Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational Others

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

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टीम भावना ..

टीम भावना ..

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अब सरोज घर में अपने एवं नीलम (देवरानी) के बच्चों की लाड़ दुलार के साथ यथोचित देखभाल करती। जबकि नीलम, अपने कहे अनुसार रसोई एवं गृहस्थी के सभी काम निबटाती।

सरोज को, इससे काफी समय रचनात्मक योगदान के लिए, तैयारी का मिल जाता। वह नारी मनोविज्ञान से संबंधित साहित्य ढूँढा करती, उन्हें पढ़ती।

साथ साथ वह गाँव में अपने तरह की बहुओं से, मेल मिलाप बढ़ाती। उनसे बच्चों एवं गृह विषयों पर चर्चा करती। मुंबई शहर में रहकर आई होने से, सरोज के विचार उनसे ज्यादा सुलझे थे। वह गाँव की इन औरतों के साथ, उनके अंधविश्वासों पर चर्चा करती और प्रामाणिक बातों से, उन्हें, उस पर चिंतन को प्रेरित करती।

ऐसा होते कोई दो महीने हुए होंगे। एक दिन नीलम दोपहर में उसके पास आई। सरोज ने उसे स्नेह से आलिंगन किया, फिर पास बिठाया।

कुछ पल नीलम छोटे बच्चों को खेलते देखते रही, फिर आदर से बोली-

दीदी, आजकल गाँव की औरतों में आपकी बहुत चर्चा है। आप उनमें बड़ी लोकप्रिय हो रही हैं। (नीलम, पहले चिढ़ती थी, तब सरोज को जिठानी संबोधित करती थी, अब उसे चाहने लगी तो, आदरपूर्वक दीदी कहने लगी थी)

सरोज ने मुस्कुराते हुए कहा- ठीक तो है ना, जितना तुम चाहती हो, उससे कुछ कम ही, मुझे, वे चाहती हैं!

नीलम ने आगे कहा- दीदी, आपके और जेठ जी के वापिस आने के बाद से, गाँव में अपने परिवार का आदर बढ़ गया है।

सरोज ने कहा- नीलम, परिवार में जब हम आपस में, एक दूसरे को सम्मान देते हैं, प्रेम करते हैं, एक दूसरे के लिए किसी भी त्याग को तैयार रहते हैं, तो यही हमारे स्वभाव में आ जाता है। हम, बाहर भी सबसे इसी तरह का व्यवहार और सहयोग करने लगते हैं। इससे परिवार को आदर मिलता ही है।

तुम्हारे जेठ ने, मुंबई में ज्यादा तरह के निर्माण किये और देखें हैं। जिससे इनके काम में गुणवत्ता अच्छी है। अपने अच्छे काम से गाँव और आसपास इनकी यूँ पहचान बनी है। वहाँ तो जगन, बेलदार राजमिस्त्री के तरह काम करते थे, जबकि यहाँ साथ में, इन्हें अब ठेके भी मिलते हैं।

तब नीलम बोली- सच दीदी, पिछले एक साल में, अपने परिवार की आमदनी बहुत बढ़ गई है।

सरोज ने कहा- नीलम इसमें विशेषता भी देखो कि इस आमदनी के अवयव नैतिकता एवं अथक परिश्रम हैं। ऐसी कमाई दीर्घकाल में उत्कृष्ट फलदायी होती है। और, ऐसा सब तुम एवं तीनों देवर के सहयोग के कारण हो सका है।

नीलम ने आगे कहा- लेकिन हम सभी तो पहले ही थे। तब परिवार का ना तो इतना आदर था और ना ही ऐसी आय थी।

तब सरोज ने समझाते हुए कहा- टीवी पर तुम क्रिकेट देखती हो ना, जिसमें टीम खेलती है। किसी टीम में हर मेंबर की, अलग भूमिका और खूबियाँ होती हैं। टीम अच्छा प्रदर्शन तब करती है जब, सभी मेंबर अपनी अपनी खूबी से, योगदान करते हैं।

ऐसे ही परिवार भी एक टीम होता है। सभी को, अपनी अलग अलग खूबियों को परिवार हितों में मिलाना होता है। एकजुटता के ऐसे प्रयास निश्चित ही बरकत के कारण बनते हैं।

नीलम प्यार से सरोज को देखते हुए, मुग्ध हो सुन रही थी। सरोज के चुप होने पर बोली- दीदी, आप कितने अच्छे से समझाती हैं जबकि आपने, ऐसी ज्यादा पढ़ाई भी नहीं की है।

सरोज ने प्यार से कहा- नीलम, पढ़ाई से, गणित, विज्ञान, भूगोल एवं इतिहास आदि का ज्ञान बढ़ता है। अभी जो बातें मैं कह रही हूँ वह, व्यवहारिक तथा नैतिकता की बातें हैं, जो अपने विवेक से समझी, कहीं और निभाई जातीं हैं। इनका पढ़े लिखे होने से बहुत संबंध नहीं होता है। यद्यपि इनके लिए भाषा पर अधिकार एवं हममें अभिव्यक्ति कौशल, आवश्यक होता है। 

तब नीलम ने कौतुहल से पूछा- मगर दीदी, मैं आप जैसा, समझ और समझा क्यों नहीं सकती हूँ ?

सरोज ने मधुरता से कहा नीलम- यह तो, किसी में कुछ और किसी में कुछ अन्य खूबी होने से होता है। देखो ना, जो बात मुझमें अब दिखाई पड़ती है, पहले कहाँ थी?

(फिर, उत्तर देने के अंदाज में)- यह तुम्हारी खूबी है, जिसमें तुमने घर में अपनी और मेरी भूमिका को पहचाना और फिर अपनी उत्कृष्ट टीम भावना का परिचय देते हुए, खुद के लिए ज्यादा मेहनत और उबाऊ काम लिए और मुझे इस भूमिका के लिए तैयार करने का अवसर दिया।

स्पष्ट था कि सरोज का, खुद की प्रशंसा से सीना चौड़ा नहीं हो जाता था अपितु वह प्रशंसा करने वालों में उनकी प्रशंसा खोज कर, उनको प्रोत्साहित करने का गुण रखती थी। 

सरोज ने आगे कहना जारी रखा- तुम्हारा किया त्याग और सहयोग, हमारे घर को, एक टीम जैसे उभरने में कारण हुआ है। जगन को वित्तीय विषय में एवं मुझे, समाज व्यवहार में पारंगत करने में, तुम्हारी विकेट कीपिंग तरह की भूमिका लेना ही इसका कारण है। अपने दो देवर अभी किशोरवय हैं, जो हममें ऐसा सामंजस्य देख, जब बड़े होंगे तो इस परिपाटी पर चलकर, परिवार को और मजबूत बनायेंगे। कह सकते हैं कि हम, उनमें अच्छे संस्कार की नींव रख रहे हैं। 

तब नीलम खुश होते हुए, खेल रहे बच्चों की ओर इशारा करते हुए बोली - दीदी, तब तो इन बच्चों में निश्चित ही अच्छे संस्कार पड़ेंगे। 

सरोज बोली- बिलकुल, ये बच्चे बड़े होकर, छल कपट एवं भ्रष्टाचार में न पड़कर, अपनी क्षमताओं का प्रयोग, व्यवसायिक शुचिता रखने, समाज में न्यायप्रियता का परिचय रखने एवं नारी के प्रति सम्मान एवं बराबरी की दृष्टि रखने, में कर सकेंगे। 

तब नीलम बोली- तब तो दीदी, मुझे अपने लिए, अपनी कोई पहचान नहीं बनाने वाली भूमिका के चयन पर, पछतावा नहीं होगा।  

इस पर सरोज ने समझाया- नीलम, यह हमेशा से होता आया है, किसी अच्छाई के वास्तविक नायक, पर्दे के पीछे होते हैं और श्रेय किसी और को जाता है।

ऐसी पहचान नहीं होने का रंज तथा पहचान होने का घमंड, व्यर्थ है।

एक समय बाद सब इतिहास हो जाते हैं। सब, समय के साथ भुला भी दिए जाते हैं। तुम सोचो, 100-150 वर्ष पूर्व, क्या अच्छा करने वाले लोग नहीं रहे होंगे?

(फिर खुद उत्तर में, एक और प्रश्न करते हुए) निश्चित ही रहे थे, मगर आज कितने जानते हैं, उन्हें?

(फिर निर्णयात्मक स्वर में आगे बोली)- मगर उनकी दीं हुईं अच्छी परंपरायें आज भी हैं। जिनका पालन करते हुए, हम एक मर्यादित समाज होने की प्रेरणा लेते हैं। 

तब समझ जाने के अंदाज में नीलम ने सिर हिलाया, बोली- विपदायें भी कुछ अच्छी बातों का कारण बनती है। यदि कोविड-19 नहीं होता, आप 1200 किमी के कष्टमय सफर में, अनेक खराबियों की तल्लीनता से साक्षी नहीं होतीं और गाँव नहीं लौटतीं, (फिर प्रश्नात्मक लहजे में)- तो क्या हमारा परिवार, आज जितना सुखी कभी होता?

भाव विभोर हो, सरोज ने नीलम को देखा फिर उत्तर दिया- नीलम, तुम्हारा सहारा और आधार मिलने से, मैं सोचने लगीं हूँ कि जो अच्छाई तुम परिवार में अनुभव कर रही हो, मैं उसे विस्तार देकर, इसे गाँव की घर घर की कहानी होने की बुनियाद निर्मित करूं। 

फिर, क्यों नहीं, कहते हुए, नीलम, अपराह्न के चाय-नाश्ते के लिए रसोई में चली गई।

और सरोज अपने, आगामी समाज हितकारी सपनों में चली गई..   



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