टूटे-फूटे चक्के
टूटे-फूटे चक्के
बड़ी अजब जिंदगी है। क्या है ये जिंदगी ?
सोचती हूँ तो मजेदार है,
सोचती हूँ तो इक ख्वाब है।
गजब कहानी है, बड़ी रवानी है,
गजब तमाशे हैं, लगे है फिल्मी,
पर घट रही आसपास है।
"बांध लिया भूमिका,"
अब शुरू होती कहानी है.......
एक राजा था,एक रानी थी , के तर्ज पर .......
.एक पति पत्नी हैं। पर बेहद खास हैं, क्योंकि जीवंत किरदार हैं।
दनदनाती हुई बेला मेरे पास आयी।
बेहद तमतमाया हुआ चेहरा, मुझे लगा कि हो न हो कहीं,कोई बड़ा भूकंप आ चुका है।
बोली.....बोलती थी न मैं, यह आदमी बड़ा नीच है, और आज तो नीचता की हद पार कर गया है ?
क्या हुआ ? मैंने आहिस्ते से पूछा- जानती हो आज उसने क्या किया ?
क्या किया ?
मैंने फिर पूछा ?
फिर बेला ने जो बताया वह यह था कि सुबह उसकी एक्टिवा में कोई खराबी आ गयी थी, वह उसे बनवाने गयी हुई थी।
उसकी देवरानी जो एक स्कूल में टीचर है. वह स्कूल जा रही थी।
उसे घर के सामने एक आदमी मिला, जिसने उससे पूछा, सुनिये मैडम, ए के शर्मा जी का घर कहाँ है ?
जी,
देवरानी बताने ही वाली थी कि उस आदमी ने कहा।
जी, ए के शर्मा, जिनकी पत्नी का देहांत हो गया था, दो तीन महीने पहले....
देहांत हो चुका है ?
तब आप गलत घर आ गए है, मेरे जेठ का नाम ए के शर्मा है, पर उनकी पत्नी तो जिंदा है।
आप जिन्हें ढूँढ रहे हैं वो ए.के. शर्मा कोई और होंगे ?
जी , वह एल आई सी मे काम करते है ?
देवरानी के समझ में कुछ कुछ आने लगा।
जी, यह सामने वाला घर उन्हीं का है, पर मेरी जिठानी जिंदा हैं। बल्कि उनका बेटा भी अभी घर में ही है।
जाइए, देख लीजिए।फिर थोड़ा ठिठककर देवरानी ने पूछ ही लिया ....
जरा, सुनिये तो भैया, किस सिलसिले में मिलना है ?
उन्होंने मुझसे मेरी जमीन का सौदा किया है।
उसी सिलसिले में मिलना है, कहता हुआ आगे बढ़ गया।
देवरानी अभी दो कदम ही आगे बढ़ी थी कि उसे बेला आते दिख गई। उसने रोका, और सारी बात बता दिया।
बेला ने सब सुन लिया पर कुछ नहीं कहा। घर पहुँची, देखा कि ए के शर्मा एक अजनबी के साथ बैठे हुए हैं।
नमस्ते किया और पूछा, जी,आप कौन ?
जी, मैं जमीन बेचने के सिलसिले में आया हूँ, आप ?
जी, मै वह हूँ, जो दो तीन महीने पहले मर चुकी हूँ, शर्मा जी ने तो आपको बताया ही है।
हाँ, पूरी बेशर्मी से बोले ए के शर्मा। दो तीन महीने में हमारा तलाक तो हो ही जायेगा, तुम मेरे लिए मरी हुई ही हो ?
ए के शर्मा की बातों को नजर अंदाज करते हुए बेला उस अजनबी से बोली !
भाई साहब, आपने इन्हें कोई कागजात तो नहीं दे रखें हैं, अगर दिए हैं तो वापिस ले लीजिए।
यह आदमी आपसे आपकी जमीन तो ले लेगा, पर आपको अधेला भी नहीं देने वाला।
बेकार बात मत करो, सौदा कर रहा हूँ मैं, अग्रिम चेक दे तो रहा हूँ। ए के शर्मा तड़पकर बोले।
बेला ने उस आदमी से कहा, भाई साहब, तब तक सौदा मत कीजिएगा, जब तक आपको पूरी रकम नगद न मिल जाये। यह आपको चेक तो दे देगा, पर आपके पीठ फेरते ही बैंक में फोन कर देगा कि फलाने नंबर का चेक आए तो
पैसा ट्रांसफर मत करना। फिर घूमते ही रह जायेंगे आप और कभी पैसे का मुँह नहीं देखेंगे ?
भौचक्का सा वह आदमी बोला, मै खुद वकील हूँ, पर इतनी चतुराई तो मैंने भी नहीं देखी ?
दीजिए शर्मा जी, मेरे सारे कागजात, मुझे अब आपसे कोई सौदा नहीं करना है ?
बहुत समझाने की कोशिश की एके शर्मा ने वकील को पर वह भड़का हुआ आदमी कुछ भी समझने को तैयार नहीं हुआ।
झक मारकर एके को कागजात देना ही पड़ा और वह आदमी तुरंत चला गया।
आगे तमतमाये, दाँत पीसते हुए ए के कुछ कहें। उसके पहले ही अंदर से बर्तनों के पटके जाने की आवाज आने लगी।
बेला ने फ्रिज से सारी वह चीजें जो ए के के इस्तेमाल की थीं, जो खाना रखा हुआ था।
निकाल कर बाहर फेंक दिया, और चिल्लाकर बोली, खबरदार, आगे कोई भी अपना सामान इसमें मत रखना
फ्रिज मैंने खरीदा है, जिसको अपना सामान रखना है, वह अपना फ्रिज खुद खरीदे।
साथ ही साथ बरतन धो रही बाई से कहा कि कान खोलकर सुन ले तू, इस आदमी का बरतन अगर धोएगी, तो पैसा मुझसे मत मांगना, अब एक भी रूपया मैं देने वाली नहीं, समझे रहना।
और उसके बाद दनदनाते मेरे घर में। सारा किस्सा सुना मैंने, यह तो सचमुच नीचताई है, जीते आदमी को मार दिया। लोग कहते हैं कि जोड़ियां भगवान बनाता है ?
हे भगवान, अगर ऐसी जोड़ी बनाते हो तो जोड़ी बनाने की फैक्ट्री बंद कर दो !!
पर शुरूआत में यह जोड़ी बड़ी परफेक्ट थी, कालेज में हुआ प्रेम था, एक दूसरे के साथ जीने मरने की कसमें थीं।
बड़े खुशनसीब थे दोनों कि जाति बिरादरी भी एक थी। एक जैसे ही मध्यम वर्ग के लोग थे।
बेला के पिता के लिए तो सोने का फल टपका था जैसे स्वर्ग से। वर की तलाश करने में जो चप्पल घिसता वह सब बच गया। काहे का एतराज ?
लड़की भी दूर नहीं जा रही थी। बस मोहल्ला बदल जायेगा और चूँकि प्रेम-विवाह था तो दहेज के नगद मांग से भी बच गये। अब सिर घी की कढ़ाई में और हो लिया शुभ-विवाह। बड़ी खुशी खुशी वाला लव कम अरेंज मैरिज था। बस समय ने यह दिन दिखाया है कि लव एकदम ही गायब था, मैरिज भी नदारद हो रहा है
और जोड़ का कोई काम ही नहीं था। एक इस किनारे है तो दूजा उस पार है। खो गई है कश्ती, डूब गया मल्लाह है।
शुरूआत में बड़े प्रेम के दिन थे। एक-दूसरे के साथ बहुत प्रसन्न थे। ए के के पिता अच्छी जगह, अच्छे पोस्ट पर नौकरी कर रहे थे।
बड़ा दबदबा रखते थे, उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था कि कोई उनके खिलाफ जाए। ए के, के शादी से पहले सब ठीक ठाक चल रहा था।
पिता के दबदबे में सारा परिवार चल ही रहा था।
पर जैसा हमारे भारतीय परिवार में होता है, नयी बहू का आगमन बहुत कुछ बदल देता है।
पति से दबी महिला सास बनते ही मानने लगती है कि अब कोई है जिस पर वह हूकुमत कर सकती है।
ननद सोचने लगती है, अब उसके आराम के दिन आ गए हैं।
अब जो करना है भाभी करेगी। देवर थोड़ा नरम होते हैं, कभी कभी भाभी के पक्ष में भी आवाज उठाते हैं, भले
उनकी आवाज कोई सुने या न सुने ?
यह परिवार भी बिल्कुल परंपरागत परिवार था।
पर पढी लिखी बहू परंपरा गत नहीं थी, आजाद ख्याल था।
उस पर गाज यह गिरा कि बेला की बतौर शिक्षक नौकरी भी लग गई।
सास ससुर बेहद नाराज हुए, वे नहीं चाहते थे कि बहू नौकरी करे।
पर बेला को यह आजादी बहुत प्रिय थी।
सबसे प्रसन्न ए के साहब थे, दर असल पिता के रहते, पिता की एक विरासत उन्हें पहले ही मिली थी कि पैसा कितना भी कमाओ, खर्च न्यूनतम करो।वे सिर्फ इसी जुगाड़ में लगे रहते कि सारा खर्च बेला की कमाई से हो जाए, और उनका अधन्नी भी न खर्च हो।
दर असल हमारे परिवारों में लड़कियों को पैदा होते ही चम्मच में घुट्टी की तरह यह नसीहत भी साथ साथ पिलायी जाती है कि उन्हें एक न् एक दिन ससुराल जाना
होगा, जो उनका असली घर होगा।
वहां उन्हें सबकी बात माननी होगी,सबका ख्याल रखना होगा ।बेला भी अपने पांच भाई बहनों में सबसे बड़ी, और इन नसीहतों के साथ ही बड़ी हुई थी। मन में ससुराल के प्रति स्वाभाविक डर था।
इधर ए के साहब भी पांच भाई बहनों में सबसे बड़े, मितव्ययी पिता के साये में पले बढ़े, सिर्फ जरूरत ही जैसे तैसे पूरी हुई थी।
और यह मितव्ययिता उनका स्वभाव कब बन गई,उन्हें पता ही नहीं चला।
शुरूआत में बेला सबसे बना कर चलने की कोशिश करती रही, कुछ सुन लेती, पर स्वभाव की बिंदास थी। अतः समय के बीतने के साथ कभी कुछ सुना भी देती थी और कुछ सुनाने का मतलब महाभारत छिड़ना तय था।
स्कूल से आकर बैठी नहीं कि सास की बड़बड़ाहट चालू हो जाता......
हाँ, देखा एगो, महारानी आ के बैइठल बाड़ी, बैइठले क एतना सौक रहल त मइके से नौकर चाकर लियाइल के
रहल।
हमके नौकर बनाइल बाडू,अब हम तोहार , तोहरे लइकन क सेवा करीं। इहई दिन देखले खातिर बहू बना के
लियाइल रहलीं,न, अब हमसे न होला,आपन आपन इंतजाम करा,
फिर जो कहा-सुनी की शुरुआत होती तो पक्ष,विपक्ष कोई चुप नहीं रहता। आग में घी डालने ननदें भी आकर शुरू हो जाती, क्या सुख मिल रहा था ऐसी भाभी से। सुबह मटककर स्कूल चली जायेंगी महारानी। अब भी हम ही जूझें घर के कामों में।
कुरूक्षेत्र के मैदान में कोई योद्धा हार मानने के लिए तैयार नहीं होता था। धीरे-धीरे यह रोज की तकरार बनने लगी।
सबसे निर्विकार हमारे ए के साहब ही होते थे।
उन्हें मालूम था, रोज शाम ऐसे ही गुजरेगी, सो सारी शाम यार दोस्तों के साथ बाहर रहते।
जब अंदाजा लग जाता कि अब माहौल शांत हो गया होगा, आते, इतमीनान से खाना खाते,और जाकर सो रहते।
सुबह माँ शिकायत करती, माँ के साथ हां में हाँ मिलाते,
बेला शिकायत करती तो बड़े प्यार से सांत्वना देते, कहते
बस कुछ दिन और सह लो, ज्यादा दिन नहीं लगेंगे, थोड़ा
तनख्वाह बढ़ जाने दो, सब ठीक कर दूंगा ।
सब ठीक कर दूंगा, इसी प्रत्याशा में चार पांच साल और निकल गये।
पांच साल कम नहीं होते हैं किसी को पहचानने में। पांच साल में बेला को ए के की फितरत का पूरा पूरा भास हो गया था। पति के कंजूस पने को समझ गई थी।
वह तीन बच्चों की माँ बन चुकी थी, पर ए के को बच्चों की जरूरत से कोई मतलब नहीं था,जो कुछ भी लगता, बेला ही पूरा करती। इस बात पर पति पत्नी की तकरार शुरू हो चुकी थी। पति प्रेम कपूर की तरह उड़ रहा था।
यह लकड़ी, नून , तेल का खेल बड़े बड़े आशिकों का जनाजा निकाल देता है। मैं सोचती हूँ, आशिकी भरे पेट का खेल है, आशिकी पर जरूरतें बहुत भारी पड़ती है। शायद प्रेम भी तब ज्यादा परवान चढती है, जब आपको
उस प्रेम का दुश्मन नजर आता है। ज्यों ही दुश्मन खत्म हो जाता है, प्रेम का खुमार भी भाटा की तरह उतरने लगता है ।
ए के बड़े सुदर्शन व्यक्तित्व के मालिक है।
बहुत बड़ी बड़ी गुढ बातों पर चर्चा करने में माहिर, रिश्ते भी निभाते हैं। जहाँ जरूरत हो, वहां जरूर पहुँचते हैं। ऐसी कोई जाहिर बुराई भी नजर नहीं आती है।
वहीं बेला साधारण रंग रूप की मलिका है।
पर उसकी खुशदिली मन को मोह लेती है। एक बात महसूस की है मैंने कि खुशदिल इंसान के चेहरे पर छाई ओज इंसान को खूबसूरत बना देती है। जाने क्या आकर्षण होता है उन चेहरों में कि मन को बरबस अपनी ओर आकर्षित कर ही लेता है। बेला बहुत मुंहफट भी थी पर कड़वी बातें भी इस तरह करती थी कि कर्कश नहीं लगती थी।
दोनों में बहुत बुराई भी ढूंढने जायेंगे तो नहीं मिलेगीं। फिर भी उनका रिश्ता क्यों नहीं निभ रहा, समझ से परे है ?
ओशो की एक बात याद आ रही है कि पति और पत्नी एक दूसरे को इतना जान जाते हैं कि फिर उन्हें एक दूसरे को जानने की आवश्यकता ही नहीं रहती है।
वे एक दूसरे को इतना देख चुके होते हैं कि महीनों बीत जाते हैं, उन्हें आपस में एक दूसरे को देखे हुए।
और सबसे बड़ी मजेदार बात यह होती है कि शक्ल सूरत से भी वे भाई बहन जैसे दिखने लगते हैं ।बात है बड़ी अटपटी, पर मुझे तो सत्य जान पड़ती है।
मैं हूँ पड़ोसन, पड़ोसी के घर में क्या क्या घट रहा है, पड़ोसी से ज्यादा कौन जान सकता है।अनुमान मत लगाइएगा, कि बड़ी तकनी , झकनी पड़ोसन हूँ, जहाँ सब कुछ खुलेआम हो रहा हो, वहां ताकने,झांकने की गुंजाइश नहीं रह जाती है।
हाँ, तो एक दिन बेला स्कूल से थक हार कर लौटी, सास इंतजार कर रही थी। कुछ लोगों को दुर्वचन बोलने का अभ्यास होता है। जब तक वे दुर्वचन बोल न लें, पूरा दिन नीरस सा गुजरता है।
और हाँ, कुछ लोगों को लड़ाई झगड़े का भी व्यसन होता है। किसी से जब तक खामख्वाह भिड न लें, हाथ नचा नचा कर लड़ न लें। तब तक जीवन में आनंद ही नहीं मिलता।
फिर गुस्सा दिखाते हुए घर से बाहर निकलो, दो चार लोगों को बताओ कि आप कितने निरीह हैं, कितने सताए हुए हैं।
सहानुभूति के दो बोल सुन लें, तो दिन सफल।
फिर रात में अच्छी नींद आती है ?
उस दिन नियती ने ठान लिया था, बहुत हो गई एकरसता,
अब कुछ नया करते हैं? कुछ उसी तरहा जैसे ....
हाथ में हो एक थम्स अप की बोतल
और उसमें हम तूफान भरते हैं। शुरूआत में बड़े प्रेम के दिन थे।
एक दूसरे के साथ बहुत प्रसन्न थे। ए के के पिता अच्छी जगह, अच्छे पोस्ट पर नौकरी कर रहे थे।
बड़ा दबदबा रखते थे, उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था कि कोई उनके खिलाफ जाए। ए के, के शादी से पहले सब ठीक ठाक चल रहा था।
पिता के दबदबे में सारा परिवार चल ही रहा था।
पर जैसा हमारे भारतीय परिवार में होता है, नयी बहू का आगमन बहुत कुछ बदल देता है।
पति से दबी महिला सास बनते ही मानने लगती है कि अब कोई है जिस पर वह हूकुमत कर सकती है।
ननद सोचने लगती है, अब उसके आराम के दिन आ गए हैं।
अब जो करना है भाभी करेगी।
देवर थोड़ा नरम होते हैं,
कभी कभी भाभी के पक्ष में भी आवाज उठाते हैं, भले
उनकी आवाज कोई सुने या न सुने ?
यह परिवार भी बिल्कुल परंपरागत परिवार था।
पर पढी लिखी बहू परंपरा गत नहीं थी, आजाद ख्याल था।
उस पर गाज यह गिरा कि बेला की बतौर शिक्षक नौकरी भी लग गई।
सास ससुर बेहद नाराज हुए, वे नहीं चाहते थे कि बहू नौकरी करे।
पर बेला को यह आजादी बहुत प्रिय थी।
सबसे प्रसन्न ए के साहब थे, दर असल पिता के रहते, पिता की एक विरासत उन्हें पहले ही मिली थी कि पैसा कितना भी कमाओ, खर्च न्यूनतम करो।वे सिर्फ इसी जुगाड़ में लगे रहते कि सारा खर्च बेला की कमाई से हो जाए, और उनका अधन्नी भी न खर्च हो।
दर असल हमारे परिवारों में लड़कियों को पैदा होते ही चम्मच में घुट्टी की तरह यह नसीहत भी साथ साथ पिलायी जाती है कि उन्हें एक न् एक दिन ससुराल जाना
होगा, जो उनका असली घर होगा।
वहां उन्हें सबकी बात माननी होगी,सका ख्याल रखना होगा। बेला भी अपने पांच भाई बहनों में सबसे बड़ी, और इन नसीहतों के साथ ही बड़ी हुई थी। मन में ससुराल के प्रति स्वाभाविक डर था।
इधर ए के साहब भी पांच भाई बहनों में सबसे बड़े, मितव्ययी पिता के साये में पले बढ़े, सिर्फ जरूरत ही जैसे तैसे पूरी हुई थी।
और यह मितव्ययिता उनका स्वभाव कब बन गई,उन्हें पता ही नहीं चला।
शुरूआत में बेला सबसे बना कर चलने की कोशिश करती रही, कुछ सुन लेती, पर स्वभाव की बिंदास थी। अतः समय के बीतने के साथ कभी कुछ सुना भी देती थी।और कुछ सुनाने का मतलब महाभारत छिड़ना तय था।
स्कूल से आकर बैठी नहीं कि सास की बड़बड़ाहट चालू हो जाता......
हाँ, देखा एगो,महारानी आ के बैइठल बाड़ी, बैइठले क
एतना सौक रहल त मइके से नौकर चाकर लियाइल के रहल।
हमके नौकर बनाइल बाडू,अब हम तोहार , तोहरे लइकन क सेवा करीं।
इहई दिन देखले खातिर बहू बना के लियाइल रहलीं,न, अब हमसे न होला,आपन आपन इंतजाम करा,
फिर जो कहा-सुनी की शुरुआत होती तो पक्ष,विपक्ष कोई चुप नहीं रहता। आग में घी डालने ननदें भी आकर शुरू हो जाती, क्या सुख मिल रहा था ऐसी भाभी से। सुबह मटककर स्कूल चली जायेंगी महारानी। अब भी हम ही जूझें घर के कामों में।
कुरूक्षेत्र के मैदान में कोई योद्धा हार मानने के लिए तैयार नहीं होता था। धीरे-धीरे यह रोज की तकरार बनने लगी।
सबसे निर्विकार हमारे ए के साहब ही होते थे।
उन्हें मालूम था, रोज शाम ऐसे ही गुजरेगी, सो सारी शाम यार दोस्तों के साथ बाहर रहते।
जब अंदाजा लग जाता कि अब माहौल शांत हो गया होगा, आते, इतमीनान से खाना खाते,और जाकर सो रहते।
सुबह माँ शिकायत करती, माँ के साथ हां में हाँ मिलाते,
बेला शिकायत करती तो बड़े प्यार से सांत्वना देते, कहते
बस कुछ दिन और सह लो, ज्यादा दिन नहीं लगेंगे, थोड़ा
तनख्वाह बढ़ जाने दो, सब ठीक कर दूंगा ।
सब ठीक कर दूंगा, इसी प्रत्याशा में चार पांच साल निकल गये।
आज विधि का नया खेल होना था, जिंदगी को नया करवट बदलना था सो आज कुछ नया घटना ही था।बेला के गेट का खोलना था कि रोज की तरह सास का बड़बड़ाना प्रारंभ हो गया.....
आ गइलीं बहिनीं, हो गइल टाइम पास, तीन -तीन गदेला हम सम्हारी, बहिनी मजा करिंही,अब हम न सहब, बूझलूँ की नाईं। नौकर लगइले बाणी हमके, जा अपने माई के घरे, ऊही ऐश करा,
बेला क्यों चुप रहती , होने लगा घमासान।तभी बेला के श्वसुर पधारे और एलान कर दिया कि वह रोज का यह झगड़ा वह नहीं सहेंगे। नौकरी छोड़ो या घर छोड़ो !!
और बेला ने घर छोड़ने का निर्णय ले ही लिया। तुरंत बैग में कपड़े भरे और तीनों बच्चों सहित मायके जाने के लिए आटो कर लिया। किसी ने नहीं रोका।
ए के घर पहुँचे, तब उन्हें खबर हुई कि बेला घर छोड़ चली गई है।
उस दिन उन्होंने कुछ भी नहीं कहा और चुपचाप सो गये।
दूसरे दिन सुबह सवेरे ही पहुँचे ससुराल। वहां बेला की माँ
बातों की लठ्ठ चलाने लगीं कि इतना सताया उनकी बेटी को, कभी सुख से रही नही उस घर में।
और अंतिम ऐलान यह हुआ कि अलग घर बसाओ ताकि बेटी चैन से रह पाये।
हठयोग के आगे किसकी चली है कि ए के की चलती। झुकना पड़ा पत्नी के आगे।
किराये पर एक मकान लिये और नयी गृहस्थी का शुभारंभ किया।
फिर आगे एक प्लाट खरीदकर अपने घर की नींव रखी।
दोनों कमाते थे, लोन उठा लिया दोनों ने और छोटा सा सुंदर घर साल के अंदर ही बना लिया।
चाहिए तो यह था कि अब दोनों की गृहस्थी की गाड़ी पटरी पर दौड़ती। पर नहीं हुआ ऐसा।
लोन से घर तो बन गया पर किश्त चुकाने में दोनों की तनख्वाह आधी रह गयी।
तीन बच्चों के पढाई- लिखाई का खर्च बढता गया।
ए के का रवैया वही पुराना था कि घर के खर्च में नाम मात्र का सहयोग देते थे। सारा खर्च का बोझ बेला के कंधों पर।
इस रवैये से घर में दोनों के बीच तानातनी प्रारंभ हो गया।जो बाद में बड़े झगड़ों में तब्दील हो गया।
सभ्य , शालीन ए के को कभी किसी ने लड़ते नहीं देखा। वह बेला का चीखना चिल्लाना भी बर्दाश्त कर लेते। पर आसानी से जेब ढीली न करते।
फिर भी सब चल ही रहा था।
पर विधी तो कोई और खेल खेलने की तैयारी करके बैठा हुआ था।
बेला के साथ ही स्कूल में पढाते थे वर्माजी।
सहयोगी शिक्षक के नाते बेला से जान-पहचान तो थी ही।
जाने कब किन भावुक क्षण में बेला ने एक दिन उनसे
अपनी परेशानी बांट ली।
तुरंत उन्होंने बेला के बच्चों को घर आकर पढ़ाने का वादा कर बैठे ताकि उनका ट्यूशन का खर्च बच सके।
इस तरह रोज वे बेला के घर दो घंटों के लाए आने लगे। स्कूल में आठ घंटों का साथ , फिर शाम को दो घंटे
वर्माजी के बेला के घर में।
धीरे-धीरे सुबह का टहलना भी साथ-साथ होने लगा। फिर साथ ही मार्केटिंग होने लगी। वर्माजी उपहार देने लगे
कभी बच्चों को, कभी ए के को।
ए के के साथ उनकी भी छनने लगी।
ए के पहले तो प्रसन्न थे कि चलो बढ़िया है। पैसों की बचत हो रही है। कभी एतराज नहीं जताया।
पूरे मुहल्ले में इस नजदीकी को लेकर कानाफूसी प्रारंभ हो गया। स्कूल में भी दबे स्वरों में इन दोनों के संबंधों को लेकर बातें होने लगी। पर ए के की आंखों पर बचत का चश्मा नहीं उतरा।
बेला अति फिक्रमंद रहती वर्माजी को लेकर । खाए हैं कि नहीं, अगर नहीं तो तुरंत गरमागरम खाना बना कर खिलाना। कुछ ही दिनों में वर्माजी घर के एक सदस्य की तरह ही हो गये।
साल दो साल बीत चुके थे। सब कुछ बदस्तूर चल रहा था कि एक दिन ए के को करंट लगा।
हुआ कुछ ऐसा कि छठ पूजा थी। और बिहारियों में तो यह सबसे बड़ा त्यौहार माना जाया है।
छठ पर्व के इसी पर्व पर जब सूर्य को अर्ध्य देते समय जल बेला को वर्माजी देने लगे। और बेला को कोई एतराज नहीं था।
उस दिन से ए के के होश-ठिकाने आ गये। और ऐसे आये कि पांचवें दिन बेला के हाथों में तलाक का नोटिस था।
और आज यह हालत है कि दोनों एक ही घर में रहते हैं।
कोर्ट के काऊंसलिंग पर दोनों हाजिर रहते हैं। वहां ए के घटिया से घटिया इल्जाम लगाते हैं बेला पर।
पहले तो बेला तलाक पर राजी थी। पर एक दिन सासू माँ
के यह कहने से कि हम दूसर शादी कराईब अपने लड़के का।
बेला ने साफ कह दिया कि वह तलाक नहीं देगी ए के को
चाहे जितना जोर लगा लो।
और रहे वर्माजी, वे इस लपेटे से यह कहकर साफ बरी हो गये कि वह तो शादीशुदा आदमी है और सिर्फ अच्छी नीयत से बेला की मदद कर रहे थे।
उन्होंने पूर्णतया किनारा कर लिया खुद को इस प्रकरण से।
आज भी बेला और ए के एक ही छत के नीचे रहते है।
तलाक की सुनवाई पर कोर्ट में हाजिर होते है।
अलग बनाते-खाते हैं । बेला भी ए के के डिपार्टमेंट से लेकर कोर्ट तक इल्जामों की झड़ी लगाए घूमते रहती है।
और शाम को दोनों एक ही नीड़ के अंदर रहते हैं।
तनातनी का प्रभाव बच्चों पर पड़ता ही है जिसकी भरपाई
ए के और बेला पैसों के बल पर करते हैं ।
यह दास्तान है प्रेम के पंछियों की।
गृहस्थी के यह वह दो चक्के हैं जो इस कदर टूट-फूट चुके हैं कि मरम्मत की कोई गुंजाइश नजर ही नहीं आती है।