Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational Children

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

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तस्वीर में भी सुरक्षित नहीं (5)

तस्वीर में भी सुरक्षित नहीं (5)

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तस्वीर में भी सुरक्षित नहीं (5)पापा ने उत्तर दिया - खराबी प्रसारण माध्यमों में नहीं है। उन्हें प्रयोग करने का तरीका, हमारा ख़राब होने से, उनमें खराबियाँ आ गईं हैं। प्रसारण माध्यमों से दूर रहने के स्थान पर हमें, उनका हितकारी प्रयोग करना चाहिए। 

तब स्पष्ट समझने के लिए मैंने पूछा - पापा, सिनेमा के उदाहरण से बताइये कि इसके दर्शक के, सिनेमा के प्रयोग में, क्या खराबी है ?

पापा ने कहा - सिने जगत के लोग किसी समाज सेवा के प्रयोजन से वहाँ नहीं पहुँचें हैं। उन्हें अथाह धन उपार्जन का लोभ वहाँ ले गया है। उन्हें, धन अर्जन का अपना प्रयोजन सिध्द करने के लिए, वैसी सामग्री निर्मित करनी होती है जैसी, दर्शक देखना पसंद करते हैं। अगर बुरी किस्म की बातें दर्शक पसंद करते हैं तो वे बुरा ही निर्माण करते हैं। जो समाज अहितकारी होता है। 

मैंने पूछा - पापा, वे बुरा निर्माण करते हुए भी लोकप्रिय होते हैं, इसका क्या कारण है?

पापा ने बताया - वास्तव में यह उनकी ही नहीं हमारी भी खराबी होती है। हम जानते हैं वे, कोई देश सेवा नहीं करते, कोई समाज सेवा नहीं करते तब भी वहाँ के लोगों के हम सहित, करोड़ों प्रशंसक मिलते हैं। यह हमारी ही खराबी होती है। 

मैंने फिर पूछा - उनके करोड़ों प्रशंसक होना, खराबी क्यों है, पापा?

पापा ने बताया - किसी को लोकप्रियता मिलती है, तब उसे करोड़ों की सँख्या में प्रशंसक मिलते हैं। इससे उनमें से कई का अभिमान रावण से भी अधिक हो जाता है। 

रावण ने तो सीता जी का, अपहरण करने बस का पाप किया था। सिनेमा के कुछ लोग तो इतने अभिमानी हुए हैं कि उन्हें, किसी को गाड़ी से रौंद कर मार देने या नशा करने में एवं लिव इन रिलेशन में रहने में आधुनिकता बताने में शर्म नहीं आती है। 

यही नहीं, देश के विभिन्न हिस्सों से, सिनेमा में काम के प्रयोजन से पहुँची, नई लड़कियों/युवतियों के शीलहरण करने में भी उनका, कोई कुछ बिगाड़ सकता है इत्यादि ऐसी बुरी बातों में, लिप्तता से भी (अनेक को) कोई भय नहीं लगता है। उनके कृत्य, रावण की बुराई से कहीं अधिक बुरे होते हैं। 

मैंने और स्पष्ट समझने के लिए पूछा - मैं यदि, किसी सिने कलाकार की प्रशंसक होती हूँ तो अपना क्या ख़राब करती हूँ, पापा? 

पापा ने बताया - प्रशंसक होकर, सर्वप्रथम तो तुम, अपना समय ख़राब करती हो। तुम सोचो, क्या किसी दुकानदार से कोई वस्तु खरीद के लाने के बाद तुम, उसकी प्रशंसक होती हो? 

फिर मूवीज़ के लिए, पैसा देकर के जब तुम, मूवी देखती हो तो, उन दुकानदारों की प्रशंसक क्यों बनती हो। प्रशंसक होकर के, तुम (सिने) दुकानदारों के बारे में सोचने में, समय लगाती हो। उसके बारे में समाचार सुनने-पढ़ने में समय लगाती हो। उसकी अच्छी बुरी, सभी मूवीज देखने लगती हो। ऐसे अपने जीवन के, अपने कीमती समय का प्रयोग, स्वयं को प्रोमोट करने की जगह (जो निपट स्वार्थी हैं) उन्हें, प्रोमोट करने में लगाती हो। 

मैंने कहा - हाँ, पापा मुझे समझ आ गया। 

पापा ने बताया - इसमें तुम्हारी ही अकेली हानि नहीं होती है। अपितु अप्रत्यक्ष रूप से देश और समाज का नुकसान भी होता है। ऐसे ही अनेक देशवासी जब ऐसा करते हैं तो, उत्पादन की दृष्टि से (लग सकने वाले) अरबों मानव दिवस (मैन डेज) व्यर्थ हो जाते हैं। 

कोई यदि प्रशंसक नहीं होता है तो इन सब बातों के लिए जाया होने से बचा समय, अपनी शिक्षा,व्यवसाय एवं सृजन के लिए लगा कर, वह स्वयं की प्रतिभा में निखार ला सकता है। ऐसे वह, अपने को प्रोमोट कर सकता है। ऐसा करने पर वह, तुलनात्मक रूप से परिवार, समाज एवं देश की दृष्टि से अधिक उपयोगी जीवन जी पाता है। 

मैंने कहा - जी, पापा मुझे समझ आया है कि मुझे किसी सेलेब्रिटी (दूकानदार) का प्रशंसक नहीं होना चाहिए। सेलेब्रिटी जो करता है, उसका अर्जित धन, अपने ऐशोआराम के लिए करता है। 

देश एवं समाज का उसके द्वारा, कुछ भला नहीं होता है। बल्कि हमारे प्रशंसक होने से उनके लिए पूर्वाग्रह पालते हैं। हम उसकी बुरी बातों को भी, उसकी अच्छाई की तरह देखने लगते हैं। फिर वैसी बुराई में, स्वयं लिप्त होने में हमें शर्म नहीं रह जाती है। 

पापा ने कहा - बिलकुल सही है बेटी। इस दृष्टिकोण से देखें तो ये ख़राब तरह के सेलिब्रिटी ही नहीं, एक उनका प्रशंसक भी समाज में बुराई का, परोक्ष रूप से उत्तरदायी होता है। 

सेलिब्रिटी को, इतने ढेरों प्रशंसक मिलने से उसे, यह सोचने का समय नहीं मिलता है कि उसका जिया गया जीवन देश और समाज के किसी सार्थक काम का हो भी सका है या नहीं? अपने वैभव एवं लोकप्रियता के घमंड में, उसकी दृष्टि देख नहीं पाती है कि वह, “जिस थाली में खाता है, उसी में छेद कर बैठा है। अर्थात जिस देश ने उसे बनाया है, उसी देश की समाज संस्कृति वह बिगाड़ रहा है।” 

पापा ने जिस अच्छी तरह से मुझे समझाया था, उससे मैंने, उस दिन, संकल्प लिया था कि “नहीं, मैं ख़राब तरह के लोगों को बढ़ाने में अपना समय व्यर्थ नहीं करुँगी। मैं, अपने में निहित प्रतिभा से स्वयं, वह व्यक्तित्व बनाऊंगी जो, देश और समाज को सार्थक योगदानों का निमित्त बन सके”।   

अपने पापा से, ऐसे सभी तरह की चर्चा और अपने संशय दूर कर लेने की अनुमति होने से आगे, मैंने पापा के रूप में, उन्हें ही, अपना सबसे अच्छा मित्र मान लिया था। 

मैंने देखा था कि मेरी सहपाठी, कुछ लड़कियाँ, अपने संशय-व्दंद अपनी सहेलियों से पूछतीं है। जिनसे उन्हें, कोई समुचित जानकारी नहीं मिलती है। अपितु कुछ तो अपने अंतर्मन की बातों के कह देने के कारण, हममें हास-परिहास का लक्ष्य भी हो जाती हैं। 

मुझे समझ आ गया था कि हमारे सर्वाधिक हितैषी मित्र, हमारे माँ-पापा ही होते हैं। जिनसे किसी भी तरह की चर्चा में, कभी हमारी हँसी नहीं उड़ती है। साथ ही समुचित समाधान भी हमें, उन्हीं से मिल जाते हैं। 

मैं, अब से छोटी सी छोटी अपनी दुविधायें एवं अपने किसी भी तरह के संशय, अपने पापा से पूछ लेती थी। और ऐसे उनके मार्गदर्शन में मैं, क्रमशः बड़ी होने लगी थी। 

फिर आया था मेरी, दसवीं की परीक्षा का समय तब दुर्भाग्य से मुझे डेंगू हो गया था। जिसके कारण मैंने, परीक्षा अपने खराब स्वास्थ्य में दी थी। और जब परीक्षा फल आया तो मैं, पहली बार स्कूल में अपने 4 अन्य सहपाठियों से पिछड़ गई थी। यह अब तक कभी नहीं हुआ था। मैं हमेशा स्कूल में सर्वप्रथम ही आती रही थी। 

इससे मुझ पर छाई उदासी से माँ, दादी दुखी हुईं थीं। उन्होंने, पापा से, मुझे समझाने हेतु कहा था। पापा ने उस शाम मुझे पास बिठाया एवं पूछा था - बेटी, मेहनत सब से ज्यादा एक मजदूर करे एवं पारिश्रमिक दूसरे को अधिक मिले तो क्या, यह अच्छी बात होगी?

मैंने कहा - जी नहीं, पापा। 

तब पापा ने कहा - बेटी, ऐसे ही डेंगू के कारण इस वर्ष तुम्हारे अध्ययन में कमी रह गई। कुछ बच्चों का अध्ययन तुमसे अच्छा रहा। उन्हें, तुमसे, ज्यादा अच्छे अंक मिले हैं तो क्या, यह अच्छी बात नहीं है?

मैंने कहा - जी पापा, यह तो अच्छी बात है। 

तब पापा ने कहा - फिर तुम ऐसे उदास क्यों रहती हो। ख़ुशी मनाओ, उन बच्चों के लिए जिन्हें उनके परिश्रम अनुसार पहली बार, तुमसे अच्छा स्थान मिल सका है। 

पापा द्वारा, मेरे परीक्षा परिणाम को इस दृष्टिकोण से दिखाने से, मेरी उदासी मिट गई थी। मैंने ख़ुशी से मुस्कुराया तो पापा ने भी प्रत्युत्तर में मुस्कुराया था फिर कहा - 

बेटी, वास्तव में हमारा हृदय, छुई-मुई (लाजवंती) सा होता है। जिसे ईर्ष्या का स्पर्श क्षुब्ध करता है और प्रसन्नता की बयार खिला दिया करती है। 

यह हृदय हमारा अपना होता है। इसमें ईर्ष्या को स्थान देने से यह जलता है। जबकि दूसरों की ख़ुशी में भी, खुश होने से, यह प्रसन्नता से धड़कते हुए हमें स्वस्थ रखता है। हम यदि औरों की ख़ुशी में भी, खुश होना सीखें तो हमारे हृदय में, हमेशा प्रसन्नता का निवास होता है। 

मैंने पापा का संकेत समझा था। फिर पापा से, कुछ उपहार मँगवाये थे। जिन्हें मैंने, अपने से अच्छे अंक प्राप्त करने वाले सहपाठियों में, उनसे मिलकर, उन्हें भेंट किये थे। मैं, इसके पूर्व हमेशा प्रथम आई थी। मेरे ऐसे व्यवहार से, उन सहपाठियों की प्रसन्नता कई गुना बढ़ गई थी। 

यह देखकर मैं समझ सकी थी कि दूसरों की ख़ुशी से भी, हम अपनी ख़ुशी प्राप्त कर सकते हैं। 

ऐसे दिन और बीते थे। फिर मैं बारहवीं में आ गई थी। अब मैं स्कूल, स्कूटी से जाने लगी थी। तब मैंने अनुभव किया कि दो लड़के, पिछले कुछ दिनों से बाइक से, स्कूल आने एवं जाने, दोनों ही समय में, निरंतर कभी मुझसे आगे, कभी पीछे चलते हैं। 

इससे परेशानी अनुभव करते हुए मैंने यह बात पापा से बताई। तब उन्होंने पूछा - वे तुमसे कुछ कहते हैं? 

मैंने कहा कहते तो कुछ नहीं हैं। मुझे सुनाने के लिए ऊँची आवाज में, फ़िल्मी गाने गाते रहते हैं। कभी चिकनी चमेली, कभी शीला की जवानी, कभी मुन्नी बदनाम तो कभी जलेबी बाई आदि। 

पापा ने कहा आगे से तुम स्कूटी चलाते हुए (बिना मोबाइल के) दिखावे का इयरफोन एवं हेलमेट लगाया करो। संभव हो सके तो तुम, पढ़ने की लगन रखने वाली, कोई ऐसी फ्रेंड को साथ लेने लगो जो, आसपास से ही साईकिल आदि से स्कूल जाती हो। 

स्कूटी पर तुम्हें यूँ चलना है जैसे तुम, इस बात से अनभिज्ञ हो कि तुमने, उन लड़कों का रोज का पीछा किया जाना नोटिस कर रखा है। लड़के कुछ भी गाते या कहते रहें, तुम्हें, इयरफोन के बहाने अनसुना करना तथा उन्हें, कोई उत्तर नहीं देना है। 

ध्यान रखना है कि लड़कों से, तुम्हारा, गुस्से से कहना भी ठीक नहीं और सामान्य रूप से बात करना भी ठीक नहीं होगा। 

सामान्य ढंग से बात, उनको अगली हरकत को दुष्प्रेरित करेगी। जबकि तुम्हारा गुस्सा दिखाना, उन्हें भड़कायेगा। जिससे वे, अपना अपमान मानकर, बदले की भावना में, तुम्हें क्षति पहुंचाने के लिए कोई बुरी हरकत कर सकते हैं। 

इतने उपाय करने से कुछ दिनों में वे तुम्हारा पीछा छोड़ देंगे। तुम्हारा पीछा करना, उन्हें समय व्यर्थ करना लगने लगेगा। वे, उनकी बहकावे में आ सकने वाली अन्य लड़की की खोज पर निकल जायेंगे। 

मैंने यही किया था। पापा का अनुमान सही था। कोई 7-8 दिनों बाद से ही मुझे उनका दिखना बंद हो गया था। 

इतना पढ़ने के बाद फिर मैंने, ‘मेरी कहानी’ आगे पढ़नी स्थगित की थी। साथ ही मोबाइल रिकॉर्डिंग ऑफ कर दी थी।                


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