टाइम ट्रेवल (लेयर 2)
टाइम ट्रेवल (लेयर 2)
‘रात अकेली है बुझ गये दिये...’ जानती हूँ कि ये कोई वक़्त नहीं था गुनगुनाने का। अंधेरी रात में अकेली लड़की, गुनगुनाने की नहीं डरने की बात होती है पर क्या करूं मुझे डर लग ही नहीं रहा था। ऐसा लग रहा था कि जिन गलियों से होकर मैं निकल रही हूँ वो कोई अजनबी गलियाँ नहीं मेरी अपनी हैं। चंद्रमा की रोशनी पेड़ों से छन-छन कर सड़क पर आ रही थी। अपनी आँखों में इस खूबसूरत नज़ारे को समेटती हुई मैं उसी रास्ते पर आगे बढ़ रही थी जो उन बाबाजी ने मुझे दिखाया था।
“कौन कहता है कि तुम्हारा निशाना अचूक है” चलते चलते मुझे किसी की आवाज़ सुनाई दी।
जवाब में किसी के ज़ोर से हंसने की आवाज़ से मैं डर गई।
“इतनी रात को किसे निशानेबाज़ी सूझ रही है ? कौन हो सकता है ? अभी तक तो कोई नज़र नहीं आ रहा था फिर अब ये आवाज़ें कैसी ?” सोचते हुए मैंने जल्दी जल्दी कदम बढ़ाना शुरू कर दिया।
कदम अपनी जगह काम कर रहे थे और डर अपनी जगह। मेरी स्थिति देखकर कोई भी भांप सकता था कि मैं डरी हुई हूँ।
काफ़ी देर हो गई थी चलते चलते। थकान की वजह से रास्ते के बीच में रुक कर मैंने चारों तरफ़ देखा। कोई दिखाई नहीं पड़ा।
“बाबाजी ने तो कहा था कि सारे जवाब देने वाला कोई इसी रास्ते पर मिलेगा। यहाँ तो कुछ दिखाई नहीं दे रहा। अपने पागलपन के चक्कर में ये कहाँ आ गई हूँ मैं। बेकार ही उनकी बातों पर भरोसा कर लिया। भगवान जाने कौन था ? कहीं किसी गलत इंसान के चक्कर में गलत रास्ते पर तो नहीं आ गई...” सोच ही रही थी कि मुझे फिर किसी की आवाज़ सु
नाई दी।
“आप बिल्कुल सही रास्ते पर हैं राजकुमारी जी।”
ये वही इंसान था जो कुछ देर पहले मुझे मिला था।
“तुम यहाँ क्या कर रहे हो ?”
“मैं रात्रि के समय घूम घूम कर पहरा देता हूँ। यही मेरा काम है।”
बड़ी अजीब बात थी एक तो ये कि इस सुनसान रास्ते पर पहरा देने की क्या तुक थी और दूसरी ये कि ये लोग मेरे मन की बात कैसे समझ लेते थे ?
ना तो उन बाबाजी को मैंने अपने सवालों के बारे में कुछ बताया था, ना इस आदमी से रास्ते के बारे में पूछा। उन्होंने भी बिना कुछ कहे बता दिया कि मेरे सवालों के जवाब कहाँ मिलेंगे और ये आदमी भी बिना पूछे ही कह गया कि सही रास्ते पर हो। कुछ ना कुछ बात तो ऐसी थी जो मेरी समझ के बाहर थी।
जितना मैं आगे बढ़ती जा रही थी उतना ही मुझे इस बात का एहसास हो रहा था कि अब मैं चल नहीं रही हूँ मंज़िल मुझे अपनी तरफ़ खींच रही है। और शायद सच भी यही था कि मंज़िल मुझे अपनी तरफ़ खींच ही रही थी।
अगर वो बाबाजी इसी के बारे में बात कर रहे थे और अगर यही मेरी मंज़िल थी जो मुझे मेरे सवालों के जवाब दे सकती थी तो शायद मैं अपनी मंज़िल पर पहुंच चुकी थी। एक महलनुमा इमारत के सामने आकर मेरे कदम रुक गये थे। चंद्रमा की चांदनी के साथ दियों की रोशनी से पूरा महल जगमगा रहा था। ठंडी हवा के साथ फूलों की भीनी भीनी खुशबू आ रही थी।
“रुको... कौन हो तुम ? यहाँ कैसे आ गई ?”
अंदर जाने के लिये मैंने कदम बढ़ाया ही था कि किसी की आवाज़ ने मुझे वहीं रोक दिया।