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आज बड़ा ही खुश हूँ मैं... जी मैं.. मैं हूँ सुमन्त अय्यर.. एक मध्यमवर्गीय परिवार का 28 वर्षीय....गुडूर का रहने वाला हूँ और भोपाल में कार्यरत हूँ। आज तो पैर जमीं पर ना पड़ रहे मेरे ..बात ही ऐसी है... आज प्रमोशन मिला है और साथ ही साथ दीवाली का बोनस भी..और तो और मेरी छुट्टी भी सेंक्शन हो गई है।
हम मध्यमवर्गीय लोगों की ऐसी ही छोटी छोटी खुशियाँ होती हैं, जो हमें जरा में फ़ुला के कुप्पा कर देती है। लोगों के लिए दिलेरी से पैसे खर्च करना.. "मजा करना" होता होगा, पर हम लोगों के लिए, मूर्खता से ज्यादा कुछ भी नहीं। ये ट्रीट देना.... लोगों को बेमतलब का खिलाना पिलाना हमारे लिए चोचलेबाजी के अलावा कुछ भी नहीं होता। इसलिए ज्यादा हसरतें पालते नहीं हम लोग।
हम जैसे लोगों को बचपन में ही प्रशिक्षित कर दिया जाता है। कौन सी चीजे पहले जरूरी है, कौन सी बाद में...ये फर्क और जिम्मेदारी बचपन से ही समझायी जाने लगती है और हमे इसमें ट्रेंड कर दिया जाता है।
जब भी हमारे मन में कोई इच्छा पैदा होती हैं तो उसके साथ ही यन्त्रचालित तरीके से मन में हिसाब किताब भी चलने लगता है। इससे बचने का एक ही सहज और एक मात्र इलाज यही होता है कि... अपनी कुछ हसरतें पूरी करने के लिए कुछ निश्चित गोल या लक्ष्य तय कर लिए जाते है और जब ये गोल पूरा होगा तब यह करेंगे...l
फ़िलहाल इन सब बातों का लब्बोलुआब ये है कि आज मेरा भी एक ऐसा ही दिन है और मुझे अपनी एक ऐसी ही हसरत पूरी करनी थी.. क्या था एक बार गर्मी में घर जाते समय स्टेशन पहुँचने में लेट हो गया था तो जल्दी में हम ट्रेन के प्रथम श्रेणी के वातानुकूलित डिब्बे में चढ़ गए.. तो हम वहां की सुविधाएँ और आराम देखकर थोड़ा ललचा गए... लेकिन क्या करें हिसाब किताब बीच में आ गया। पहले तो वही चेक करना पड़ता है ना क्योंकि.. हैसियत तो शयनमान श्रेणी की थी।
अगले स्टेशन पर उसमें से उतरते समय मन ने दृढ़ निश्चय कर लिया था की, पहला प्रमोशन मिलते ही इसी में टिकट बुक कराऊँगा और दूसरे प्रमोशन पर हवाई यात्रा।
छुट्टी सेक्शन होते ही खुशी खुशी सबसे पहला काम टिकट बुक करना ही किया.. आराम से मिल भी गया.. गर्मी का समय होता तो शायद वेटिंग में भी नहीं मिलता। ऑफ़ सीज़न था, सोचा चलो धक्कमपेल नहीं होगी।
टिकट में देखा तो ट्रेन का समय रात का था, सोचा अरे! घर जाना है..तैयारी भी तो करनी है... सो फ़टाफ़ट आफ़िस का कार्य निपटाने में लग गया। पूरा होते ही आनन फ़ानन घर पहुँचा और जल्दी जल्दी बैग में सामान रखने लगा तो आदतन पतला कंबल और तकिया भी उठा लाया.. फ़िर याद आया... अरे पागल है क्या! वहां तकिया, कंबल, चादर सब मिलेगा...तो झटके से पटक दिया और जल्दी से बैग पैक किया।
घड़ी देखी 8 बज रहे थे, ट्रेन का टाइम 10 बजे का था, तो जल्दी से बाथरूम में घुसा और नहाकर तैयार हो गया..1घंटा तो रेल्वे स्टेशन पहुँचने में लगेगा...और अभी तो पेट पूजा भी करनी है। तो जल्दी से कमरा लॉक किया और TR-1 बस पकड़ी और 10 नम्बर पर उतरा और साऊथ इंडियन कार्नर पर जाकर जल्दी से एक मसाला डोसा और सांभर बड़ा आर्डर किया और खतम किया..l
फ़िर एक ऑटो लेकर स्टेशन पहुँचा...घड़ी देखी तो 9.40 हो गए थे..l प्लेटफ़ार्म पर खड़े खड़े ही टिकट वगैरह चेक किया और ट्रेन का इंतजार करने लगा। बुलेटिन बोर्ड पर देखा तो ट्रेन राईट टाइम थी..थोड़ी देर में ही ट्रेन आ गई और मैंने जल्दी से अपना कोच देखा A-1.. हाँ यही है चढ़ गया...l
जल्दी में था तो ध्यान नहीं दिया पर कोच के नम्बर के नीचे ही खतरे का निशान बना हुआ था, ध्यान देकर भी सिरे से खारिज कर दिया कि...ये भी कोई ध्यान देने वाली बात है.... अरे ये तो हमारे यहाँ का जन्म सिद्ध अधिकार है..... यदि हम अपनी देश की संपत्ति को नुकसान नहीं पहुँचाएंगे तो हम भारतीय कैसे हुए भई !!
जैसे ही कोच में पहुंचा तो देखा तो सब तरफ़ बस पर्दे ही पर्दे नजर आये ..इक्का दुक्का केबिन की लाईट जल रही थी ..ना ही कोई चहल पहल ना ही कोई रौनक थी। मुझे ऐसा लग रहा था... जैसे किसी ने फ़ूले हुए गुब्बारे की हवा निकाल दी हो...पर फ़िर भी मैंने अपने दिल को समझाया - अरे बुद्धू ये प्रथम श्रेणी का AC डिब्बा है, सो घिचड़ पिचड़ थोड़े होगी...यहाँ थोड़ी प्रिवेसी होती है.. मैंने अपने आप को समझाया और अपनी बर्थ ढूँढकर सामान सीट के नीचे जमा दिया। और विंडो पर जाकर बैठ गया।
ट्रेन का थोड़ी देर का स्टापेज था, कुछ ही देर में पटरी पर सरकने लगी। ठंड का मौसम तो था ही, फ़िर AC कोच थोड़ी देर में ही मुझे ठंड लगने लगी...तो मैंने बर्थ पर रखा कंबल ही ओढ़ लिया। एक तो पूरे कोच में मेरे अलावा एक भी इंसान नहीं.... इतना डरपोक भी नहीं हूँ.... पर सच बोलूँ तो मुझे ना जाने क्यों बहुत डर लग रहा था। मेरे खुश होने की और इस यात्रा को लेकर जो मेरे ख्याल थे...सब हवा हो गए थे। कोच में एक रेलवे का कर्मचारी तक नहीं था।
मैं हमेशा ट्रेन की भीड़भाड़ से त्रस्त हो... यह सोचा करता था कि कितना अच्छा हो...यदि सफर करते समय कोई यात्री ही ना हो लेकिन आज पहली बार लग रहा था की, लोगों का होना कितना जरूरी है। अजीब सी घबराहट हो रही थी, सफर तो रात का था, सोना ही था... फिर भी बहुत डर लग रहा था... ऐसे में नींद कैसे आएगी। न जाने क्यों.. ट्रेन की सफेदी डरा रही थी मुझे....जहां देखो सफेद पर्दे, सफेद चादर, सफेद तकिया.. .रह रह के मन को आशंकित करते, अजीबोगरीब ख्यालात मुझे परेशान कर रहे थे। मेरा मन रोने जैसा हो रहा था।
मैं भगवान को मना रहा था कि रहम कर दो... कोई यात्री गण भेज दो। ये कहते हुए मैंने अपनी पलकों को बस बंद करके खोला ही था कि क्या देखता हूँ कि...मेरे सामने की सीट पर एक बहुत ही खूबसूरत लड़की बैठी है....
ये इतना अप्रत्याशित था कि मैं बता नहीं सकता... डर की वजह से मेरी दिल की धड़कनें ट्रेन से भी ज्यादा फ़ॉस्ट दौड़ रही थी.. घबराहट में.. मैं बिना पलक झपकाएँ उसे पागलों की तरह घूरे जा रहा था.. !! ऐसे लग रहा था कि जैसे हवा से प्रकट हुई हो।
मेरा दिल, दिमाग और छह की छ्ह इंद्रियाँ सिर्फ़ ये जानने में मशगूल थी कि वह केबिन में कब आई ..उसे अच्छी तरह से याद था कि उसका पूरा ध्यान केबिन में केन्द्रित था...मैंने उसे आते नहीं देखा....वो यहाँ कब आई ????
मैं अभी इसी में उलझा हुआ था कि तभी एक शहद से मीठी सम्मोहित करती सी आवाज सुनायी दी ..तो जैसे मेरा ध्यान भंग हुआ... तो मैं अचकचाके वहां देखने लगा।
क्या हुआ ...कोई प्रॉब्लम..जब उसने मुस्कराते हुये पूछा।
तो मैंने अपनी ओर ध्यान दिया कि मैं क्या कर रहा हूँ .. तो मैंने जल्दी से अपने चेहरे के भाव बदले और चेहरे पर एक मुस्कान चस्पा करके हकलाते हुए बोला - कु.कुछ नहीं ..वो आपको अचानक से देखा ना तो चौंक गया था.. आप कब आई.. देखा नहीं तो.. .सही बात खुदबाखुद मुँह पर आ गई.. तो थोड़ा अपने आप पर झेंप भी गया।
वो खिलखिलाकर हँस दी... और बड़ी ही बेतकल्लुफ़ी से मुझे उँगली दिखाकर अपने पेट पर हाथ रख हँसी कंट्रोल करते हुए बोली... आप डर गए थे ना.. सही सोचा ना मैंने हाँ.. ह्ह्हहा है ना..है ना !!
मैं थोड़ा झेंपते हुए खिसयाई हँसी हँसते हुए... बचाव मुद्रा में बोला.. ऐसा नहीं है.. हाँ..वो अचानक आपको देखा तो...आप भी ऐसे किसी को अचानक देखोगी तो...आप भी... ये कहते हुए पहली बार मेरी नजरें उसके चेहरे पर गयी.. तो देखता रह गया...
खूबसूरत, घनी पलकों से सजी, बड़ी बड़ी सुन्दर काली हँसती आँखें, गुलाबी होंठों के बीच से झांकती हुई मोती जैसी दंतपंक्ति, श्वेत गोरा शफ़्फ़ाक रंग, काले घुंघराले बाल जिन्हें उसने आधा एक क्लेचर में बाँध रखा था। उनमें से कुछ लटें निकलकर उसके गोरे चेहरे पर गिर रही थी और उसकी खूबसूरती को चार चांद लगा रही थी। लंबी सुराही दार गर्दन, सांचे में ढला हुआ बदन, जिस पर उसने एक खूबसूरत सी प्रिन्टेड, घुटने से थोड़ा लम्बी, घेरदार फ़्राक पहनी हुई थी। वह 20-21 वर्ष की युवा लड़की थी।
जब मैं बोलते बोलते रुक गया तो उसने नजरें उठा कर मेरी तरफ़ देखा तो दोनों की नजरें जैसे ही मिली तो वह थोड़ा असहज हो गई। उसे ऐसे देख.... मुझे लगा जैसे मैं कोई चोरी करते पकड़ा गया हूँ ... तो मैंने अपना चेहरा खिड़की की ओर फ़ेर लिया।
बस फ़िर क्या था.. जो कुछ देर पहले...मेरी छह की छह इंद्रियां जागी हुई थी, वह सुसुप्त अवस्था में चली गई और उसके साथ ही ...सो कॉल्ड टिपिकल मैन अपनी संपूर्ण ग्रंथियों के साथ जाग गया था।
कुछ देर पहले जो सफ़ेदी भरा.... कोच का माहौल मुझे डरावना लग रहा था.. वो अब मुझे ठन्डी हवा सा सुहावना लग रहा था। अब मेरे अंदर बैठा पुरुष अपनी सम्पूर्ण कलाओं के साथ चुस्त दुरुस्त हो कर... तैयार बैठा था।
वह उसकी अधूरी छोड़ी बात पूरा करते हुए बोली... जी सही कहा.... मुझे सच में बहुत ही डर लग रहा था, कोच में कोई भी नहीं था, जब आपको देखा तो मैं यहाँ आ गई, मेरा नम्बर अलग है.... बर्थ का .. कोई आ जायेगा तो मैं तब चली जाऊँगी ...तब तक यहाँ बैठ जाऊँ ... आपको कोई प्रॉब्लम तो नहीं।
अरे! आप कैसी बातें कर रही है...भला मुझे क्यों प्रॉब्लम होगी... एक से भले दो... सच बताऊ तो.. मुझे भी अकेले अच्छा नहीं लग रहा था.. मैंने ऐसे ना कभी, अकेले सफ़र नहीं किया है.. मैं अपनी ही रौ में बोलता चला गया।
अच्छा! उसने कहा.. और मेरी तरफ़ देखकर मुस्करा दी।
उसके ऐसे मुस्कराने पर मुझे समझ आया कि मैं क्या बोल गया... अपने आप पर बहुत गुस्सा भी आया.. अंदर का सो कॉल्ड "रक्षक मर्द" जाग गया। अंदर ही अंदर खुद पर कुड़ रहा था कि क्या सोच रही होगी मेरे बारे में...।
ट्रेन अपनी गति से दौड़े जा रही थी, वह लड़की अपने ही कामों में लग गयी। उसने कुछ खाने को निकाला और खाने लगी... औपचारिकता वश उसने एक बार मुझे भी पूछा...फ़िर अपने में ही लगी रही।
मैं.... मेरा पूरा ध्यान सिर्फ़ उसमें ही लगा था .... मैंने एक पत्रिका निकाली और पढ़ने का नाटक करने लगा.. नाटक ही कहेंगे क्योंकि आँखें तो कनखियों से गाहे बगाहे उसे ही ताड़ने में लगी हुई थी। पूरा दिमाग भी इसी तरकीब में ही लगा था कि उससे बात कैसे करुँ...कही मेरे बात करने से मुझे छिछोरा ना समझ ले ... कि लड़की देखी नहीं और हो गए शुरू.. बेसब्र तो नहीं लगूँगा... इसी ऊहापोह में लगा हुआ था कि मेरी शरीफ़ व्यक्ति की छवि भी बनी रहे और मैं उससे बात भी कर लूँ।
मैंने एक बार फिर उसे देखा तो वह अपना फ़ोन चला रही थी। अरे यार ! छोड़ो.. कुछ ज्यादा ही सोच रहा हूँ... आखिरकार अपने मन से हार ही गया.. बड़े उत्साह से.. बोला - सुनिए!
उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से मुझे देखा तो मैंने चेहरे पर एक औपचारिक मुस्कान लाते हुए कहा यदि आप बोर हो रही हो, तो मेरे पास कुछ पत्रिकाएं है, यदि आप पढ़ना चाहे तो !!
उसने भी एक औपचारिक मुस्कान के साथ मेरे इस प्रयास को विफ़ल कर दिया.. बस सिर हिलाकर मना कर दिया।
मैं अंदर ही अंदर झल्ला सा गया... कि बड़े तेवर है ! यार मैं क्या भेला लगता हूँ इसे... कि मुझसे बात करने में तकलीफ हो रही हैं। शायद कहीं मेरे अहम को चोट लगी थी।
थोड़ी देर में वह मुझे सोने की तैयारी करते दिखी.. और थोड़ी देर में ही कंबल ओढ़कर सो गई।
मेरा भी उत्साह ठंडा हो गया.. .तो मैं भी फ़ोन चलाने लगा।
पर ना जाने क्यों मेरा मन उसी की ओर खिंचा जा रहा था,
ना चाहते हुए भी रह रह के उसके चेहरे पर ही नजर जा रही थी। विपरीत लिंगी होने का असर था या कोच का तन्हा माहौल.. पर मैं अपना ध्यान उससे हटा ही नहीं पा रहा था।
तभी मेरी नजरें उसके चेहरे पर ठहरी ही थी कि मुझे लगा कि उसने अपनी आँखें खोली.... मैंने देखा कि उसकी आँखों की पुतलियाँ ही गायब थी .. मैं डर के मारे अंदर तक हिल गया, AC की ठंडक में भी पसीने आ गये।
मैंने अपने आप पर विश्वास करने के लिए एक बार फिर डरते हुए उसे देखा तो.. सब नॉर्मल था.. मुझे जैसे राहत मिल गई हो.. मैंने अपने आप को झटका.. पागल हो गया क्या!! कैसे कैसे वहम हो रहे हैं.. अच्छी भली तो सो रही है।
अपने को संयत करते हुए...एक लंबी साँस खींचकर छोड़ी और बोला - मुझे सो जाना चाहिए। दिमागी फ़ितूर हो रहा है मुझे। मैंने अपना कंबल सही किया और सोने के लिए लेट ही रहा था कि....
उस लड़की ने उस तरफ़ करवट ले ली.. तो मैंने कहा चलो अच्छा ही हुआ ..अब अच्छे से नींद आयेगी। पर लगता है कि मेरा दिन ही खराब था.. भगवान मुझसे गिन गिनकर बदला ले रहे थे।
मेरी नजरें फ़िर उसकी तरफ़ गई... तो देखा कि करवट लेने से उसकी कंबल उस पर से हट गयी थी और उसके पैरों के नीचे दब गई थी...जिससे उसके कपडे अस्त व्यस्त हो गए थे और उसकी फ़्रॉक खिसककर घुटनों से जरा ऊपर पहुँच गयी थी। तो.... आप समझ सकते हैं कि....
यह एक विपरीत लिंगी की सहज वृत्ति थी या फिर पुरुष सोच का कमीनापन...मैं अपनी नजरें वहां से हटा नहीं पा रहा था और मेरी भावनाएँ थोड़ी असंयत सी हो रही थी।
मेरा मन ये करने से रोक रहा था मुझे...पर जैसे मेरी नजरें अपने लोभ को संवरण ही नहीं कर पा रही थी। ना चाहते हुए भी वहां से हट ही नहीं रही थी।
पर कहते है ना कि हमारे संस्कार या आदर्श कह लीजिए..
हमे नैतिकता का पाठ अनुसरण करा ही देते है... जो हमें बहकने, भटकने से बचा ही लेते हैं।
आखिरकार मेरी इस अंदर बाहर की लड़ाई में... मेरा जमीर थक हार कर जीत ही गया। मेरा मन मुझे धिक्कार उठा.. तुम ! वह तुम्हारे पास अपनी सुरक्षा के लिए आई थी और तुम उसे ऐसे...छि!! मेरा मन ग्लानि से भर उठा।
मैंने जल्दी से अपने आप को सँभाला और मेरे बर्थ पर जो चादर पड़ी थी.. वो उठाई और जाकर उस पर डाल दी।
मुझे थोड़ी शांति सी मिली...और मैं अपनी बर्थ पर आकर उस ओर करवट लेकर सोने की कोशिश करने लगा।
करीबन रात के 1.30 से 2 बजे के बीच का समय होगा..
थकान की वजह से मुझे भी.. नींद आ ही गयी थी। तभी अचानक से कुछ सन्नाटे को चीरती आवाजों ने मुझे नींद से जगा दिया।
आवाजें इतनी तीव्र और डरावनी थी कि मैं घबरा कर उठ गया। ऐसा लग रहा था कि जैसे कई लोग एक साथ कोच में आ गये हो और किसी के साथ कुछ गलत कर रहे हो.. प्लीज हैल्प...बचाओ की आवाज़ आ रही थी।
उठते ही सबसे पहले मेरी नजरें उस लड़की की सीट पर गयी ..तो वो वहाँ पर थी ही नहीं... हे भगवान कहीं वो... उसके साथ तो नहीं!!! डर के मारे मैं सीट से उचककर खड़ा हो गया।
एक तरफ मेरी डर से घिग्घी बँध रही थी...तो दूसरी तरफ उस लड़की की चिन्ता में चैन नहीं आ रहा था। बहुत सोच विचार करके.. मेरी संवेदनाएँ जीत ही गयी.. मैं उसे ऐसी हालत में नहीं छोड़ सकता... कुछ तो करना ही होगा..।
डर से मेरे पैर काँप रहे थे.. मैंने अपने बैग से सामान को बाँधने वाली लोहे की चैन निकाली... और धीरे धीरे आवाज की दिशा में बढ़ने लगा ...डर से मेरे पैर काँप रहे थे और मेरे धड़कनो की आवाज़ धाड़ धाड़ मेरे कानों तक सुनायी दे रही थी।
मेरे केबिन के, दो केबिन बाद तीसरे केबिन से लाइट आ रही थी, वही से आवाज आ रही थी... जैसे ही मैं वहां पहुंचा डर की वजह से.. मेरी हालत बहुत खराब थी ...कि ज्यादा लोग हुए तो कैसे लड़ूँगा... मैंने डरते डरते केबिन के पर्दे को थोड़ा सा हटाकर देखा कि.... कितने लोग हैं....????
अंदर का हाल देखकर मेरा चेहरा गुस्से से तमतमा गया.. मैंने झटके से पर्दा हटाया.. तो वह मुझे देख पहले तो थोड़ा चौकी... लेकिन मेरे हाथ में चैन देखकर ..मेरी हालत देखकर उसे सब समझ आ गया ...
उसने जल्दी से अपना मोबाइल स्विच ऑफ़ किया... बोली.. सौरी.. सौरी
फ़िर मेरी हालत को देखते हुए.. कंट्रोल करते हुए.. पर जब कंट्रोल न हुई तो वह फ़िक करके जोर से हँस पड़ी.. और बोली कि... आप क्या समझे कि कोई मेरे साथ...!! इसके बाद उसने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया और फ़िर हँसने लगी। मैं झल्लाया हुआ मूर्खो की तरह खड़ा था वहां।
फ़िर समस्या की गंभीरता को भाँपते हुए.. थोड़ी शर्मिंदगी के साथ बोली.. जी मुझे माफ़ कर दीजिए...मेरी वजह से आपको प्रॉब्लम हुई.. पर मेरा आपको परेशान करने का कोई इरादा नहीं था.. वो क्या हुआ कि मुझे नींद नहीं आ रही थी तो मैंने सोचा कि मोबाइल चला लिया जाये...पर देखा कि आप सो रहे थे.. मुझे लगा कि इसकी आवाज से आपको प्रॉब्लम होगी... तो उठकर यहाँ आ गई...सौरी।
चलिए अपने ही केबिन में चलकर बैठते है... कहते हुए वह मेरे आगे आगे चलने लगी। वह फ़िर भी दबी हुई मुस्कराहट के साथ हँसते हुए मुझे कनखियों से देखती जा रही थी।
अब मैं क्या कहता... मेरा चेहरा देखने लायक था... मैंने सिर उठाकर भगवान को याद करके...मन ही मन कहा - क्यों मेरी लेने में लगे हो.. बस करो... जब से आया हूँ, कुछ ना कुछ लगा हुआ हैै और मैं हवा निकले गुब्बारे की तरह उसके पीछे चलते हुए अपने केबिन में पहुँचा...l
पर मेरे मन में फ़िर वही विचार घुमड़ घुमड़ होने लगे.. कि मोबाइल की आवाज़ 3-3 केबिन छोड़ कर भी इतनी तेज कैसे आ सकती है... यार! ..जैसे कोई लाऊड स्पीकर लगा हो। रियल आवाज और मोबाइल की आवाज में बहुत फ़र्क होता है...इतना बेवकूफ़ थोड़े ही हूँ, कि अंतर समझ ना आए।
मुझे भ्रम तो नहीं हो रहा !! मुझ पर ना.. लगता है, कि खाली कोच के माहौल का कुछ ज्यादा ही असर हो रहा है। मैं अपने आप को समझाये जा रहा था।
पर मुझे क्या पता था कि अभी तो सबसे बड़ा झटका मिलना बाकी है.. जो इंतजार कर रहा है उसका।
जैसे ही हम केबिन में पहुँचे तो वह अपनी सीट पर बैठ गई और मैं भी अपनी सीट पर गया तो केबिन में खिड़की के ऊपर लगे आईने में अपने बिखरे बाल देखकर अपने बाल संवारने लगा।
तभी वह मुझसे बोली.. जो भी हुआ हो अभी पर.. आप एक बहुत ही अच्छे इंसान हैं...आप मुझे बचाने आये... नहीं तो आजकल... कोई अपने की भी मदद नहीं करता। थैक्स ...
आप समझ नहीं सकते उस समय मैं कैसा फ़ील कर रहा था.. मेरी छाती खुशी से दूनी हुई जा रही थी। मैंने खुशी से आईने में ही उसे उसकी सीट पर देखा तो वह वहाँ नहीं दिखी.. तो
मैंने उसे ढूँढने के अंदाज में पीछे मुड़कर देखा तो वह मुझे वही बैठी दिखी। तो मैं फ़िर आईने में देखने लगा तो ... स्वाभाविक रुप से आईने में उसे भी देखा तो वह फ़िर नहीं दिखी तो मैंने फ़िर मुड़कर देखा तो वो वही बैठी थी...अब मैं..मैं चौक गया.. ऐसा कैसे हो सकता है.. मैं अंदर तक हिल गया.. मैं झटके से उसकी ओर मुड़ा... तो उसने चौक कर मुझसे पूछा.. क्या हुआ...
कु.. कुछ नहीं... मैं मैं मुंह धोकर आता हूँ.... मैं लगभग दौड़ते हुए केबिन से बाहर आया और सीधा टॉयलेट में जाकर ही रुका और अंदर से कुंडी लगा ली.. डर के मारे मैं इतनी ठंड में भी पसीने से तरबतर हो गया.. मेरा गला सूख रहा था... मैं काँप रहा था।
मैंने वाशबेशिन में अपना चेहरा धोया और उसके आईने में देखा तो वह मेरे पीछे खड़ी थी.... अआ...मैं डर से एक कदम पीछे हुआ और गिरते गिरते बचा। मैंने घूमकर चारों तरफ देखा कुछ भी नहीं था.... मैंने एक बार फिर आईने में देखा तो...कोई नहीं था...
मैंने एक लंबी साँस खींचकर छोड़ी। मैंने अपने आप को समझाया कि अकेले होने की वजह से मुझे ना बार बार वहम हो रहा है। मैंने अपने आप को शांत किया और टॉयलेट से बाहर निकला।
मैं बाहर आकर अभी कुछ कदम बढ़ा ही था कि देखा वह ट्रेन के गेट पर जो खुला हुआ था.. वहाँ खड़ी हुई थी, उसके हाथ में एक गुलाब था... वह दो कदम चलकर मेरे पास आई... वह गुलाब उसने मेरी जैकेट पर लगा दिया और मुस्करा कर बोली - आपका जमीर अभी तक जिंदा है, उसे यूँ ही रखिएगा.. उस वक़्त तक उसकी नजरें झुकी हुई थी, फ़िर उसने धीमे से अपनी गर्दन को तिरछा करके नजरें उठा मेरी ओर देखा और बोली ....नहीं तो...
जैसे ही मेरी नजरें उसकी नजरों से मिली.. मैं वही बर्फ़ की तरह जम गया उसकी आँखें वैसी ही थी जैसी मैंने उसकी सोते समय देखी थी पुतलियाँ गायब थी ....और वह पता नहीं कहाँ.. हवा में विलीन हो गई।
मुझे काटो तो खून नहीं था... मैं बिल्कुल सुन्न... बेहोश, सक्ते की हालत में पता नहीं कब तक वहाँ खड़ा रहा...मुझे होश शायद जब आया ..जब ट्रेन अचानक किसी स्टेशन पर रुकी तो उसके झटके से मैं गिरते गिरते बचा... मैं अभी भी विश्वास नहीं कर पा रहा था कि जो मैंने देखा वह सच में हुआ था... या कोई सपना था।
इतने में एक्जिट गेट जो थोड़ी देर पहले खुला देखा था मैंने... वह बन्द था... अचानक से खुला और उससे 8-10 यात्री सामान लेकर अंदर आने लगे.. उनके पीछे ही एक रेलवे का कर्मचारी हाथ में कुछ कंबल और चादर लेकर आया और जैसे ही उसने मुझे देखा तो मुस्कराते हुये कहने लगा.... तो आपका जमीर जिंदा है .... चलिए आ जाइये.. अब वो नहीं आयेगी.. गुलाब देकर गई है.. इसका मतलब कि..... अपने जमीर को जिन्दा बनाये रखना.. हा हाहाहा...
मैंने अपनी जैकेट पर देखा तो वहाँ गुलाब अभी भी लगा हुआ था... मैंने डर के मारे जल्दी से उसे निकाल कर गेट से बाहर फेंक दिया। ..
मैं ही जानता हूँ कि मैंने वह सफ़र कैसे पूरा किया। मुझे हर यात्री में वही नजर आ रही थी। मुझे किसी को कुछ बताने की हिम्मत ही नहीं हुई सब मुझे पागल समझते।
घर पहुँचकर.. मेरा सिर दर्द के मारे फ़टा जा रहा था, मैं अभी भी अपने को विश्वास दिला रहा था कि जो मैंने देखा था वो सच था या सपना। मैं कटे पेड़ की तरह बिस्तर पर जाकर गिरा.. और जो सोया... सोकर उठा तो देखा.... मेरी जैकेट पर वही गुलाब लगा हुआ था...मैं डर के मारे काँप उठा।
उसके बाद मैं दो दिन तक किसी से नहीं बोला लेकिन जल्दी ही समझ आ गया कि मुझे क्या करना है... अब मैं कभी किसी लड़की को गलत नजरों से नहीं देखूँगा..l मेरे ऐसा सोचते ही वह गुलाब कहीं गायब हो गया... तो आप समझ गए ना... अपना जमीर जिंदा रखिएगा।
हाहाहा... समझे की नहीं या समझाऊँ..

