व्यक्तित्व-विभास (स्मरण)
व्यक्तित्व-विभास (स्मरण)
'अद्भुत विद्वता और विलक्षण अध्यापकीय निष्ठा'
कर्त्तव्य के प्रति समर्पण और निष्ठा ही किसी को महत्त्वपूर्ण बनाती है। व्यक्ति उच्च पद पर है, शक्ति सम्पन्न है, ताकतवर है, यदि उसमें कर्त्तव्य के प्रति समर्पण और निष्ठा है तो उसका व्यक्तित्व सर्व जन के लिए और भी अधिक नमनीय हो जाता है। निष्ठाहीन ईमानदारी से रहित ताकतवर/ उच्च पद का व्यक्ति अहंकारी हो सकता है, किसी को सता सकता है पर सबके लिए आदरित कदापि नहीं हो सकता है।
विदुषी आचार्या प्रोफ़ेसर शान्ता सिंह अपने एक संस्मरण में लिखती हैं --
"किसी की उपलब्धियों का सही मूल्यांकन उन परिस्थितियों की सापेक्षता में होता है जिनके परिवेश में उसका जीवन विकसित हुआ है। जो परिस्थितियाँ व्यक्ति को मिलीं वे उसके कितनी अनुकूल या प्रतिकूल थीं, उसे किन बाधाओं व विघ्नों से जूझकर अपना रास्ता बनाना पड़ा --वह विषमता से पराभूत होकर उनकी शिकायत करते हुए सबकी सहानुभूति बटोरता रहा या उनको झेलता हुआ अपनी अन्तर्निहित सम्भावनाओं को चरितार्थ करने के लिए दृढ़ संकल्प होकर जुटा रहा।"
इण्टरमीडिएट कक्षाओं में संस्कृत विषय में मेरे शिक्षक रहे पं. रत्नेश्वर शुक्ल के बाह्याभ्यन्तर व्यक्तित्व के मूल्यांकन क्रम में प्रोफ़ेसर शान्ता सिंह जी की उक्त बातें आज बरबस याद हो आयीं हैं।
बोर्ड परीक्षा समाप्त होते ही एक दिन पूरा घूमा। यह यात्रा कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण रही, यात्रा के सारथी बने भाई शिशिर कुमार पाण्डेय। नेहरू इण्टर कॉलेज अमहिया गोरखपुर में बोर्ड परीक्षा की समाप्ति के बाद कनइल गाँव में श्री रत्नेश्वर शुक्ल जी के यहाँ शिशिर पाण्डेय के साथ जाने की योजना बनी। शुक्ल जी इण्टर कॉलेज बरही में संस्कृत विषय में मेरे योग्य शिक्षक रहे हैं। चूँकि शिशिर जी कनइल के ही निवासी हैं और अमहिया में संस्कृत पढ़ाते हैं। अतः राप्ती नदी के कनइल घाट को नाव से उतरकर जाने का सुयोग बन गया। बरही इण्टर कॉलेज होते हुए डीहघाट के उत्तर से होकर राप्ती नदी के कनइल घाट पर दो-तीन सौ मीटर रेत लाँघते हुए हम लोग नाव तक पहुँचे। नदी का पानी एकदम नीचे चला गया था।
बाग-बगीचा, खेती-बारी के अलावा नाव-नदी से भी हम लोगों का जन्म-जन्म का नाता रहा है। हम लोग उस अञ्चल में पैदा हुए, जहाँ हर साल बाढ़ आती थी,अब भी आती है, लेकिन कभी-कभार। मेरी जन्मभूमि रानापार, गोरखपुर जिले के राप्ती-गोर्रा दो नदियों से चारों ओर घिरे हुए घोर कछार क्षेत्र के एकदम केन्द्र में स्थित है। 1995-1996 तक तो अपने गाँव से चारों दिशाओं में समान दूरी पर नदी को नाव से पारकर ही कहीं पर जाना हो पाता था। मेरे गाँव से 3-4 किलोमीटर दूर समान दूरी पर चारों ओर नदी है, पूर्व -उत्तर में गोर्रा नदी और पश्चिम -दक्षिण में राप्ती नदी । गोर्रा नदी, राप्ती की ही शाखा है।
हमारे बाबा तो कहते थे कि "हम लोगों के भाग्य में इन नदियों पर पुल से पार होना कहाँ लिखा है?" पुल तो नहीं ही थे, पक्की सड़कें कौन कहे, कच्ची सड़कें भी नहीं थीं, बहरहाल अब तो नदियों पर चारों ओर पक्के पुलों का निर्माण हो चुका है। पक्की सड़कें दिखाई देती हैं। गोर्रा नदी पर चारों घाटों गौरी घाट, इटौवा घाट, बोहाबार घाट और पिड़रा घाट पर पक्के पुल बन चुके हैं। तथा राप्ती नदी पर चंदा घाट, चितहरी घाट और करकोल घाट पर पक्के पुलों का निर्माण हो चुका है। बीच में राप्ती नदी के सिहोँड़वा घाट पर बरसात के अतिरिक्त ऋतुओं में पीपे के पुल से सबका इस पार से उस पार आना-जाना होता है।
जब तक पुल और सड़कें नहीं बनी थीं, बरसात के दिनों में हम लोगों को 3-4 महीने यातना भरी जिन्दगी जीनी पड़ती थी। जिन लोगों का जीवन केवल कृषि -पशुपालन या मजदूरी पर आश्रित था,उन लोगों को अपार दंश झेलते हुए बचपन में हमने देखा है, जो खेतिहर थे,उनका जीवन भी दुश्वारियों से भरा रहता था क्योंकि खेती में कुछ होता नहीं था, बाढ़ आती सब-कुछ बहा ले जाती। पशुओं को कहीं से चारा भी नसीब नहीं होता था।
निश्चित रूप से आज विकास हुआ है, सुविधाएँ बढ़ी हैं, यदि जनप्रतिनिधि शुरू से ही दूरदर्शी, विवेकशील, थोड़े-से भी त्यागशील और राष्ट्रीय चेतना से युक्त रहे होते तो आजादी के 78 वर्षों बाद अपना क्षेत्र और देश कहाँ से कहाँ चला गया होता ?
ख़ैर छोड़िए इन बातों को, कछार तो कछार है,
यहीं पर हमारे जीवन ने ग्रहण किया आकार है,
संघर्षों में पल-बढ़ कर लोगों ने बहुत कुछ सीखा और उन्नत जीवन को किया साकार है।
नाव किनारे लग चुकी थी। वर्षों बाद यानी कि वर्ष 2017 की भयंकर बाढ़ के बाद आज पुनः नाव पर चढ़ना हुआ। कन्हैया केवट ने नाव को किनारे खूँटे में बाँधा और नाव पर नीचे पटरा रख मेरी मोटरसाइकिल को नाव पर चढ़ा दिया। कन्हैया मस्ती में बाँस के लग्गे से खेकर नाव को उस पार लगाया। नाव से उतरकर कनइल गाँव में हमें रत्नेश्वर शुक्ल जी के यहाँ जाना था। बातचीत में ही कन्हैया केवट ने कहा कि "हम 14-15 सालि के उमर से लेके सुकुल जी के रिटायरी तक ये घाटे पर उनके उतरले बाँटी।" शुक्ल जी 2002 में रिटायर हो गए,यह पूछने पर कि पिछले 22-23 वर्षों में उनके कभी इस घाट की ओर न आने से कैसा लगता है? कन्हैया केवट ने उदास मन से कहा कि अब एकदम सुन्न लागेला।"
हम भी पिछले 30 वर्षों में आज पहली बार नाव पर चढ़े थे। एक बड़ा ताज्जुब यह हुआ कि जो गोर्रा नदी, राप्ती नदी की पुत्री अथवा शाखा है अथवा जिस गोर्रा का जन्म राप्ती नदी से हुआ है,उस गोर्रा नदी में राप्ती नदी से अधिक पानी है,बहाव है और गहराई भी अधिक है। यह एक तरह से प्राकृतिक विडम्बना ही है। अंग्रेजी हुकूमत में गोर्रा पहले मामूली नाला था, गोरों यानी अंग्रेजों के माध्यम से राप्ती नदी में दबाव कम करने के लिए एक नाला पूरब दिशा में निकलवाया गया था। उस नाले की पृष्ठभूमि में गोरों के होने से ही उसे धीरे-धीरे उसे गोर्रा कहा जाने लगा, गोरा शब्द व्यक्ति वाचक संज्ञा है, उसी से कहते-कहते 'गोर्रा' नदी नामकरण प्रसिद्ध हो गया।
मनीषी कवि पं. गणेश दत्त मिश्र 'मदनेश' ने आजादी मिलने पर एक कविता लिखी थी --"गोरे साले चले गए, गोर्रा अभी तो बाकी है।" लगता है कि गोरों (अंग्रेजों) के अत्याचारों और गोर्रा नदी की हर साल की बाढ़ की जो पीड़ा लोग झेलते रहे,उसी पीड़ा को मदनेश जी ने कविता में मुखर किया होगा। यद्यपि यह पूरी कविता मुझे अभी तक नहीं मिल सकी है। ज्योतिर्विद पं. श्यामाचरण पाण्डेय, जो 1998 वाली बाढ़ के बाद 102 वर्ष की अवस्था में दिवंगत हुए थे, उन्होंने इस कविता के बारे में बताया था। उनका मदनेश जी के पास उठना-बैठना होता था।
प्रकृति की ऐसी कृपा रही कि गोर्रा नाले ने धीरे-धीरे नदी का रूप धारण कर लिया। जैसा कि लोग बताते हैं कि गोर्रा नदी का इतिहास सवा सौ-डेढ़ सौ वर्षों से अधिक का नहीं है। समय के साथ गोर्रा नदी ने समृद्धि पायी है। गोर्रा की समृद्धि से कछार वासियों की पीड़ा भी बढ़ी होगी, यदि मदनेश जी की कविता पर ध्यान दें। कछार वासियों ने गोर्रा की समृद्धि से गहरा नाता जोड़ लिया होगा और स्वयं नित संघर्ष करते मजबूत या समृद्ध हुए, कृषि - पशुपालन में भी, खेलकूद में भी और साहित्य, कला, संस्कृति आदि सभी क्षेत्रों के विकास में। राप्ती और गोर्रा ने हम सबको इतना सरस और उर्वर बनाया है कि दूर देश के जन भी अब कहते हैं कि राप्ती-गोर्रा दोआबा की धरती हर दृष्टि से बहुत उर्वर है।
परिणाम यह हुआ कि राप्ती- गोर्रा दोनों नदियाँ कछार वासियों से अभिन्न रूप में ऐसी जुड़ीं हैं कि वह अनन्त काल तक हम सबकी जिजीविषा को अभिसिंचित करती रही हैं और करती रहेंगी और साहित्यकारों की अनेक कृतियों में स्थान बनाकर युगों-युगों तक जीवित रहेंगी। दोनों नदियाँ अब केवल भौगोलिक और प्राकृतिक नहीं रह गयी हैं। राप्ती नदी और गोर्रा नदी की कभी कल-कल और कभी हरहराती हुई जलधाराओं ने यहाँ के आसपास के सैकड़ों गाँवों के लोगों के जीवन से ऐसा तादात्म्य स्थापित किया कि 'पानी के प्राचीर, 'जल टूटता हुआ', आकाश की छत' जैसे उपन्यासों , पानी की पुकार जैसे काव्य संग्रह और गाँव का मन जैसे निबन्ध संग्रहों की अमर रचनाएँ हिन्दी साहित्य को सुलभ हो सकीं , इसके लिए निमित्त हैं , साहित्य की दो महान् विभूतियाँ - डॉ रामदरश मिश्र और पं. विद्यानिवास मिश्र ।
राप्ती ने गोर्रा को पाल-पोस कर बड़ा किया, लेकिन गोर्रा आज राप्ती से अधिक गहरी और तेज हो गयी है। यही प्रकृति का नियम है,यही जीवन चक्र है। परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। जो आज बहुत बड़ा और समृद्ध है, वह कल छोटा और विपन्न हो सकता है। राप्ती की रौनकता छीनने में अहम् भूमिका निभाई है उद्योगपतियों और नेताओं की लालच और स्वार्थ की दूषित प्रवृत्ति ने।
ख़ैर छोड़िए,
बोर्ड परीक्षा की थकान/ भाग-दौड़ और शहर की चकाचौंध से ऊबकर राप्ती नदी को नाव से पारकर कछार क्षेत्र के अनेक गाँवों के आसपास अभी भी मौजूद पगडंडियों पर लगभग पचास किलोमीटर की यात्रा की।
शिशिर जी के साथ हम शुक्ल जी के घर पहुँचे। वहीँ पता चला कि शिशिर पाण्डेय उनके कुलपुरोहित भी हैं।
आचार्य रत्नेश्वर शुक्ल जी अब 85 वर्ष के हो चुके हैं । संस्कृत -प्रवक्ता एवं प्रधानाचार्य पद से वर्ष 2002 में सेवानिवृत्त हैं। जन्म- 1940 , कनइल (शुक्ल) गोरखपुर में। आप अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति, दृढ़ता, समय की पाबन्दी और अपने स्वाभिमान की किसी भी हद तक जाकर रक्षा की कोशिश करने वाले शिक्षक के रूप में हमेशा प्रसिद्ध रहे हैं। आपके पिता जी भी प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक थे। आप आदिशक्ति दुर्गा जी के परम भक्त हैं। शुक्ल जी के लगभग 30 वर्षों तक सहकर्मी शिक्षक रहे और शुक्ल जी के रिटायरमेंट के बाद संस्कृत प्रवक्ता बने विश्वकर्मा प्रसाद जी बताते हैं कि शुक्ल जी हमेशा एक वक्त का भोजन करते रहे हैं और वह अपने अधीनस्थ सहकर्मियों के लिए बहुत उदार रहे, उन्होंने कभी किसी का अहित नहीं सोचा।"
विश्वकर्मा जी ने शुक्ल जी के बारे में बड़ी बात कही है। शिक्षक की पूरी सेवा के दौरान एक वक्त का भोजन करना, किसी का भी अहित न सोचना। आज भी एक वक्त का ही भोजन करते हैं। पूरी शिक्षण सेवा में आपका परिधान हमेशा धोती-कुर्ता ही रहा। साहित्य के अध्यापकों में आप जैसी आवाज की उत्कृष्टता भी मैंने कम ही देखी है। स्वाभिमान भी आप जैसा मुझे किसी में नहीं मिला। शुक्ल जी त्रिकाल संध्या में प्रातः कालीन और सायं कालीन संध्या अनिवार्य रूप से नियमित करते रहे हैं।
आदिशक्ति देवी भगवती के प्रति आपकी परम भक्ति ने आपको इतना निर्भीक और तेजस्वी बना दिया है कि वैसी तेजस्विता और निर्भीकता भी कम ही देखी गयी। बाद के दिनों में मुझे लगता रहा कि शुक्ल जी संसार की सर्वव्यापी अदृश्य शक्ति से अपनी दैनंदिन प्रार्थना में निर्भीकता ही माँगते रहे होंगे। शास्त्रों में भी तो कहा गया है कि ऋषि भी ईश्वर से केवल अभय / निर्भीकता माँगते थे और कुछ भी नहीं --"यतो यत: समीहसे, ततो नो अभयं कुरु।"
शुक्ल जी की यह विचारधारा मुझे काफी हद तक प्रभावित करती है कि "आपसे जो असहमत है, जरूरी नहीं कि वह आपका शत्रु ही है।"
अपने तेज, दृढ़ता और विद्यालयी समर्पण के लिए क्षेत्र में प्रतिष्ठित बरही इण्टर कॉलेज के तत्कालीन प्रधानाचार्य राजबहादुर राय जी और उपप्रधानाचार्य मदनमोहन राय जी से रत्नेश्वर शुक्ल जी के बहुत गहरे मतभेद सर्वविदित रहे, पर विशेष और विषम परिस्थितियों में राजबहादुर सर् ने आचार्य शुक्ल को यदि आदर से याद किया तो शुक्ल जी ने भी उसका यथोचित सम्मान किया, ऐसा हमने देखा है। बरही इण्टर कॉलेज में पढ़ाई के दौरान राजबहादुर राय जी, मदनमोहन राय जी और रत्नेश्वर शुक्ल जी तीनों लोग समान रूप से मेरे लिए आदरणीय रहे। छात्र जीवन में कोई पीरियड खाली रहने पर व्यक्तिगत रूप से मेरी जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण तीनों लोगों से मेरा मिलना-जुलना रहता था।
राजबहादुर राय साहब, शुक्ल जी से उम्र में करीब 12-13 वर्ष बड़े थे। 1985 में बरही इण्टर कॉलेज खेल मैदान में हजारों की भारी भीड़ एकत्र थी,मंच पर प्रधानाचार्य के अतिरिक्त, गोरखपुर के तत्कालीन जिलाधिकारी और ज्येष्ठ पुलिस अधीक्षक आदि मौजूद थे। बिरहा गायक रामदेव, जगदीश यादव और बुल्लू का विरहा कार्यक्रम समाप्त हो गया था। वह आयोजन विद्यालय की ओर से था । मंच संचालक भीड़ को नियंत्रित नहीं कर पा रहे थे। प्रधानाचार्य राजबहादुर राय जी ने पद की श्रेष्ठता का दम्भ तजकर तत्काल शुक्ल जी से मंच सम्भालने का आग्रह किया था। शुक्ल जी ने प्रधानाचार्य का आग्रह हँसते हुए स्वीकार किया था और भारी भीड़ को प्रभावी ढंग से नियंत्रित कर लिया था । दोनों के लिए विद्यालय की गरिमा और प्रतिष्ठा महत्त्वपूर्ण रही। यदि दोनों में से कोई भी निकम्मापन या अकड़ दिखलाता तो विद्यालय की प्रतिष्ठा जाती। जून वर्ष 1988 में राजबहादुर राय जी की सेवानिवृत्ति पर किसी बात को लेकर तत्कालीन प्रबन्धक बाबू अमर सिंह जी (बरही स्टेट) नाराज हो गए थे और नो-ड्यूज नहीं देना चाह रहे थे। मामला बड़ा पेचीदा हो गया था। मदनमोहन राय जी जो अब कार्यवाहक प्रधानाचार्य पद पर थे,भी बाबू अमर सिंह को नो-ड्यूज के लिए प्रेरित नहीं कर पा रहे थे। जब कि मदनमोहन जी को बाबू अमर सिंह जी बहुत आदर और स्नेह देते थे।
इसके कारणों की तह में मैं नहीं जा सकता। बाबू अमर सिंह जी, रत्नेश्वर शुक्ल जी को भी बहुत मानते थे। राजबहादुर राय जी और रत्नेश्वर शुक्ल जी के बीच गहरे मतभेद की चर्चा मैं ऊपर कर चुका हूँ। पर रत्नेश्वर शुक्ल जी ने राजबहादुर राय जी की सीनियारिटी और विद्यालय स्थापना काल से उनकी लम्बी सेवा को देखते हुए नैतिकता और बड़प्पन का परिचय देते हुए बाबू अमर सिंह जी को नो-ड्यूज के लिए समय से मोटिवेट कर लिया था। शुक्ल जी ने अपनी उदारता और बड़प्पन का अच्छा परिचय दिया था।
ऐसी समझदारी मैंने अध्यापक होने के दौरान अपने विद्यालय में तत्कालीन प्रधानाचार्य प्रभुनाथ सिंह प्रजेश जी और स्वर्गीय आचार्य रामचन्द्र यादव के बीच नवम्बर 2003 में देखी थी, जबकि दोनों लोगों में बातचीत उस समय बन्द थी। देश के जाने-माने साहित्यकार पं. विद्यानिवास मिश्र का विद्यालय में अभिनन्दन समारोह आयोजित था। एक दिन पहले आयोजन तिथि निरस्त होने की नौबत आ गई थी। प्रधानाचार्य प्रभुनाथ सिंह हैरान-परेशान हो गये थे। उन्होंने विद्यालय स्टाफ की आवश्यक मीटिंग बुलाई, रामचन्द्र यादव जी ने आपसी वैमनस्य तजकर विद्यालय हित और प्रतिष्ठा में अभिनन्दन समारोह एक दिन पहले करने और बच्चों के द्वारा यत्र-तत्र सूचना प्रसारित करने की सलाह दी, नागरिक शास्त्र प्रवक्ता नवनाथ यादव और अर्थशास्त्र प्रवक्ता परमात्मा प्रसाद सिंह ने भी रामचन्द्र यादव जी की उचित सलाह का समर्थन किया ,जिसे प्रिंसिपल प्रभुनाथ सिंह प्रजेश जी ने तत्काल अमल किया। यह सब आधे घण्टे में प्रार्थना सभा से पहले हुआ। बात बन गई। ऐतिहासिक और यादगार अभिनन्दन समारोह सकुशल सम्पन्न हुआ। यह सब वही कर सकता है जिसकी आत्मा संस्था से जुड़ती है, कोई शोषक, मूर्ख, अहंकारी, कामचोर और निकम्मा व्यक्ति ऐसा कदापि नहीं कर सकता है। ऐसे कार्यों के लिए उसका विवेक जाग्रत हो ही नहीं सकता है।
शुक्ल जी के लिए उनके छात्र हमेशा प्राथमिकता में रहे। शुक्ल जी ने अपने छात्रों की उपलब्धियों को अपनी सफलता मानी। अपनी उन्नति से अधिक छात्रों की सफलता की कामना की। हर योग्य और ईमानदार अध्यापक अपने छात्रों के सफल जीवन में किंचित अपना योगदान मानता है। इससे उसे अनिर्वचनीय आनन्द मिलता है। 44 वर्षों तक लगातार शिक्षण कार्य, लगभग 10 किलोमीटर पैदल चलकर बारहों महीने नदी को नाव से पारकर सबसे पहले शुक्ल जी का स्कूल पर पहुँचना हम सबने देखा है। शुक्ल जी अपने विषय के अधिकारी विद्वान् थे, योग्य शिक्षक थे।
महाकवि बाणभट्ट की जिस विश्वविख्यात संस्कृत कृति कादम्बरी के 'चन्द्रापीड कथा' अंश को संस्कृत के शिक्षकों के लिए शुद्ध उच्चारण के साथ कक्षाओं में धाराप्रवाह पढ़ना कठिन होता था, आचार्य शुक्ल को वह 'चन्द्रापीठ कथा' पूरी तरह से कण्ठस्थ थी, साथ ही साथ पाठ्यक्रम में उस समय शामिल महाकवि कालिदास के रघुवंशम् का द्वितीय सर्ग और महाकवि भास की नाट्य रचना 'प्रतिमानाटकम्' ये तीनों पुस्तकें कण्ठस्थ थी, आपने कभी भी कक्षा में कोई पुस्तक लेकर नहीं पढ़ाया था। बिना किसी पुस्तकीय आधार के शुक्ल जी सब कुछ पढ़ाते थे। संस्कृत का सम्पूर्ण पाठ्यक्रम उन्हें कण्ठस्थ था। आपके पढ़ाने की अद्वितीय दक्षता छात्रों में संस्कृत विषय में अभिरुचि पैदा करती थी और संस्कृत विषय में अध्यापक बनने के लिए प्रेरित भी। बरही इण्टर कॉलेज में जिस कक्षा में मैं आपका छात्र रहा,उसी कक्षा में प्राइमरी स्कूल और इण्टर कॉलेज के मेरे अनेक शिक्षकों को भी आपने संस्कृत विषय पढ़ाया था। आपके सैकड़ों छात्र गोरखपुर ही नहीं उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों और उत्तर प्रदेश के बाहर अन्य प्रदेशों में संस्कृत विषय में ही प्राथमिक विद्यालय, इण्टर कॉलेज, डिग्री कॉलेज और विश्वविद्यालय में शिक्षक हुए हैं । आप गोरखपुर विश्वविद्यालय में संस्कृत विषय में एम. ए. की पढ़ाई के दौरान पं. विद्यानिवास मिश्र के प्रिय छात्र रहे। आप बताते हैं कि वैसा 'विलक्षण विद्वान् और योग्य शिक्षक' मैंने नहीं देखा। आप अपने अध्यापन में पं. विद्यानिवास मिश्र की अध्यापन शैली का प्रभाव मानते हैं। सेवाकाल के अन्तिम पाँच वर्षों के लिए शुक्ल जी ने प्रधानाचार्य पद के दायित्व का निष्ठापूर्वक निर्वहन किया। प्रधानाचार्य बन जाने पर अनुशासन में आप वज्र जैसे कठोर हो गये थे ,पर व्यवहार में कुसुम जैसे कोमल बने रहे। धोती-कुर्ता में मध्यम कद-काठी, माथे पर रक्त चंदन, प्रखर वाणी, स्वाभिमान से युक्त सबल व्यक्तित्व और अपने विषय का मुखर ज्ञान शुक्ल जी की पहचान थी। आपके कक्षा में आते ही सन्नाटा पसर जाता, "आसीत पुरा शूद्रको नाम राजा तस्य विदिशाभिधानाराज्यासीत्........." । और
"स्थित:स्थितामुच्चलित: प्रयातां .............।" आँखें मूँदकर पढ़ाने की आपकी अदा अभी भी दिल-दिमाग में तैरती रहती है। जैसे अभी कल की बात है। आपके रघुवंशमहाकाव्यम् द्वितीय सर्ग को पढ़ाने के आपके ढंग से हमें भी अनेक श्लोक कण्ठस्थ हो गये थे।
अध्यापकीय दायित्व आपके लिए मिशन जैसा रहा । सेवा के दौरान छात्र आपको ज्ञानदाता ही नहीं, अभिभावक भी मानते थे।
इण्टर की पढ़ाई के दो-तीन साल बाद मेरे गाँव के ही शुक्ल जी के पूर्व में प्रिय छात्र रहे यदुवंश यादव उर्फ जद्दू,जो अच्छे विद्यार्थी और पहलवान दोनों थे, ने कमाने जाने से पहले मुझसे कहा था कि "मिसिर जी!तनि चलतीं त सुकुल जी से एक बेर मिलि आवल जात।" जद्दू की दिली इच्छा को देखते हुए मैं भी गया था। उस समय शुक्ल जी के यहाँ कोई मांगलिक आयोजन था। हम लोग अनामन्त्रित होकर अकस्मात पहुँचे थे। मैं तो बहुत संकोच में पड़ गया। सामने शुक्ल जी थे, बचने का कोई रास्ता नहीं था। मेरे संकोच को देखते हुए यदुवंश ने कान में कहा कि " मिसिर जी ! गुरु के इहाँ बोलावल या न्यौता ना हीं देखल जाला।" यदुवंश में शुक्ल जी के प्रति यह श्रद्धा की पराकाष्ठा थी। यदुवंश आज भी अपने जीवन में गुरु कृपा को फलित होता हुआ मानते हैं।
कह सकता हूँ कि यदुवंश के बैच के सारे पहलवान और खेलकूद वाले छात्र शुक्ल जी के लिए बेहद खास और प्रिय थे, हम लोगों से भी ज्यादा प्रिय वे थे। शायद शुक्ल जी के लिए वे अपनी जान तक दे सकते थे। यदुवंश आज भी प्राइमरी से लेकर इण्टर कॉलेज तक के अपने सभी शिक्षकों के प्रति आदर का भाव रखते हैं। हमसे मिलने पर उनकी स्मृतियों को साझा कर हँसते-खिलखिलाते भी हैं और कहते हैं कि उन गुरुजनों ने बहुत कुछ दिया है। यदुवंश आज भी विदेश से आते हैं तो मिलने पर एकाध बार जरूर कहते हैं कि 'चलीं सुकुल जी से मिलि आवल जाँ।"
शुक्ल जी का गुरुत्व उनके नये-पुराने छात्रों के लिए हमेशा मार्गदर्शन की भूमिका में रहा है।
बेहद गरीब परिवार में पैदा हुए,पले-बढ़े यदुवंश को आज भगवान ने अकूत धन दिया है। विदेश से आने पर उसी भाव से मिलते-जुलते हैं और अपने एक पुत्र को बंगलौर से एमबीबीएस की बेहतरीन शिक्षा दिलाकर योग्य डॉक्टर बना दिया है।
उसके बाद मेरी 20-22 वर्षों तक शुक्ल जी से कोई भी भेंट नहीं हुई।
फरवरी 2012 में एक विचित्र संयोग घटित हुआ। 2012 के विधानसभा चुनाव में पीठासीन अधिकारी के रूप में मेरी ड्यूटी कनइल बूथ पर लग गयी। फ़रवरी का महीना था, हल्की-हल्की ठंड भी थी। शायद तारीख 12 फरवरी की थी, एक दिन पहले शाम को पूरी चुनावी पार्टी बूथ पर पहुँच चुकी थी। प्रधान प्रतिनिधि और ग्राम पंचायत अधिकारी ने मिलकर खान-पान,सोने आदि की औपचारिक व्यवस्था दी । वहाँ के तत्कालीन बीडीसी सदस्य बहुत दिनों बाद मिले परिचय हुआ, वे भी बरही इण्टर कॉलेज में साथ पढ़े थे। मतदान के दिन लगभग साढ़े बारह बजे मतदान कर्मियों को भोजन के लिए आग्रह किया गया। मेरी पार्टी में चार सदस्य थे। मैंने कहा कि सभी लोग एक साथ भोजन नहीं करेंगे, बारी-बारी से दो-दो लोग करेंगे, अन्यथा मतदान क्रिया बाधित होगी और भीड़ बढ़ेगी। उस समय प्रथम मतदान अधिकारी का काम मैं देखने लगा। 10-15 मतदाताओं की कतार लग गयी थी। किसी मतदाता की पर्ची हाथ में लेकर मतदाता सूची में नाम और मतदाता क्रमांक पर रेखांकित करके ईवीएम की ओर आगे भेजकर दूसरी मतदाता पर्ची को थामने के लिए हाथ बढ़ाया तो रत्नेश्वर शुक्ल जी को कतार में देखा, वे सामने खड़े थे, मैंने काम छोड़कर अपने आसन से उठकर शुक्ल जी का सादर प्रणाम किया, हालचाल पूछा । स्वाभाविक है कि इस शिष्टाचार में डेढ़-दो मिनट का समय लगा होगा। यह चर्चा का विषय बन गया। गाँव की आपसी रंजिश और राजनीति के चलते मेरा यह शिष्टाचार कुछ लोगों को नागवार गुजरा था, कुछ को कार्य में निष्ठा का अभाव दिखा। सेक्टर मजिस्ट्रेट से मेरी शिकायत भी हुई। सेक्टर मजिस्ट्रेट ने मुझे हिदायत भी दी कि अपने काम से काम रखें,यहाँ रिश्ते जैसी कोई चीज प्रदर्शित नहीं होनी चाहिए। मैं भी थोड़ा सख्त हो गया था। सबके भोजन के बाद जब मैं थोड़ा फ्री हुआ। मैंने सेक्टर मजिस्ट्रेट को स्पष्ट किया कि "महोदय ! मेरी यहाँ पर कोई रिश्तेदारी नहीं है। छात्र जीवन का कोई आदरणीय अध्यापक जब सामने खड़ा हो तो सामान्य शिष्टाचार निर्वाह के लिए कोई भी प्रोटोकॉल आड़े नहीं आ सकता ।" मैंने देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद और बाद में राष्ट्रपति हुए प्रतिष्ठित कानूनवेत्ता डॉ शंकर दयाल शर्मा के पद पर रहते हुए इस तरह के
अपने पुराने शिक्षकों के साथ घटित शिष्टाचार का उदाहरण भी दिया था। मैंने तेज स्वर में कहा था कि जिसे शिकायत करनी हो वह जिला निर्वाचन अधिकारी / जिलाधिकारी से कर सकता है। हम अपना पक्ष दृढ़ता से रख लेंगे। मैंने कहा था कि आपसी दुराव के चलते गाँव में इस तरह का राजनीतिक प्रदूषण अनुचित है। कुण्ठा और पूर्वाग्रहवश लोग गाँव में भी पारस्परिक सद्भाव बिगाड़ते रहते हैं।
शुक्ल जी की पारिवारिक, सामाजिक और आसपास की प्रतिकूल परिस्थितियाँ उनके साहस और आत्मविश्वास को कभी बाधित नहीं कर पायीं।
शुक्ल जी में सत -रज -तम तीनों का सन्निवेश रहा है, लेकिन प्रधानाचार्य पद पर पाँच वर्षों के दौरान उनका अनुशासन का मुखर रूप देखते ही बनता था,चाहे सहकर्मी शिक्षकगण हों या छात्र-छात्राएँ। उनके कार्यकाल में विद्यालयी अनुशासन ने सबको चमत्कृत कर दिया था। शुक्ल जी का विद्यालय के प्रबन्धक बाबू अमर सिंह (बरही स्टेट) से निकट का सम्बन्ध भी सर्वविदित था। बाबू अमर सिंह जी, शुक्ल जी का बड़ा आदर करते थे। शुक्ल जी की रिटायरी क़रीब थी, पता नहीं किस बात को लेकर बाबू अमर सिंह से शुक्ल जी की दूरी बढ़ गयी और हद से ज्यादा आपसी सम्बन्धों में कटुता आ गयी।
विश्वस्त सूत्र बताते हैं कि शुक्ल जी के सख्त अनुशासन से परेशान विद्यालय के कुछ दूषित तत्वों ने,जो कर्मशील और अनुशासित नहीं रहे, ने प्रबन्धक बाबू अमर सिंह जी का खूब कान भरा। बाबू अमर सिंह जी की धारणा धीरे-धीरे शुक्ल जी के विरुद्ध हो गयी। अतिशय बड़े लोग प्रायः कान के कच्चे होते हैं और उनका सामान्य लोगों से प्रायः मिलना-जुलना भी कम ही हो पाता है, अतः सही जानकारियाँ उन तक नहीं पहुंच पाती हैं। शुक्ल जी के रिटायरमेंट के बाद नो-ड्यूज की समस्या अब शुक्ल जी के सामने खड़ी थी। कोई भी झुकने के लिए तैयार नहीं था। बाबू अमर सिंह जी (बरही स्टेट) विद्यालय के प्रबन्धक थे,पद उनका बड़ा था, शुक्ल जी से वे उम्र में भी 3-4 वर्ष बड़े थे और वे राजकुल से थे ही। क्षेत्र में अपनी दृढ़ता, स्वाभिमान, बड़प्पन , दबदबा और प्रतिष्ठा के लिए भी मशहूर थे।
शुक्ल जी प्रधानाचार्य थे, उन्हें भी अपनी योग्यता, ईमानदारी , कर्त्तव्यनिष्ठा और विद्या का दर्प रहा, शुक्ल जी उत्तम कुलोद्भव थे ही। मुख में हमेशा ताम्बूल की गिलौरी और विद्या के दर्प से शुक्ल जी का मुखमण्डल दपदपाता रहता था। शुक्ल जी की अगाध विद्वता और वाग्विदग्धता का कोई जवाब नहीं था। दोनों महानुभाव असाधारण थे और हैं।
आपसी सम्बन्ध दोनों लोगों का दीर्घ काल से मधुर रहा था,न जाने क्यों ग्रहण लग गया था? कालेज के अकर्मण्य और चुगलखोरों ने दूरी हद से ज्यादा बढ़ा दी थी। चुगलखोर हमेशा समाज का, किसी भी व्यवस्था का सद्भाव बिगाड़ने में अपनी पूरी ताकत झोंकते हैं,उनका उद्देश्य अपना उल्लू सीधा करना और अपनी कामचोरी को छिपाना होता है।
हम इसकी तह में नहीं जाना चाहते हैं। ईश्वर को लाख-लाख धन्यवाद कि दोनों के बीच कटुता अशोभनीय सीमा तक नहीं पहुँची थी। बाद के दिनों में बाबू अमर सिंह ने जब इस पर ठण्डे दिमाग से विचार किया तो उन्हें भी बड़ा पश्चाताप हुआ कि इतने मधुर सम्बन्धों में कटुता कैसे पैदा हो गयी थी ? फिर उन्होंने शुक्ल जी को बुलवाया और हर सम्भव कटुता को मिटाने/धोने की कोशिश की। उम्र, परिस्थितियों और समय को देखते हुए बाबू अमर सिंह जी ने अपने ऐडेड इण्टर कॉलेज और डिग्री कॉलेज की प्रबन्धकी छोड़कर अपने बेहद दूरदर्शी, सुयोग्य और सयाने सुपुत्र बाबू शिवेन्द्र विक्रम सिंह जी (बरही स्टेट) को प्रबन्धकीय दायित्व सौंप दिया। बाबू शिवेन्द्र विक्रम सिंह जैसा सद्विवेकी और पूर्वजों की गरिमा को हर हाल में अक्षुण्ण रखते हुए उसमें श्रीवृद्धि करने वाला सपूत किसी को भी कई जन्मों के पुण्य के फलस्वरूप नसीब होता है। वैसे हर जीव अपने पूर्व जन्म के अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोगने के लिए मृत्युलोक में आता है। इसीलिए शास्त्रों में सत्कर्म की प्रेरणा बार-बार दी जाती है। कभी वास्तविक घटनाओं के आधार पर तो कभी कल्पित कथाओं के आधार पर।
शुक्ल जी के रिटायरमेंट के कुछ वर्षों बाद बरही इण्टर कॉलेज के प्रबन्धक बाबू अमर सिंह के अतिशय सुयोग्य सुपुत्र शील, समझदारी और विवेकशीलता की खान बाबू शिवेन्द्र विक्रम सिंह जी उक्त कालेज के प्रबन्धक बने । प्रबन्धक बनने के कुछ दिनों बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी का अपने विद्यालय के लिए एक बड़ा कार्यक्रम लिया। अवसर था कालेज के संस्थापक रहे बाबू प्रताप नारायण सिंह उर्फ प्रताप बाबू की भव्य प्रतिमा अनावरण का। प्रताप बाबू (बरही स्टेट) सचमुच में त्यागशीलता और बड़प्पन की साकार प्रतिमा थे। जिस नाते किसी को बड़े आदमी कहा जाता है,वह बड़प्पन उनमें चरितार्थ होता था।
हम साहित्य और शास्त्रों में जब त्यागशील और उदार प्रजापालक राजाओं का चरित्र पढ़ते हैं तो एक बार प्रताप बाबू (बाबू प्रताप नारायण सिंह -बरही स्टेट) की छवि आँखों में तैर जाती है। प्रताप बाबू ने ही जुलाई 1962 में मेरे पिता जी को अपने इण्टर कॉलेज में सी. टी. ग्रेड में अध्यापक के रूप में नियुक्त किया था। पर 2-3 महीने बाद पिता जी वहाँ छोड़कर बिशुनपुरा इण्टर कॉलेज में आ गये थे। प्रताप बाबू ने कहा था कि -"मिसिर जी ! जात हईं त पछितइबें।" पिता जी ने विद्यालय समय से आने-जाने की असुविधा के कारण बरही विद्यालय छोड़ा था। 1962 का दौर, दुर्गम रास्ता, उस समय किसी के पास साइकिल भी नहीं थी। पैदल ही आना-जाना था। प्रताप बाबू की बात सही हुई, पिता जी बिशुनपुरा इण्टर कॉलेज में भी बमुश्किल साल भर ही सेवा दे सके थे। क्योंकि वे किसी का अनावश्यक अहंकार और दबाव सहने के आदी नहीं थे। कर्त्तव्यनिष्ठ और ईमानदार थे, चापलूसी कर नहीं सकते थे। फिर बीटीसी की ट्रेनिंग कर एक जुलाई 1964 में कैथवलिया प्राथमिक विद्यालय में पहली पोस्टिंग मिली, कुछ दिनों बाद बिशुनपुरा प्राथमिक विद्यालय में आ गए और यहीं से वर्ष 2003 में पिता जी सेवानिवृत्त हो गए।
बरही इण्टर कॉलेज के संस्थापक प्रबन्धक रहे बाबू प्रताप नारायण सिंह की प्रतिमा अनावरण के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी के कार्यक्रम की तिथि निश्चित हो जाने पर वर्तमान प्रबन्धक बाबू शिवेन्द्र विक्रम सिंह जी (बरही स्टेट) स्वयं रत्नेश्वर शुक्ल जी के घर कनइल गाँव गये और कार्यक्रम में पधारने के लिए विनीत भाव से करबद्ध निवेदन किया। बेहद दूरदर्शी और अत्यन्त विशाल हृदय वाले बाबू शिवेन्द्र विक्रम सिंह जी ही यह कार्य कर सकते थे, जो उन्होंने किया । हमारे देश की संस्कृति और सभ्यता में यह बात आती है कि बड़े-बड़े राजा लोग भी असाधारण कवियों -विद्वानों -साधुओं की पालकी एक बार अपने कंधे पर रखने में अपना गौरव समझते थे। कोई असभ्य अहंकारी तो किसी सज्जन और श्रेष्ठ विद्वान् के सामने झुकने में अपनी हेठी समझेगा, इसीलिए वह दो कौड़ी का ही रहेगा।
शिवेंद्र विक्रम सिंह जी के अनुरोध को हृदयंगम कर
शुक्ल जी कार्यक्रम में आये थे, यह भी हमने देखा है। भारतीय संस्कृति में "स्वदेशे पूज्यते राजा,विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।" के महत्त्व को बाबू शिवेन्द्र विक्रम सिंह ने अपनी विनयशीलता और समझदारी से अक्षुण्ण रखा । किसी राजकुल द्वारा "विद्याधनंसर्वधनप्रधानम्।" की संरक्षा होते देख मन गदगद हो गया था। कहा भी तो गया है कि --"एकमप्यक्षरं यस्तु गुरु: शिष्ये निवेदयेत्।"
शिशिर जी के साथ शुक्ल जी के घर पहुँचने पर उन्होंने पहचान लिया, हर्षित हुए। हालचाल और घर के सामान्य शिष्टाचार के बाद
मैंने शुक्ल जी से कहा कि "सर् ! मेरी बचपन से ही दिली साध रही कि मैं भी आपकी तरह "कादम्बरी" और "रघुवंशम्" को पढ़ाता। ईश्वर ने मेरी वह साध नियमों के आलोक में अधिकारपूर्वक पूरी कर दी है, मैं यह कदापि नहीं कहता कि मेरे पास आप जैसी कोई दक्षता है, पर मैं छात्रों को अपना सर्वोत्तम देने की हर समय जी-तोड़ कोशिश करता हूँ।"
मैं आपको अपने हाथ से आज मीठा खिलाना चाहता हूँ, लीजिए खाइए। शुक्ल जी ने कहा कि नहीं-नहीं मैं आपको खिलाऊँगा और उन्होंने मुझे पहले खिलाया। सौभाग्य से वह चित्र शिशिर जी ने उपलब्ध कराया है। एक दिन सोशल मीडिया पर मैंने श्री रत्नेश्वर शुक्ल जी के व्यक्तित्व पर छोटा-सा एक पोस्ट डाला था, उस पोस्ट पर जूनियर कक्षाओं में मेरे शिक्षक रहे और फिर मेरे विद्यालय में पूर्व प्रधानाचार्य रहे कहानीकार एवं एकांकीकार श्री प्रभुनाथ सिंह 'प्रजेश' ने बड़ी सारगर्भित टिप्पणी की थी (श्री प्रभुनाथ सिंह 'प्रजेश' जी की वो टिप्पणी उन्हीं की भाषा में पढ़िए) --"आदरणीय शुक्ल जी विलक्षण प्रतिभा के धनी और अप्रतिम व्यक्तित्व वाले शिक्षक रहे हैं । हमें उनका आशीर्वाद सदैव मिलता रहा । आपके रोगमुक्त और शोकमुक्त जीवन की मँगलकामनाएँ। श्री शुक्ल जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालने के लिए श्री शशिबिन्दु नारायण मिश्र जी को हार्दिक बधाई।"
कछार का, देहात का, गँवई जीवन का सच्चा सुख , जो कि हमारे बचपन का, यौवन काल का अनिवार्य हिस्सा रहा है,आज उसे पुनः ताजा किया।
