Dr Ranjana Verma

Tragedy

2.6  

Dr Ranjana Verma

Tragedy

विवशता

विवशता

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"भूख लगी है बापू !"

 अजय ने अपने पिता के पैरों से लिपटते हुए कहा। सुखलाल पत्नी की बीमारी से पहले ही बेजार है और उस पर बेकारी की मार।

 आज तो डॉक्टर ने स्पष्ट कर दिया -

"देखो सुखलाल ! रुपयों के बिना इलाज कितने दिन चल सकता है ? और फिर तुम्हारी पत्नी को यक्ष्मा हो गया है। सेनेटोरियम में भर्ती कराए बिना उसका इलाज"

आगे के शब्द वह नहीं सुन सका था। मन में उमड़ते आँधी तूफान अपना आधिपत्य नहीं छोड़ना चाहते थे। घर पर चार पैसे का चना भी नहीं। पत्नी के इलाज के लिए दवा चाहिए। बच्चे के लिए रोटी। और इन सब के लिए चाहिए पैसा। कहां से आएगा पैसा ?

स्टेशन पर यात्रियों के सामान ढोने वाला एक अदना सा कुली अपना और अपने फूल से बच्चे का पेट कैसे भरे ? माधुरी ने दम तोड़ दिया तो दुख सुख का सच्चा साथी नहीं नहीं। ऐसा कभी नहीं होने देगा वह। वह उसे मरने नहीं देगा। अजय को वह अनाथ नहीं होने देगा। लेकिन वह कर भी क्या सकता है रेल कर्मचारियों ने हड़ताल कर रखी है ?

रेल कर्मचारियों ने हड़ताल कर रखी है। रेलगाड़ियों का आवागमन नहीं तो यात्री कहां से आएंगे ? और फिर उसकी रोजी ? उसके समर्थन में बंद किया गया है। दुकानों पर ताले लटक रहे हैं । किसका सिर फिरा है जो अपना सामान फुंकवाए ? और तो और बैंक कर्मचारियों ने भी लेन देन बंद कर रखा है। गाढ़े की कमाई से इकट्ठा किए हुए दो हजार रुपये इस समय आड़े आ जाएं तो माधुरी की जीवन रक्षा हो जाए। कुछ रुपए स्टेशन मास्टर से या फिर महाजन से सूद पर ले लेगा। अपना खर्च घटाकर धीरे धीरे सब कर्ज चुका देगा वह। किंतु कब ?

महाजन का प्रश्न - "हड़ताल जाने कब तक चले। कमाई ही नहीं होगी तो दोगे कहां से ?"

बैंकों में काम बंद है। डाक खाने से कुछ मिल नहीं सकता। जो रुपए हैं वे भी काम नहीं आ सकते। क्या होगा अब ?

"बापू ! भूख लगी है ।"

अजय फिर रिरिआया। भूख .. हाँ, भूख तो उसे भी लगी है लेकिन सब्जी की टोकरी में एक आलू पड़ा है। कनस्तर में मुट्ठी भर भी अन्न नहीं। क्या करें ? क्षुधा तृप्ति का साधन नहीं। भूख आँसुओं से नहीं बुझ सकेगी।

 भगवान इन रेल कर्मियों को सुबुद्धि दे। क्यों हमारी जान के दुश्मन बने हैं ?

डॉक्टर कहता है -

"यह इंजेक्शन अभी आधे घंटे के भीतर लगवा दो सुखलाल ! वरना"

 हाथ में पुर्जा थामे वह सोच रहा है - वरना माधुरी बच नहीं सकेगी। विक्षिप्त स्थिति में अस्पताल की बाउंड्री पार करके वह सड़क तक आ गया। डॉक्टर साहब दयावान हैं। बीस रुपये का नोट उन्होंने ही दिया है। सुखलाल सवारी की प्रतीक्षा नहीं कर सकता। सवारी का क्या भरोसा ? न मिले तो ? सड़क पर दौड़ते कदम पूरा मार्केट छान मारा। इंजेक्शन नहीं मिला। हर जगह एक ही उत्तर - 'स्टॉक खत्म हो गया है। नया स्टॉक तब तक नहीं आ सकता जब तक रेल चलने न लगे। नया स्टॉक, इंजेक्शन सबसे पहले बच्चे को रोटी देनी है, माधुरी को इंजेक्शन।  

 सुखलाल पागलों की तरह दौड़ पड़ा। पत्नी की बेड तक पहुंचते-पहुंचते सांस फूल गयी। डॉक्टर सिर झुकाए खड़े हैं।

"तुमने देर कर दी सुखलाल ! माधुरी चल बसी नहीं ।"

"नहीं...."

 व्यथित आत्मा का अंतरनाद पीड़ा का चीत्कार, आँखों के सामने नाच उठीं कुछ बेबस तस्वीरें इंजेक्शन, बस, रोटी और भूख। और, और..रेल बंद हो गई। स्टॉक खत्म हो गया। बैंक बंद हो गया। उसकी माधुरी चल बसी ... हा.. हा.. हा.. ओह, मृत्यु का भयानक अट्टहास हॉस्पिटल की दीवारों से टकराने लगा।

 विवशता चीख चीख कर रो पड़ी और उस चीख में गुम होती हुई पुकार -

"बापू ! भूख लगी है, रोटी दो...बापू ! रोटी .."


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