विनाशकारी अंडे – 7.2

विनाशकारी अंडे – 7.2

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रोक्क - 2


अगस्त का कड़ी धूप वाला दिन था। इससे प्रोफ़ेसर को परेशानी हो रही थी इसलिए परदे गिरा दिए गए थे। एक एडजेस्टेबल रिफ्लेक्टर विभिन्न उपकरणों और लेन्सों से अटी कांच की मेज़ पर तेज़ प्रकाश पुंज फेंक रहा था। घूमती कुर्सी की पीठ से टिककर, थकान से चूर प्रोफेसर कश लगा रहा था और बेहद थकी हुई मगर प्रसन्न आँखों से धुँए के बादल से चैम्बर के अधखुले दरवाज़े के भीतर देख रहा था, जहाँ कैबिनेट की दमघोंटू और गन्दी हवा को कुछ-कुछ गरमाते हुए लाल रंग का प्रकाश पुंज पड़ा था।      

दरवाज़े पर खटखट हुई।

“क्या है ?” पेर्सिकोव ने पूछा।

दरवाज़ा हौले से चरमराया और पन्क्रात भीतर आया। उसने अटेन्शन की मुद्रा में हाथ रखे और इस महान हस्ती के सामने भय से पीले पड़ते हुए कहा:

 “वहाँ, आपके पास, प्रोफेसर महाशय, रोक्क आया है।”

वैज्ञानिक के गालों पर मुस्कुराहट जैसा कुछ दिखाई दिया। उसने आँखों को सिकोड़ा और कहा:

”दिलचस्प बात है। बस, मैं व्यस्त हूँ।”

 “वे कहते हैं कि क्रेमलिन से सरकारी कागज़ लाए हैं।”

 “रोक, (रूसी में ROK शब्द का अर्थ है – किस्मत, जबकि जो व्यक्ति आया है उसका नाम है ROKK। उच्चारण की समानता के कारण प्रोफेसर ने उसे किस्मत वाला ROK समझ लिया है। निस:न्देह बुल्गाकोव किसी गहरी बात की ओर इशारा करना चाहते हैं ! – अनु।) कागज़ के साथ ? विरल संयोग है,” पेर्सिकोव ने टिप्पणी की और आगे कहा: “ख़ैर, भेजो उसे यहाँ !”

 “जी,” पन्क्रात ने जवाब दिया और घास के साँप की तरह दरवाज़े के पीछे ग़ायब हो गया।

एक मिनट बाद वो फिर चरमराया, और देहलीज़ पर एक आदमी प्रकट हुआ। पेर्सिकोव कुर्सी पर कसमसाया और उसने चश्मे के ऊपर से और कंधे के ऊपर से आगंतुक पर नज़र गड़ा दी। पेर्सिकोव असल ज़िन्दगी से काफ़ी दूर था – उसे इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी, मगर पेर्सिकोव की आँखों ने भी इस आदमी का प्रमुख लक्षण भाँप लिया। वह अजीब किस्म के पुराने फैशन का था। सन् 1919 में यह आदमी राजधानी की सडकों पर पूरी तरह चल जाता; सन् 1924 में, वर्ष के आरंभ में, लोग उसे बर्दाश्त कर लेते; मगर सन् 1928 में वह विचित्र ही लग रहा था। उस समय, जब प्रोलेटेरिएट का सबसे पिछड़ा वर्ग – नानबाई- भी कोट पहनता था; जब मॉस्को में मिलिट्री ट्यूनिक – पुराने फ़ैशन का सूट जिसे सन् 1924 के अंत में पूरी तरह खारिज कर दिया गया था- कभी-कभार ही दिखाई देता था; आगंतुक ने दुहरे पल्ले वाली चमड़े की जैकेट, हरी पतलून पहन रखी थी, पैरों पर कसी हुई पट्टियाँ, और फ़ौजी जूते थे, और बगल में लटक रही थी भारी-भरकम, पुराने फैशन की पिस्तौल ‘माउज़ेर’ - पीले खोल में। आगंतुक के चेहरे का भी पेर्सिकोव पर वैसा ही प्रभाव पड़ा जैसा और सब पर पड़ता था – अत्यंत अप्रिय । छोटी-छोटी आँखें पूरी दुनिया को हैरत से, मगर साथ ही आत्मविश्वास से देख रही थीं। सपाट पैरों वाली छोटी-छोटी टाँगों में कुछ बेतकल्लुफ़ी सी थी। चेहरा नीलाई लिए सफ़ाचट। पेर्सिकोव ने फ़ौरन नाक-भौंह चढ़ा लिए। वह बड़ी बेरहमी से घूमती कुर्सी पर चरमराया, और आगंतुक की ओर अब चश्मे के ऊपर से नहीं, बल्कि सीधे देखते हुए बोला:

 “आप कोई कागज़ लाए हैं ? कहाँ है वो ?”

आगंतुक, ज़ाहिर है, उस सबसे भौंचक्का हो गया, जो उसने देखा था। आमतौर से तो वह कम ही परेशान होता था, मगर इस समय वह परेशान हो ही गया। उसकी आँखों से पता चल रहा था कि उसे सबसे ज़्यादा 12 ख़ानों वाली शेल्फ ने चौंका दिया था, जो सीधे छत तक पहुँच रही थी और किताबों से ठँसी थी। इसके बाद, बेशक, चैम्बर्स ने, जिनमें, नर्क के समान, झिलमिलाती लाल रंग की किरण लैन्सों से फूटी पड़ रही थी। और आधे-अंधेरे में, रेफ्लेक्टर से आती नुकीली किरण के पास बैठे ख़ुद पेर्सिकोव ने भी, जो स्क्रू वाली घूमती कुर्सी में काफ़ी विचित्र और महान प्रतीत हो रहा था। आगंतुक ने उस पर नज़र गड़ा दी, जिसमें साफ़ तौर से उसके आत्मविश्वास को फांदते हुए आदर की चिनगारियाँ फूटी पड़ रही थीं, कोई कागज़-वागज़ नहीं दिया, मगर बोला:

 “मैं अलेक्सान्द्र सिम्योनोविच रोक्क हूँ !”

 “अच्छा ? तो फिर ?”

 “मुझे ‘रेड रे’ मॉडेल सोव्खोज़ (सोवियत फ़ार्म) का डाइरेक्टर बनाया गया है,” आगंतुक ने स्पष्ट किया।

 “तो ?”

 “और मैं, कॉम्रेड, आपके पास सीक्रेट मिशन पर आया हूँ।”

 “मुझे उसके बारे में जानने में दिलचस्पी है। संक्षेप में, अगर संभव हो तो।”

पेर्सिकोव की ’कॉम्रेड’ शब्द सुनने की आदत इतनी छूट गई थी कि अब वह शब्द मानो उसके कानों को चीरता चला गया। वह बुरी तरह झल्ला गया।

आगंतुक ने जैकेट का पल्ला खोला और शानदार चिकने कागज़ पर टाइप किया हुआ ‘ऑर्डर’ बाहर निकाला। उसने इसे पेर्सिकोव की ओर बढ़ा दिया। और उसके बाद पेर्सिकोव के बिना कहे घूमते स्टूल पर बैठ गया।

 “मेज़ को धक्का मत मारो,” घृणा से पेर्सिकोव ने कहा।

आगंतुक ने घबरा कर मेज़ की ओर देखा, जिसके दूर वाले किनारे पर एक नम अंधेरे छेद में पन्ने के समान किसी की निर्जीव आँखें टिमटिमा रही थीं। उनसे अजीब सी ठण्डक निकल रही थी।

जैसे ही पेर्सिकोव ने कागज़ पढ़ा, वह उछला और टेलिफोन की ओर लपका। कुछ ही पल बाद वह अत्यंत तैश में आकर जल्दी-जल्दी बात कर रहा था:

“माफ़ कीजिए। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। ऐसा कैसे हो सकता है ? मैं। बिना मेरी अनुमति के, सलाह के। शैतान जाने वो क्या कर डालेगा ! !”

यहाँ अजनबी अत्यंत अपमानित होकर स्टूल पर घूमा।

“माफ़ी चाहता हूँ,” उसने कहना शुरू किया,” मैं डाइ। ”

मगर पेर्सिकोव ने टेढ़ी ऊँगली से उसे धमकाया और कहता रहा:

 “माफ़ कीजिए, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। मैं, अंत में, कड़ा विरोध प्रकट करता हूँ। अण्डों पर प्रयोग करने की इजाज़त मैं नहीं दूँगा। जब तक कि मैं ख़ुद इन्हें न आज़मा लूँ। ”

रिसीवर में कोई चीज़ चहकी और खड़खड़ाई, और दूर से भी समझ में आ रहा था कि रिसीवर से जैसे एक पुचकारती हुई आवाज़ किसी छोटे बच्चे से बात कर रही है। इसका अंत ये हुआ कि लाल पड़ गए पेर्सिकोव ने धड़ाम् से रिसीवर लटका दिया और उससे मुख़ातिब होकर दीवार से कहा:

“मैं अपने हाथ धो लेता हूँ !”

वह मेज़ की तरफ़ आया, वहाँ से कागज़ उठाया, उसे एक बार ऊपर से नीचे चश्मे के ऊपर से पढ़ा, फिर

नीचे से ऊपर सीधे चश्मे से पढ़ा और अचानक चिंघाड़ा:

“पन्क्रात !”

पन्क्रात इस तरह दरवाज़े में प्रविष्ट हुआ मानो ऑपेरा में सीढ़ी चढ़ कर आया हो। पेर्सिकोव ने उसकी ओर देखा और ज़ोर से चीख़ा:

“बाहर निकल, पन्क्रात !”

और पन्क्रात, अपने चेहरे पर ज़रा सा भी विस्मय का प्रदर्शन किए बगैर ग़ायब हो गया।

 इसके बाद पेर्सिकोव आगंतुक की ओर मुड़ा और कहने लगा:

“ठीक है। मैं आदेश का पालन करूँगा। मुझे क्या करना है ! और मुझे कोई दिलचस्पी भी नहीं है।”

प्रोफेसर ने आगंतुक का जितना अपमान नहीं किया, उतना उसे विस्मित कर दिया।

“माफ़ी चाहता हूँ,” उसने शुरूआत की, “आप तो, कॉम्रेड। ”

“ये आप हमेशा कॉम्रेड, कॉम्रेड क्या करते रहते हैं। ” पेर्सिकोव नाक-मुँह चढ़ा कर बुदबुदाया और ख़ामोश हो गया।

‘तो ये बात है’, रोक्क के चेहरे पर लिखा था।

“माफ़। ”

“तो, ये, प्लीज़,” पेर्सिकोव ने उसकी बात काटते हुए कहा, “ये आर्क-लैम्प है। इससे आई-पीस को इधर- उधर सरका कर,” पेर्सिकोव ने चैम्बर के कैमेरे जैसे ढक्कन को खट्-खट् किया, “किरण प्राप्त कर सकते हैं, जिसे आप लैन्सों को, ये नं। 1। और शीशों को, ये नं। 2, सरका-सरका कर इकट्ठा कर सकते हैं,” पेर्सिकोव ने किरण को बुझा दिया, उसे फिर से एस्बेस्टस के चैम्बर के फर्श पर जला दिया, “और फर्श पर, किरण में वो सब कुछ रख सकते हैं, जो आपको अच्छा लगे, और प्रयोग कर सकते हैं। बहुत ही आसान है, है ना ?”

पेर्सिकोव व्यंग्य और नफ़रत प्रकट करना चाहता था, मगर चमकती आँखों से चैम्बर के भीतर ध्यानपूर्वक देख रहा आगंतुक इसे देख ही नहीं पाया।

“सिर्फ ये चेतावनी देता हूँ,” पेर्सिकोव ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, “हाथों को किरण में मत रखिए, क्योंकि मेरे अवलोकनों के अनुसार, इससे कोशिकाओं में वृद्धि होने लगती है। और वे हानिकारक हैं अथवा नहीं, अफ़सोस है कि ये मैं अभी तक सिद्ध नहीं कर पाया हूँ।”

यहाँ आगंतुक ने फ़ौरन अपनी चमड़े की कैप गिराकर, हाथ पीठ के पीछे छुपा लिए, और प्रोफेसर के हाथों की ओर देखने लगा। वे पूरी तरह आयोडिन से पुते थे और दाहिने हाथ पर, कलाई के पास, बैण्डेज बंधा था।

“और आप कैसे करते हैं, प्रोफेसर ?”

“कुज़्नेत्स्की पर श्वाब की दुकान से रबड़ के दस्ताने ख़रीद सकते हैं,” प्रोफेसर ने चिढ़कर जवाब दिया। “ये मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है।”

अब पेर्सिकोव ने आगंतुक की ओर यूँ देखा मानो मैग्निफ़ाईंग ग्लास से देख रहा हो।

“आप कहाँ से टपक पड़े ? मतलब। आपको क्यों ?। ”

आख़िर रोक्क ने बेहद अपमानित महसूस कर ही लिया।

“माफ़। ”

“आख़िर इन्सान को ये तो मालूम होना चाहिए कि वह कर क्या रहा है !। आप इस किरण के पीछे क्यों पड़ गए ?”

“इसलिए कि ये महत्वपूर्ण सरकारी काम है। ”

“ओहो। सरकारी ? तब। पन्क्रात !”

और जब पन्क्रात प्रकट हुआ:

“ठहर, मैं ज़रा सोच लूँ।”

और पन्क्रात नम्रता से ग़ायब हो गया।

“मैं,” पेर्सिकोव ने कहा, “समझ नहीं पा रहा हूँ कि आख़िर इतनी जल्दबाज़ी की और इतने राज़ की ज़रूरत क्या है ?”

“आपने, प्रोफेसर, मुझे पूरी तरह उलझा दिया है,” रोक्क ने जवाब दिया, “आपको तो मालूम ही है कि सारी मुर्गियों का सफ़ाया हो चुका है, एक भी बाक़ी नहीं है।”

“तो, इससे क्या ?” प्रोफेसर चीख़ा, “क्या आप पल भर में ही उन्हें पुनर्जीवित करना चाहते हैं ? और फिर उस किरण की सहायता से क्यों, जिसका अभी तक अध्ययन नहीं किया गया है ?”

“कॉम्रेड प्रोफेसर,” रोक्क ने जवाब दिया, “आप मुझे, क़सम से, परेशान किए जा रहे हैं। मैं आपसे कह रहा हूँ कि सरकार को मुर्गीपालन को नए सिरे से शुरू करना होगा, क्यों कि विदेशों में हमारे बारे में हर तरह की ऊटपटांग बातें लिखी जा रही हैं। हाँ।”

“तो, लिखने दो। ”

मगर, आप जानते हैं,।।” भेद भरे अंदाज़ में रोक्क ने जवाब दिया और सिर को गोल-गोल घुमाया।

“मैं जानना चाहूँगा कि अण्डों से मुर्गियाँ पैदा करने का ख़याल किसके दिमाग़ में आया। ”

”मेरे। ” रोक्क ने जवाब दिया।

 “”ऊहू। चुक्। और किसलिए, कृपया बताने का कष्ट करेंगे ? किरण के गुणों के बारे में आपको कैसे पता चला ?”

“मैं, प्रोफेसर, आपके लेक्चर पे मौजूद था।”

“मैंने अभी तक अण्डों पर कोई प्रयोग नहीं किया है !। बस, करने का इरादा है !”

“ऐ ख़ुदा, सब ठीक हो जाएगा,” रोक्क ने तहे दिल से बड़े आत्मविश्वास से कहा, “आपकी किरण इतनी लाजवाब है कि चाहे तो हाथी भी पैदा कर सकते हो, मुर्गियों की तो बात ही क्या है।”

“बात ये है,” पेर्सिकोव ने बड़ी दीनता से कहा, “आप प्राणि विशेषज्ञ नहीं हैं ? नहीं ना ? अफ़सोस। अगर होते तो आप एक बिन्दास प्रयोगकर्ता होते। हाँ। मगर, आप बहुत बड़ा ख़तरा मोल ले रहे हैं। क़ामयाबी तो नहीं मिलेगी। और आप बस मेरा समय बर्बाद कर रहे हैं। ”

“चैम्बर्स हम आपको वापस लौटा देंगे। ठीक है ?”

“कब ?”

“बस, मैं पहली खेप निकाल लूँ।”

“ये आप कितने यक़ीन के साथ कह रहे हैं ! ठीक है। पन्क्रात !”

“मैं अपने साथ आदमी लाया हूँ,” रोक्क ने कहा, “और सेक्युरिटी गार्ड भी। ”

शाम तक पेर्सिकोव की कैबिनेट अनाथ हो गई। मेज़ें ख़ाली हो गईं। रोक्क के आदमी तीन बड़े चैम्बर्स उठाकर ले गए, प्रोफेसर के लिए सिर्फ उसका पहले वाला, छोटा-सा चैम्बर छोड़ गए जिससे उसने अपने प्रयोग शुरू किए थे।

जुलै जैसा अंधेरा घिर आया, इन्स्टीट्यूट को उदासी ने घेर लिया, वह कॉरीडोर्स में फैल गई। कैबिनेट में क़दमों की एक सी आहट सुनाई दे रही थी – ये पेर्सिकोव था जो, बिना लाइट जलाए, बड़े कमरे में खिड़की से दरवाज़े की ओर निरंतर चक्कर लगा रहा था।

अजीब सी बात हो रही थी: इस शाम को इंस्टीट्यूट में रहने वाले इन्सानों और जानवरों पर भी एक ऐसी मायूसी की भावना हावी थी, जिसे समझाया नहीं जा सकता। न जाने क्यों मेंढक बडा दर्दभरा राग छेड़ रहे थे, और ख़ौफ़नाक ढंग से, मानो ख़तरे की चुनौती सी देते हुए टर्र-टर्र कर रहे थे। पन्क्रात को कॉरीडोर से एक घास के साँप को पकड़ना पड़ा, जो अपने पिंजरे से खिसक गया था, और, जब उसने उसे पकड़ा, तो ऐसे लगा, मानो साँप कहीं भागने की तैयारी में था, बस, वहाँ से जाना चाहता था।

देर शाम को पेर्सिकोव के कैबिनेट की घण्टी बजी। पन्क्रात ड्योढ़ी पर आया। और उसने एक अजीब सी तस्वीर देखी। कैबिनेट के बीचोंबीच वैज्ञानिक अकेला खड़ा था और मेज़ों की ओर देख रहा था। पन्क्रात खाँसा और, जैसे जम गया।

 “देखो, पन्क्रात,” पेर्सिकोव ने कहा और खाली मेज़ की ओर इशारा किया।

पन्क्रात बेहद डर गया। उसे ऐसा लगा कि अंधेरे में प्रोफेसर की आँखें रो रही थीं। ये इतना असाधारण, इतना डरावना था।

 “जी,” पन्क्रात ने रोनी आवाज़ में कहा और सोचा: ‘इससे बेहतर तो ये होता कि तुम मुझ पर गरजते !’

 “ये,” पेर्सिकोव ने दुहराया, और उसके होंठ एक बच्चे के होंठों जैसे थरथराए, जिससे बिना बात उसके प्यारे खिलौने को छीन लिया गया हो।

 “तुझे मालूम है, प्यारे पन्क्रात,” पेर्सिकोव ने खिड़की की ओर मुड़ते हुए आगे कहा, “ मेरी बीबी, जो पन्द्रह साल पहले ऑपेरा में काम करने के लिए चली गई थी, मगर अब, ऐसा लगता है, कि मर गई है। ये है बात, प्यारे पन्क्रात। मुझे ख़त भेजा गया है। ”

मेंढक बड़ी दयनीयता से चिल्ला रहे थे, और शाम के अंधेरे ने प्रोफेसर को अपनी गिरफ़्त में ले लिया, और अब है। रात। मॉस्को। कहीं कुछ सफ़ेद गोले खिड़की के उस पार जल उठे। परेशान सा पन्क्रात दुखी हो रहा था, डर के मारे अटेन्शन की मुद्रा में खड़ा था।

 “जा, पन्क्रात,” प्रोफेसर ने बोझिल स्वर में कहा और हाथ हिलाया, “सो जा, प्यारे, दुलारे, पन्क्रात।”

और रात हो गई। पन्क्रात न जाने क्यों पंजों के बल कैबिनेट से भागा, अपनी कोठरी में आया, कोने में पड़े चीथड़ों को हटा कर वोद्का की बोतल निकाली और बड़ा गिलास भर के एक ही दम में पी गया। उसने नमक के साथ ब्रेड खाई और उसकी आँखों में कुछ चमक लौटी।

देर शाम, क़रीब-क़रीब आधी रात को, पन्क्रात नंगे पैर मद्धिम रोशनी वाले वेस्टिब्यूल में बेंच पर बैठकर फूलदार कमीज़ के नीचे अपने सीने को खुजाते हुए, ड्यूटी पर तैनात गार्ड-हैट से कह रहा था:

“अच्छा होता अगर मार डालता, ऐ ख़ु। ”

”क्या वाक़ई में रो रहा था ?” गार्ड-हैट ने उत्सुकता से पूछा।

“ऐ। ख़ु। ” पन्क्रात ने यक़ीन दिलाया।

”महान वैज्ञानिक,” गार्ड-हैट ने सहमति दिखाई, “ज़ाहिर है कि मेंढक तो बीवी की जगह नहीं ले सकता।”

“किसी हालत में नहीं,” पन्क्रात ने सहमत होते हुए कहा।

फिर उसने कुछ सोचा और आगे कहा:

“मैं अपनी बीबी को यहाँ लाने की सोच रहा हूँ। वह गाँव ही में क्यों बैठी रहे। बस, वह इन साँपों को किसी हालत में बर्दाश्त न कर पाएगी। ”

“क्या कहें, ख़तरनाक किस्म का घिनौनापन है,” गार्ड-हैट ने सिर हिलाया।

वैज्ञानिक की कैबिनेट से कोई आवाज़ नहीं सुनाई दे रही थी। और उसमें रोशनी भी नहीं थी। दरवाज़े के नीचे रोशनी का धब्बा भी नहीं था।


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