी जी के शिक्षा के प्रति उनके उन्नत दृष्टिकोण, त्याग , उनकी योग्यता और कुशल अध्यापकीय दक्षता का पता चलता है, डॉ रामदरश मिश्र के ही शब्दों में--"पंडित रामचन्द्र तिवारी मेरे गाँव के एक दरवाजे पर बैठे हुए थे । उन्हें देखते ही मुझे डर लगा लेकिन मन में एक गाली देकर कहा, "अब तुम मेरा क्या कर लोगे,अब तो मैं खेत की ओर चला।" पिता जी डाँटते-फटकारते आगे-आगे चल रहे थे। पंडित जी ने पिता जी को संबोधित किया --"क्या है मिसिर जी ! किस बात पर नाराज़ हो रहे हैं।" "अरे यह अभागा पढ़ेगा नहीं, घास छीलेगा । हम लोग कोशिश करके हार गये। स्कूल नहीं जा रहा है ........।" इस पर पं रामचन्द्र तिवारी ने कहा कि --"अरे, सुनिए-सुनिए मिसिर जी ! किसने कहा कि यह घास छीलेगा? अरे, यह तो बड़ा होनहार लड़का है। यह तो बहुत बड़ा आदमी बनेगा। यहाँ आ बचवा।" गुरु रामचन्द्र तिवारी की इस पुचकार, प्यार-दुलार पर रामदरश मिश्र विह्वल तो हुए पर डरते-डरते पं रामचन्द्र तिवारी के पास गये। तिवारी जी ने बालक रामदरश से कहा -"जाओ बेटे,यह खुरपी-सुरपी घर पर रख दो, तुम्हारे हाथ में खुरपी नहीं,कलम अच्छी लगेगी।" तिवारी जी ने रामदरश मिश्र के कान में मंत्र फूँकने की तरह कुछ कहा और रामदरश मिश्र के पिता से कहा,-"जाइए मिसिर जी,अब मैंने इसे मंत्र दे दिया है,अब यह कल से स्कूल आएगा और पढ़ेगा।" मंत्र-शक्ति का प्रभाव आध्यात्मिक चेतना सम्पन्न लोग ही समझ सकते हैं, मूढ़ और कुतर्की कदापि नहीं। मंत्र केवल संस्कृत के श्लोक भर ही नहीं होते। "माननात् त्रायते इति मन्त्र:" का अर्थगौरव आध्यात्मिक-धार्मिक महाशयों और उच्च कोटि के विचारशील जन के लिए ही है। भारतीय संस्कृति में 'मंत्रदीक्षा' की परम्परा इसी भावना से जुड़ी हुई लगती है। सन् 1944 से सन् 1949 के बीच बिशुनपुरा प्राथमिक विद्यालय में पंडित रामचन्द्र तिवारी के एक अन्य प्रखर छात्र रहे महेश्वर मिश्र (जो कि बाद में चलकर विख्यात भौतिक शास्त्री और गोरखपुर विश्वविद्यालय में फिजिक्स डिपार्टमेंट में प्रोफ़ेसर, हेड और डीन हुए) बताते हैं कि --"यह सर्वविदित है कि पं. रामचन्द्र तिवारी बड़े अच्छे, योग्य, जागरूक और दक्ष अध्यापक थे , वे बहुत ही अनुशासित थे, वे जब घर से चलते तो आसपास के जो अभिभावक थे अपने बच्चों को लेकर नियत स्थान पर खड़े रहते थे।" बीसवीं सदी के सुविख्यात स्वनामधन्य साहित्यकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने गुरुदेव कवीन्द्र रवीन्द्र के बारे में एक जगह लिखा है --"उनके निकट जाने वाले को सदा यह अनुभव होता था कि वह पहले से अधिक परिष्कृत और अधिक बड़ा होकर लौट रहा है। बड़ा आदमी वह होता है जिसके सम्पर्क में आने वाले का अपना देवत्व जाग उठता है। रवीन्द्र नाथ ऐसे ही महापुरुष थे।" मैं भी कह सकता हूँ कि पंडित रामचन्द्र तिवारी जी भी ऐसे ही एक महापुरुष थे , जिनके सम्पर्क में आकर विद्यानिवास मिश्र की प्रतिभा में और भी अधिक दिव्यता और निखार आया होगा तथा पंडित रामचन्द्र तिवारी के सम्पर्क -संस्पर्श से रामदरश मिश्र जैसे एक बेहद कमजोर छात्र के भीतर का देवत्व जाग उठा होगा। देश और समाज के भविष्य का निर्माता शिक्षक को इसीलिए कहा गया है। शिक्षक के कार्य में सरकार की, समाज की या अभिभावकों की अनावश्यक दखलंदाज़ी कत्तई बंद होनी चाहिए। उस समय ऐसा नहीं था। शिक्षक पर अनावश्यक नियन्त्रण भी नहीं होना चाहिए। किसी भी व्यवस्था या सरकार का दायित्व है कि वह शिक्षा, शिक्षकों और छात्रों के लिए बेहतर प्रबन्धन करे, न कि अनावश्यक नियन्त्रण। कल्पना कीजिए यदि रामचन्द्र तिवारी बिशुनपुरा में न आते तो रामदरश मिश्र जैसे छात्रों का भला क्या होता। प्रकारांतर से गुरु को शायद साक्षात् ईश्वर इसी नाते कहा गया होगा। तपोनिष्ठ अध्यापक ऐसे ही होते हैं। रामचन्द्र तिवारी ने बहुतों का निर्माण किया, अनगिनत का। यह तो मात्र एक दृष्टांत है, ऐसे न जाने कितने उदाहरण हैं। आजकल के मोटी तनख्वाह वाले अध्यापकों से क्या आप ऐसी कर्त्तव्यनिष्ठा की आशा कर सकते हैं, आज यदि होंगे भी तो एक प्रतिशत से भी कम। छात्रों में मंत्र फूँकने की ताक़त पाने के लिए पहले स्वयं साधना से गुजरना होगा, तपना होगा। अध्यापकों को भ्रष्ट व्यवस्था के विरुद्ध तन कर खड़ा होना होगा। अपने लेखन में मैं अतीत के ऐसे प्रेरक चरित्रों / व्यक्तित्वों की तलाश करता रहता हूँ, इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि मैं केवल अतीतोन्मुखी हूँ, हम अतीत की संभावनाओं को वर्तमान के संदर्भ में उजागर करते हैं। अतीत का वर्तमान के संदर्भ में व्याख्या करना मुझे अच्छा लगता है,यह मेरे स्वभाव में है। पं. रामचन्द्र तिवारी जी ने (जन्म-सन् 1897 , मृत्यु-1971 गोपलापुर, गोरखपुर) प्राथमिक विद्यालय विशुनपुरा, गोरखपुर में सन् 1925 से 1957 तक शिक्षक / प्रधानाध्यापक रहते हुए सेवाएँ दीं । 30-06-1957 को प्रधानाध्यापक पद से अवकाश ग्रहण किया। रामचन्द्र तिवारी जी अध्यापकी पेशे के प्रति समर्पण, समय की पाबन्दी, सख्त अनुशासन, कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी के साक्षात् विग्रह थे । बिशुनपुरा प्राथमिक विद्यालय में रामदरश मिश्र के पहले के छात्रों के बारे में --बिशुनपुरा प्राथमिक विद्यालय के प्रथम बैच के विद्यार्थियों में बिशुनपुरा के ही मथुरालाल श्रीवास्तव के सुपुत्र राजमंगललाल श्रीवास्तव और गोपालापुर के वंशराज त्रिपाठी आदि का नाम आता है, अन्य भी बहुत से थे। मथुरालाल श्रीवास्तव के सुपुत्र राजमंगललाल श्रीवास्तव बिशुनपुरा प्राथमिक विद्यालय से पढ़ने के बाद आगे की शिक्षा के लिए शहर में आये और शिक्षा पूरी कर इलाहाबाद में बहुत बड़े अफसर हो गये थे , राजमंगललाल श्रीवास्तव के इलाहाबाद में बड़े अफसर बनने के बाद जब उन्हें गाँव बिशुनपुरा आना होता और ब्रह्मपुर -मीठाबेल के जमींदार दूबे जी लोगों को पता चलता तो वे चौरीचौरा हाथी भेजकर उनको रिसीव करते और फिर गाँव पहुँचाते। यह उस परिवार और क्षेत्र के लिए बड़ा दुर्भाग्य ही रहा कि सन् 1945 में लगभग 35-36 वर्ष की अल्पायु में ही चेचक के भयंकर प्रकोप से राजमंगललाल जी इलाहाबाद में दिवंगत हो गये थे,उस समय उनके एकमात्र पुत्र शशिकुमार लाल श्रीवास्तव महज़ छः महीने के थे। उसके दो-तीन वर्षों बाद आसपास के अभिभावकों ने प्राथमिक विद्यालय बिशुनपुरा में अपने-अपने पाल्यों की पढ़ाई-लिखाई के लिए रुचि दिखाई । उसके बाद के बैच में छात्र के रूप में रानापार से रामरसिक मिश्र, अवधेश उपाध्याय, स्वयंवीर यादव आदि का आदर से नाम लिया जाता है। इन लोगों के लगभग 8-10 वर्षों बाद छात्रों के रूप में जो पीढ़ी आई,वह कई दृष्टियों से अद्भुत रही। इसी क्रम में रामदरश मिश्र और विद्यानिवास मिश्र जैसे छात्र आते हैं। यह स्पष्ट है कि देश के जाने माने साहित्यकार, हिन्दी-संस्कृत और अंग्रेजी के अग्रणी विद्वान्, पद्मभूषण पं. विद्यानिवास मिश्र और शताब्दिसाहित्यकार डॉ रामदरश मिश्र जी के प्रारम्भिक शैक्षिक जीवन में आदर्श गुरु पं. रामचन्द्र तिवारी जी ही थे। रामदरश मिश्र जी और विद्यानिवास मिश्र जी और क्षेत्र के अन्य अनगिनत छात्रों की निर्मिति में पं. रामचन्द्र तिवारी का अभूतपूर्व योगदान रहा है। एक शिक्षक की यही वास्तविक कमाई होती है, यही सबसे बड़ा पुरस्कार होता है और उसका योग्य शिष्य / छात्र ही उसे अमर करता है। गुरु जहाँ अपनी उत्कृष्ट गुरुता से छात्रों का कल्याण करता है, देश और समाज के हित के लायक बनाता है, देश हित में नागरिक कर्त्तव्यों से युक्त बनाता है। वहीं ऐसे में हम कह सकते हैं कि शिष्य भी अपनी कर्त्तव्यसिद्धि से अपने गुरु का उद्धारक होता है,उसका कल्याण करता है, उसे अमर बनाता है। गुरु द्वारा निर्मित पथरेखा को उसका शिष्य / छात्र ही गति देता है। पं. विद्यानिवास जी ने जीवनपर्यंत प्राथमिक विद्यालय विशुनपुरा के तिवारी जी को और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में संस्कृत में प्रोफ़ेसर क्षेत्रेशचन्दचट्टोपाध्याय को अपना आदर्श गुरु माना। डॉ रामदरश मिश्र ने शैक्षिक गुरुओं में बिकाऊ पंडित और बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को अपना आदर्श गुरु माना है। उन्होंने ज्ञान , कर्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी व समय की पाबन्दी की प्रेरणा इन्हीं आचार्यों से ग्रहण की और उसे अपने जीवन में चरितार्थ किया। पं. रामचन्द्र तिवारी जी के बिशुनपुरा प्राइमरी स्कूल में 1925 से 1935 तक के सर्वाधिक प्रिय शिष्य/छात्र थे -विद्यानिवास मिश्र । जैसा कि विद्यानिवास मिश्र जी बताते थे कि उनके प्रारम्भिक शिक्षा के समय के सहपाठियों में भागीरथी हरिजन, गणेश पाण्डेय, गौरी लुहार और दिलराज अहीर (पकड्डीहा से), रामानुज मिश्र व केशव यादव (रानापार से), शिवनाथ गुप्ता (दीवाँ से), रामावतार लाल (बिशुनपुरा से), रामस्वरूप तिवारी उर्फ दुबरी पंडित (गोपलापुर से), केशव मिश्र, सीताराम मिश्र व रामनवल मिश्र (डुमरी से) आदि प्रमुख थे। प्राथमिक विद्यालय बिशुनपुरा में वैसे तो सभी अध्यापक बहुत ही योग्य और कर्त्तव्यनिष्ठ थे, पर रामचन्द्र तिवारी का कुछ अलग ही अंदाज़ और तेज था। रामचन्द्र तिवारी जब अपने गाँव गोपालापुर से बिशुनपुरा प्राइमरी स्कूल के लिए चलते तो रास्ते में पड़ने वाले उन-उन गाँवों के हर मोड़ पर छोटे-छोटे बच्चे प्रतीक्षा करते रहते, जैसे कि पहले मोड़ पर पकड्डीहा और दुलहरा के बच्चे, पकड्डीहा से आगे बढ़ने पर डुमरी और अन्य गाँवों के बच्चे। बच्चों को सहेजते हुए साथ-साथ स्कूल पहुँचना और फिर साथ लेकर वापस होना। सचमुच में पंडित रामचन्द्र तिवारी के कर्त्तव्य में कैसी दिव्यता और भव्यता रही होगी, जो अपने छात्रों के लिए जी रहा था, अपना सर्वस्व होम कर रहा था। विद्यानिवास मिश्र जी बताते थे कि पं. रामचन्द्र तिवारी जी अपनी अध्यापकी को ईश्वर की तरह उपास्य /आराध्य मानते थे। पं. विद्यानिवास मिश्र अक्षर ज्ञान के बाद जब पहली बार स्कूल पढ़ने गए तो रामचन्द्र तिवारी जी ने कुछ पूछा तो प्रश्नों का सटीक उत्तर पाकर उन्होंने उनकी अद्भुत प्रतिभा को देखते हुए कक्षा अ ,ब और कक्षा एक में नहीं , सीधे कक्षा दो में प्रवेश करा दिया। कक्षा 'अ' और 'ब' को उस समय भी आञ्चलिक भाषा में छोटी गोल और बड़ी गोल कहते थे और सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में आज भी कहते हैं। अंग्रेजी के कान्वेंट/नर्सरी/पब्लिक स्कूलों में यही चीज़ आज क्लास LKG और UKG नाम से जाती है। विद्यानिवास मिश्र के सीधे कक्षा दो में प्रवेश हो जाने पर पहले से कक्षा एक में पढ़ रहे रामदरश मिश्र साल भर पीछे हो गये थे। डॉ रामदरश मिश्र इसका वर्णन करते हुए अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि --"एक दिन देखा कि विद्यानिवास जी सीधे दर्ज़ा दो में दाखिल हो गये। यानि कि और लोगों की तरह कक्षा अ , ब और एक की दूरी उन्हें स्कूल में पार नहीं करनी पड़ी। इन कक्षाओं का ज्ञान उन्होंने बड़ी त्वरा के साथ घर पर ही प्राप्त कर लिया था, इसलिए सीधे दर्ज़ा दो में दाखिल होकर मुझसे साल भर आगे हो गये। सभी विषयों में उनकी समान गति थी और यह समान गति आगे भी बनी रही।" एक वाकया का जिक्र अक्सर आता है। कक्षा तीन में रामचन्द्र तिवारी पढ़ा रहे थे, विद्यानिवास मिश्र सहित सभी छात्र तल्लीन होकर पढ़ रहे थे, अपराह्न के ढाई-तीन बजे का समय रहा होगा। गाँव से एक कहार दौड़ते-भागते सीधे स्कूल पहुँचा और हाँफते हुए कक्षा तीन में पढ़ाते हुए पंडित रामचन्द्र तिवारी के सामने खड़ा हो गया और कहा ---"जल्दी चलीं,घरे फलाने मरि गइल बाटें, कफ़न अउर समान लेवे के बाs।" पंडित रामचन्द्र तिवारी के घर किसी की मृत्यु हुई थी, अन्य कोई जिम्मेदार घर पर नहीं था, तत्काल तिवारी जी का घर पहुँचना अत्यावश्यक था। कहार के लगातार आग्रह करने पर पंडित रामचन्द्र तिवारी ने उस कहार से आक्रोश में कहा कि -"तुम यह नहीं सोच रहे हो कि घण्टे-डेढ़ घण्टे पहले हम स्कूल छोड़कर घर चले जायेंगे तो लोग क्या कहेंगे,इन छोटे-छोटे बच्चों पर क्या असर पड़ेगा?" कहार को जैसे काठ मार गया हो,घर पर किसी की मृत्यु हुई है और इन्हें स्कूल और बच्चों की सूझ रही है। वह कहार निरुद्वेग भाव से दबे पाँव घर के लिए वापस हो लिया था। पं. विद्यानिवास मिश्र इस बात की जब भी चर्चा करते तो एक विशेष भाव में डूबे नज़र आते। उस समय से लेकर अब तक कर्मपथ पर चलते हुए लोगों में जो बड़ा अन्तर आया है,अब कोई यह नहीं सोच पाता है कि विद्यालय की निश्चित अवधि से पहले चले जायेंगे या निश्चित समय के बाद आयेंगे तो लोग क्या कहेंगे / छात्र क्या सोचेंगे ? "लोग क्या कहेंगे या छात्र क्या सोचेंगे ?" यह सोचने की पात्रता ही समाप्त हो चुकी है। कर्त्तव्यपथ पर गहरे संवेदनशील होने पर ही व्यक्ति आंतरिक लज्जा और भय से युक्त होता है, जिससे सभ्य और सुसंस्कृत नागरिक के रूप में निर्माण होता है और पहचान बनती है। कर्त्तव्यपथ से विचलित होने पर "लोग क्या कहेंगे" यह भाव धारण करना , उसके लिए चिंतित होना ही राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत होना है। इसी प्रकार की कर्मशीलता ही व्यक्ति को धार्मिक बनाती है। यही कर्म वास्तविक धर्म है। वासुदेव श्रीकृष्ण का अर्जुन से कहना कि -"मामनुस्मर युद्ध्य च"--हे अर्जुन ! मेरा स्मरण करते हुए युद्ध करो, अर्थात् अपना विहित कर्म करो / कर्त्तव्यपथ पर अग्रसर होओ, जिसे तुमने धारण किया है।" बड़े-बड़े विद्वान् धर्म को एक शब्द में जब परिभाषित करते हैं तो धर्म को -'कर्त्तव्य' कहते हैं।" आपका कर्त्तव्य ही आपका वास्तविक धर्म है। यदि आप कर्त्तव्यनिष्ठ हैं तो आप धार्मिक हैं, अन्यथा आप अधार्मिक हैं। मैंने अपने जीवन में कर्म और धर्म को इसी रूप में ग्रहण किया है और पंडित रामचन्द्र तिवारी जी से बहुतों ने कर्म और धर्म को इसी रूप में सीखा, ग्रहण किया। --- शशिबिन्दुनारायण मिश्र (7068986128 / 9453609462) रानापार, बिशुनपुरा, गोरखपुर उत्तर प्रदेश ।