तू ही तू

तू ही तू

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"आप जिससे जितना अधिक प्रेम करते हैं एक दिन वही आपको उतना हीं आँसू दे जाते हैं। हम सभी जानते हैं की इस युग में किसी को ह्रदय में स्थान देना तो बहुत सहज बात है, लेकिन किसी को ह्रदय में खुद के लिए स्थान बना पाना बहुत मुश्किल काम है।"

"ऐसी बातें क्यों कर रही हो सौम्या ? "

प्रोफेसर हर्षकुमार किताब की पन्ने पलटते हुए सौम्या की ओर तिरछी नजरों से देखते हुए बोले।

" मैं आपकी ही छात्रा हूँ सर और आप अक्सर बोलते हैं, मैं बीना वजह कुछ नहीं बोलता। कुछ भी बोलने के पीछे कुछ तो वजह होती हीं है, अतः आप मान लीजिए मैं भी, जो कुछ बोल रहीं हूँ उसके पीछे कुछ तो कारण निश्चित ही होगी ।"

"क्या तुम ऐसी भी उम्मीद रखती हो मुझसे की मैं तुम्हारी सारे बकवास प्रश्नों का उत्तर दे सकता हूँ? "

"आपको याद है, जब आप एक दिन व्याख्यान देते हुए बोल रहें थे कि संसार में ऐसा कोई भी प्रश्न नहीं जिसका उत्तर नहीं हो सकता है। बस शर्त यह है कि आपको प्रश्न पूछने की तरीका कैसा है। अगर प्रश्न सही है तो उत्तर भी सही हीं मिलेगा और गलत है तो उत्तर सही मिलने का उम्मीद भी न करना। और जहाँ तक मेरी प्रश्न की बात है तो मुझे नहीं लगती की मैं कोई आपसे बकवास प्रश्न कर रही हूँ। "


हर्षकुमार, मुश्किल से हँसने की कोशिश करते हुए, सौम्या की ओर देखने लगते हैं। एक स्नातक की छात्रा जिसकी उम्र मुश्किल से बीस साल के आसपास होगी। एक सबसे काबिल और मेहनती प्रोफेसर से ऐसी प्रश्न पूछ रही थी जिसपर वो घंटों लेक्चर दे सकते हैं। लेकिन किसी वजह से सौम्या के प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहते। वो देना क्यों चाहेंगे, आजतक हर्षकुमार किताबों और ख्यालों की दुनिया से कभी बाहर निकले हीं नहीं। उनको जीवन जीने की एक अलग ही तरीका है। वो नहीं चाहते की कोई उनको जीवन के उन लम्हों को जानने की कोशिश करे जो उनको दर्द के सिवा कुछ और दिया ही नहीं।


प्रोफेसर हर्षकुमार का व्यक्तित्व कुछ अलग तो नहीं है, परंतु वो दुनिया को जरा अलग नज़रों से देखते हैं। उनके नजर में दुनिया सिर्फ एक रंगमंच है, जिसपर हम सब अपना अपना रोल निभाने आयें हैं। कोई दुनिया रुपी रंगमंच पर नायक बन जाता है, तो कोई नायिका बन जाती है। इस दुनिया में खलनायक की तो कमी हीं नहीं है। कब कौन खलनायक बन जाये किसी को मालूम नहीं होता। कभी कभी तो नायक भी खलनायक बन जाता है और खलनायक भी नायक की भूमिका में आ जाता है। नायिका भी खलनायिका बन सकती है, क्योंकि यह संसार का नियम है, यहां कुछ भी स्थाई नहीं होता। कब कौन बदल जाय यह कहना मुश्किल है। इस रंगमंच की पटकथा लिखने वाला कोई इंसान होता तो शायद घूस देकर, अपनी मनचाहा कहानी लिखवा लेते। परंतु इंसान तो है नहीं। वो तो ख़ुदा है जिसकी खुदगर्जी की किस्सा आम है।


शांत स्वभाव के लेकिन हँसमुख चेहरे वाले इंसान को पीछे एक और चेहरा छुपा हुआ था, वह था दर्द और किसी को खोने का ज़ख्म। अक्सर अपने ग़म को छुपाने के लिए बच्चों को मदद करते रहते। वो हमेशा अपने आप को कामों में व्यस्त रखना और खाली समय में कुछ न कुछ लिखना पसंद करते। हर्षकुमार का बचपन बड़ी मुश्किलों में गुजरा था। किसी प्रकार कॉलेज तक पहुचे ताकि पढ़ाई ढंग से हो, लेकिन विधाता का कुछ और ही मंज़ूर था। साधारण जीवन जीने वाले, ग़रीब और ग्रामीण क्षेत्र से आने वाले हर्ष कब बदल गये, उनको भी पता नहीं चला। 

हर्ष को जीवन में एक दिन, एकाएक एक लड़की की आगमन हो जाती है। उसकी नाम प्रिया शर्मा थी जो हर्षकुमार को जीरो से हीरो बना देती है। लेकिन जो आपको लिए हमेशा अच्छा सोचे और आपसे अटूट प्रेम करे, वो जीवन में ज्यादा दिनो तक नहीं रह सकती। एक दिन प्रिया शर्मा को दर्दनाक मौत हो जाती है। यह घटना हर्ष को अंदर से हिला कर रख देखा देता है। 


समय पंख लगाकर उड़ता रहता है। आप उसे रोक नहीं सकते। बहुत दिनों तक शोक में डूबे हर्षकुमार पुनः अपनी पढ़ाई शुरू कर देते हैं। और युनिवर्सिटी से निकलने के बाद अपना ही क्षेत्र का एक इंटरमीडिएट कॉलेज में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हो जाते हैं। जिन्दगी पुनः अपनी गति से चल पड़ती है। रफता रफता सबकुछ भूलने की कोशिश साकार होने लगता है। जीवन जीने की अंदाज़ में बदलाव आना तो स्वाभाविक है न। हर्षकुमार को भी साथ कुछ ऐसा हीं होता है। वो अपने आप में बदलाव महसूस करने लगते हैं। 

कई वर्षों के बाद कॉलेज में संध्या नाम की एक लड़की की आगमन होती है। संध्या बिल्कुल प्रिया शर्मा का हमशक्ल है। बोलना, चलना, गुस्सा करना सबका सब संध्या को प्रिया शर्मा जैसी। उसकी अजीब सी हरकत हर्षकुमार को अचंभा कर देता। 

"नहीं! नहीं ऐसा नहीं हो सकता। यह मेरा भ्रम है, संध्या प्रिया नहीं हो सकती। हमशक्ल होने से क्या होगा।" 


हर्षकुमार मन ही मन बातें करते और अपने काम में व्यस्त हो जाते। जीवन की गाड़ी अपनी रफ्तार से आगे बढ़ती जा रही थी। संध्या की हरकत, हमेशा हर्षकुमार को ह्रदय में मर चुकी प्रिया शर्मा को जीवित कर देती थी। कब तक स्वयं को हर्षकुमार संभालते। धीरे धीरे नजदीकियाँ बढ़ने लगी। हर्षकुमार को मन में संध्या के लिए एक विशेष स्थान बनने लगा था। 

इस बात की पता संध्या को भी थी हर्षकुमार मेरे प्रति प्रेम भाव रखते हैं। भला ऐसा हो हीं नहीं सकता कि प्रेम का बुलबुला ह्रदय में जन्म ले और कोई जाने नही। संध्या अपनी सबसे प्रिय सहेली सौम्या को इस बात की जानकारी देना उचित समझी। 

संकोची स्वभाव होने के कारण संध्या कभी भी हर्षकुमार के सामने अपनी भावना को प्रकट नहीं कर सकी। जीवन की गति कब किस ओर मोड़ लेगी कोई नहीं जानता। 

एक दिन सुबह सुबह हर्षकुमार मॉर्निंग वॉक पर थे। कान में एयरफोन लगाये म्युजिक का आनंद लेते हुए टहल रहे थे तभी एक चेहरा सामने से आते नजर आया। वो कोई नहीं था। बगल के मोहल्ला में रहने वाला जय था, जो कभी हर्षकुमार का छात्र हुआ करता था। 


"Good morning sir!" 

"morning".

हर्षकुमार चेहरा पर मुस्कान लाते हुये बोले। 

" how are you Jay?" 

"I am fine, sir". 

जय हर्षकुमार को साथ हो लिया। साथ में दोनों चलते जा रहे थे और बातें भी करते जा रहे थे। 

जय ने एकाएका प्रश्न पूछ लिया जो हर्षकुमार के हिलाने के लिए काफी था। 


"सर!" 

हाँ बोलो? "

" संध्या तो आप ही की क्लास में पढ़ा करती है न....? "

" हाँ ! बोलो...? "

"नहीं कुछ नहीं! "

हर्षकुमार हंसते हुए बोले" डरो नहीं, बोलो क्या कहना है? "

जय ने सकपकाते हुए बोला " sir! She is my girlfriend ". 

" what.! कहने का मतलब क्या है तुम्हारा।"

" sorry sir, but same as my lover ! "

" Do you love संध्या ? "


हर्षकुमार शांत हो जाते हैं। और शून्य की ओर देखने लगते हैं। आज उनकी ख्यालों की राजकुमारी रेत की तरह हाथों से निकलती जा रही थी। खैर जो होना है वो तो होकर हीं रहेगा। एक सरसरी नजर हर्षकुमार, जय पर डालते हैं और मुस्कुराने लगते हैं। 

"क्यों सर, आप हँस रहे हैं?" 

"कुछ नहीं!" 

थोड़ी देर रूकने के बाद "ठीक है अब तुम जा सकते हो, मुझे अकेला रहने दो।" 

हर्षकुमार कुछ सोचते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। एक हवा की झोंका आकर कानों में कुछ कह जाती है "हर्षकुमार क्या सोच रहे हो...?" 

"कुछ नही...!" 

हर्षकुमार बुदबुदाते हुए अपने घर की ओर बढ़ने लगते हैं। मन भारी सा था। लेकिन वो क्या कर सकते हैं। वो सोचने लगें "मैं ही गलत था जो संध्या को प्रिया मान लिया। खैर मुझे उससे अब एक दूरी बनाना होगा, अगर ऐसा नहीं कर पाया तो मैं पागल हो जाउँगा। दूसरी बात यह भी है कि मैं नहीं जानता संध्या मुझसे प्रेम करती भी है या नहीं! कभी भी मैं जानने की कोशिश भी नहीं किया कि वो मुझको चाहती भी है या सिर्फ मेरा भ्रम है। "

   

कॉलेज प्रतिदिन की भांति आज भी खुली थी। हर्षकुमार का आज लेक्चर में वो जोश नहीं था, जो पहले हुआ करता था। किसी प्रकार अपने विषय को पूरा करने का अधूरा कर्म कर रहे थे। संध्या को समझ में नहीं आ रही थी कि सर को आज हो क्या गया है। लेकिन संकोच के मारे कुछ भी नहीं पूछ पा रही थी। 

बात बात पर संध्या को देख मुस्कान बिखेरने वाले हर्षकुमार, संध्या की ओर ध्यान भी नहीं देना चाह रहे थे। सामने बैठी सौम्या को देख, एक फीकी मुस्कान बिखेरते हुए व्याखान जारी रखते हुए अपना कर्तव्य को समाप्त करना वो अच्छी तरह जानते हैं। 

सौम्या के तो मन में लड्डू सा फूट जाता, हर्षकुमार का एक मुस्कान पर। हर्षकुमार को देख वो भी अंदर हीं अंदर खुश होती जैसे वर्षों का मुराद पूरी हो गयी हो। 

 इधर संध्या को समझ में नहीं आ रही थी कि आखिर में मुझसे क्या हो गई, जो सर इतना मुझसे प्रेम करते थे, आज ठीक से देख भी नहीं पाते। जब भी बातें करने जाती हूँ, गुस्सा में ही बातें करते हैं। आखिर उस बेचारी की ग़लती ही क्या थी, जो समझ में नहीं आ रही थी। 

इधर हर्षकुमार कुछ बताने और कहने की स्थिति में नहीं थे कि वो संध्या से कुछ कह भी पाते। 

धीरे धीरे हर्षकुमार का व्यवहार बदलने लगा। कभी कभी तो वो पागलों जैसे हरकत करने लगते। 

सौम्या की नजदीकी हर्षकुमार के साथ दिनों दिन बढ़ती जा रही थी। वो अक्सर बातें करने का कोई न कोई बहाने जरूर निकाल लेती। आज सौम्या और हर्षकुमार दोनों एक साथ चाय पीने के लिए, हर्षकुमार के ही पुरानी हवेली पर पहुंचे हैं। जहाँ एक बहुत बड़ा पुस्तकालय है, जो वर्षों से बिना देखभाल का भूत बंगला बना हुआ है। सौम्या चाहती है कि मैं आज सर से मन की बातें बता हीं दूँ। 

"सर ऐसी कौन सी बात है संध्या में, जो मुझ में नहीं है।" 

हर्षकुमार चुप रहना चाहते हैं, परंतु सौम्या को ज्यादा कुरेदने पर वो बोलते हैं "सौम्या तू सुंदर है और होशियार भी। मैं नहीं कहता की तू प्यार के योग्य नहीं है। ऐसे में मैं तुमसे क्या कहूँ, क्या न कहूँ समझ में नहीं आता। तू चाहती है मेरे साथ जीवन जीना लेकिन अब संभव नहीं है। क्योंकि मेरी आदत है, मेरा चुनाव गलत हो या सही, जिसे मैं एक बार दिल में बैठा लेता हूं उसे बाहर नहीं निकाल सकता। संध्या मेरे दिल में रहती है, उसे निकाल कर तुम्हें उसकी जगह, मैं अपनी ह्रदय में नहीं बैठा पाऊंगा। 

"सर! वो आपसे प्रेम नहीं करती। वो कह चुकी है कि सर को जो भावना मेरे प्रति है वैसी भावना मुझे किसी और के प्रति है।" 


"मैं जानता हूँ सौम्या। संध्या मुझसे प्रेम नहीं करती। और नाहीं मुझे सम्मान करती है। अगर मुझसे प्रेम करती तो बात बात पर मुझसे झूठ नहीं बोलती। मुझसे प्रत्येक बात पर बहस नहीं करती। उसे अपने आप से प्रेम है, अपनी जिद्द और अपने झूठे अहंकार से प्रेम है। ऐसे भी प्रेम करने के मतलब साथ में जीवन जीना नहीं होता। प्रेम तो हमेशा ह्रदय में निवास करता है। जैसा की प्रिया शर्मा की यादें मेरे ह्रदय में हमेशा बनी रहती है । और हाँ जहाँ संध्या की बात है तो वो मेरी प्रिया ही है। सच कहूँ तो संध्या प्रिया का अधूरी जीवन है जो पूरा करने के लिए पुनर्जन्म ली है। मुझे संध्या नहीं चाहिये। उसे जय ही मुबारक हो। "


कहते कहते हर्षकुमार की आँखों में आँसू छलक आया। हर्षकुमार की आँखों से गीरते हुए आँसू की बूंद को देख सौम्या की ह्रदय भी भावना से भर उठी। 

न चाहते हुए भी सौम्या की आँखें नम हो चली। वो अपने आँसू पोछते हुए बोली" अब चाय खत्म हो गयी है। मैं चलना चाहूँगी सर। लेकिन मुझ को मिलना यहीं पर खत्म नहीं हुई है। मैं संध्या नहीं हूँ जो आपको छोड़ दूँगी। भले आपकी भावना में मेरी स्थान नहीं हो, लेकिन मेरी ह्रदय में आप ही आप हो। मुझे इस दुनिया से डर नहीं लगता है। दुनिया मुझे गंदी कहे या अच्छी, मेरी भावना कभी नहीं बदलेगी और न मैं बदलने वाली हूँ। सच कहूँ तो सर let by gones be by gones... आपको जिंदगी जीने के लिए एक हमसफ़र की आवश्यकता तो ज़रूर होगी! "

इतना बोलने के बाद सौम्या तीर की भांति हवेली से बाहर निकल गयी। प्रोफेसर हर्षकुमार उसे जाते हुए देखते रह जाते हैं। और पुनः शून्य में खो जाते हैं। 


    


       


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