Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational

तस्वीर में भी सुरक्षित नहीं (4)

तस्वीर में भी सुरक्षित नहीं (4)

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तस्वीर में भी सुरक्षित नहीं (4)“मेरी कहानी” मैंने इतनी ही पढ़ कर, रिकॉर्डिंग स्टॉप की थी। फिर इस रिकार्डेड ऑडियो को स्वयं सुना था। मुझे अनुभव हुआ कि मेरा उच्चारण अत्यंत स्पष्ट था। मैंने श्रोताओं के दृष्‍टिकोण से, इसे परखा था। मैंने पाया कि इसमें विषय वस्तु मेरी उम्र की लड़कियों के भविष्य के लिए अत्यंत लाभकारी है। 

मुझे प्रतीत हुआ कि प्रस्तुति के लिए एक अच्छा ऑडियो निर्मित हो गया है। इससे अगर थोड़े भी किशोरवया श्रोताओं ने इसमें के, कुछ अंश भी ग्रहण किये तो पापा का लिखना अधिक सार्थक हो जाएगा। 

उस रात सोने के पूर्व, ‘मेरी कहानी’ का यह भाग मैंने, नेट पर अपलोड कर दिया। अब मुझे यह उत्सुकता थी कि पापा के, प्राचीन मानवीय मूल्यों पर आधारित “मेरी कहानी” एवं ‘मेरी आवाज़’ के सम्मिलन से बनी यह प्रस्तुति, आधुनिक हुई दुनिया में, अब भी पसंद की जाती है, क्या?

अब रात ज्यादा होने से थकान एवं आ रही उबासियों को देखते हुए मैंने, धैर्यपूर्वक समझते हुए पढ़ने की दृष्टि से, इसे पढ़ा जाना अगली रात्रि तक के लिए स्थगित किया था। माँ को जाकर, उनका मोबाइल लौटाया था। पापा से अपने ओंठों की आकर्षक स्मित के साथ, उनसे गले लगी थी। उन्होंने स्नेह से मेरे माथे पर चुम्मी ली थी। फिर मैं, सोने के लिए बिस्तर पर आ गई थी। 

अगले प्रातःकाल जागने पर, मेरी पहली जिज्ञासा, मेरे अपलोडेड ऑडियो को, क्या प्रतिसाद मिला है यह देखने की थी। तब मैंने, पापा की कभी कही गई, उस बात का स्मरण किया था कि 

“पौधे के लिए बीज बोने के बाद वह अंकुरित हुआ या नहीं, यह देखने के लिए तुरंत ही मिट्टी खोद कर नहीं देखी जानी चाहिए अन्यथा बीज अंकुरित नहीं होने पाता है।”ऐसे मैंने, अपनी अधीरता को नियंत्रित किया था। 

अपनी नित्य क्रियाओं से निवृत्त होकर एवं कलेवा ग्रहण कर मैं, गणित करने में लगी थी। दोपहर भोजन की टेबल पर मैंने सब को, रात्रि अपने ऑडियो वाली बात बताई थी। तब दादी की जिज्ञासा, मुझसे अधिक, उसे सुनने-जानने की हुई थी। मुझसे, उन्होंने नेट पर, उसे दिखाने के लिए कहा था। 

मम्मी का मोबाइल लेकर मैंने, परीक्षा परिणाम देखे जाने वाली चिंता से, उसकी लिंक क्लिक की थी। आगे जो था वह, हम सभी के सुखद आश्चर्य की बात थी। उस ऑडियो स्टोरी को 14 घंटे में ही 2308 व्यू मिल चुके थे। साथ ही उस पर, नौ सौ से ज्यादा रिएक्शन एवं कमेंट थे। 

स्पष्ट था कि हमारे प्राचीन आचार-विचार एवं मानवीय मूल्य की महत्ता, मानने वाले मानव, अभी भी अस्तित्व में थे। आनंद पूर्वक सबने पापा की ओर देखा था। पापा ने मुस्कान के साथ कूल रेस्पोंस दिया था और फिर जैसे स्वयं से कह रहे हों, बोले - 

“किसी प्रयास की आरंभिक सफलता में, अपना सिर चढ़ा लेना, प्रयास के सार्थक परिणाम में बाधक होता है।” 

फिर मुझे देखते हुए संबोधित किया -

तुम्हारा हर काम सृजन प्रेरक होता जा रहा है, यह अच्छी बात है। फिर भी तुम्हें समझना होगा कि तुम में निहित क्षमताओं की तुलना में, अब तक का तुम्हारा प्रदर्शन कम ही है। मैं मानता हूँ कि तुम अगर अभिमान, आडंबर एवं किसी की नकल से बच अपना मौलिक सृजन, समाज के सामने रखते रही तो तुम वह योगदान दे सकती हो जिसकी, आज भारत को आवश्यकता है। 

पथ भ्रमित हो रहे किशोरवय बच्चों की तुम प्रेरणा हो सकती है। समाज में सांस्कृतिक विषयों को सही दिशा देते हुए, तुम एक किशोर नेतृत्व हो सकती हो। 

इस बात पर दादी ने पापा से नाराजी दिखाते हुए कहा - तुम तो, बच्चों को, बच्चों के तरह, ख़ुशी में इतराने भी नहीं देते हो। तुम क्या चाहते हो कि ये तुम्हारी तरह परिपक्व एवं नीरस, इस बचपने में ही हो जायें? इससे मेरा घर, घर के स्थान पर, क्या गुरुकुल नहीं लगने लगेगा? इस बात पर सब खिलखिला कर हँसे थे। मेरी छोटी बहन भी अधिक कुछ नहीं समझते हुए भी हँस रही थी।

अब दादी ने मुझे, अपने पास खींचा, प्यार से गोद में बिठाया था और कहा - शाबाश बेटी! तुमने बहुत अच्छा काम किया है। “हम यदि गुणवान हों तब, अपने अच्छे उद्देश्य के लिए, स्वयं को प्रौन्नत किया जाना, हमारा समाज के साथ न्याय ही होता है।” कीप इट अप माय चाइल्ड!

इसके बाद दादी एवं मम्मी ‘मेरी कहानी’ के (स्वयं) दो व्यूअर बढ़ाने में व्यस्त हो गईं थी। मैं घरेलु कुछ कार्य करने के बाद, अपने अध्ययन में लग गई थी। 

मेरे पापा को हर बात का धैर्य रहता है। उन्हें उतावली नहीं थी कि कहानी पर, मेरी प्रतिक्रिया की जानकारी लें। मैंने भी कहानी पर अपने प्रश्न एवं विचार पापा से कहानी पूरी पढ़ने के बाद ही चर्चा में लेना उचित समझा था। रात के भोजन के बाद, आगे की कहानी पढ़ने के पूर्व मैंने, पिछले भाग के प्रदर्शन को जानने के लिए नेट पर दृष्टि डाली थी। अब व्यूअर सँख्या 5018 थी। इसे देख आज पढ़ने में, मेरा उत्साह और आत्मविश्वास कल से दुगुना हुआ था। 

मैंने ‘मेरी कहानी’ को आगे पढ़ने एवं उसकी ऑडियो बनाने का पिछली रात्रि वाला तरीका आज की रात भी अपनाया फिर मैंने पढ़ना शरू किया -

‘मेरी स्टोरी’ भाग-2 

अगले दिन मैं, पापा के पास जाकर बैठी थी। उन्होंने मुझे आया देख, अपना ऑफिस का, लैपटॉप पर किया जाने वाला वर्क सेव करते हुए, मुझसे पूछा - "बेटी, कल हमारे, उन आंटी से मिलने एवं उनकी बातों से, तुमने क्या समझा है?"

मैंने बताया - "पापा, कल के पूर्व मैं, कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि हमारे नगर में कोई मौहल्ला ऐसा भी होगा जहाँ घरों से, परिवार के, भावनात्मक अवयव लुप्त हो गए हैं। "

पापा ने मेरी बात से उत्साहित हो कहा -"अच्छा अवलोकन है तुम्हारा, थोड़ा विस्तार से कहो।"

इससे प्रसन्न होकर मैंने कहा - "यह कि कोई घर ऐसे, कैसे हो सकता है जिसमें, आपस में बिना रिश्ते के पुरुषों से धोखा खाईं हुईं, सिर्फ स्त्रियाँ रहती हों। जिनके लिए पुरुष का अर्थ, मात्र उनकी देह को भोगने वाला एक स्वार्थी प्राणी है।अर्थात पिता, भाई, पति या बेटा जैसा पुरुष, उनकी दुनिया में कोई है ही नहीं। फिर प्रश्नात्मक स्वर में आगे कहा - पापा क्या उन्हें लगता होगा कि वे, मनुष्य हैं?

आगे अपना अनुमान/उत्तर स्वयं बताते हुए बोलना जारी रखा - उन्हें तो लगता होगा कि वे मात्र जानवर हैं, जिनसे, अपनी प्रजाति के अन्य प्राणियों का सरोकार, सिर्फ उनके देहिक भूख की पूर्ति बस होता है। "

पापा ने तब कहा - "मुझे, तुम पर बेटी गर्व है कि इतनी छोटी सी उम्र में तुम, ऐसी स्पष्ट एवं सूक्ष्म दृष्टि से, किसी वस्तु को, उसकी संपूर्णता में देख सक रही हो। अन्यथा और कोई बच्चा तो क्या, कई बड़े व्यक्ति भी, हाथी को पैर, सूंड, कान या पुंछ मात्र निरूपित कर पाते हैं। "

मैं पापा की ओर देखते हुए ख़ुशी से मुस्कुराई थी। मगर पापा, अब गंभीर दिखाई पड़ रहे थे। उन्होंने कहा - 

"बेटी यह विडंबना है कि तुमने, उनके घर में जिस परिवारिक भावनात्मकता का ना होने का साक्षात्कार किया है, वही सिर्फ, आज के समाज की समस्या नहीं है। परोक्ष रूप से इन पारिवारिक भावनात्मकता की आवश्यक मात्रा, हम जैसे परिवारों में भी कम होने लगी है। उस बस्ती जैसे घर तो, देश के कुछ क्षेत्र विशेष में ही सीमित हैं। मगर ऐसे दूसरे प्रकार के घर परिवार, पूरे देश में व्यापक होते जा रहे हैं।" 

मेरी मुख मुद्रा, उनकी बातों को समझने के प्रयत्न वाली देख, उन्होंने आगे कहा - 

"चलो, इसे छोड़ो बेटी। यह समझ सकने के लिए तुम्हें और बड़ा होना होगा। अभी बताओ कि तुम्हारे पूछे शब्दों के अर्थ तुम जान सकी हो?'

मैंने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा - "हाँ पापा! कुछ समझ तो आया है।"

तब पापा से समझाते हुए कहा -" एक अवस्था आने पर, युवाओं में यौनेक्छा अनुभव होने लगती है। गाँव के धोखेबाज पुरुष साथियों ने तब, आंटी एवं कला की अनुभव की जा रही, ऐसी यौनेक्छा को ही, अपने कुत्सित प्रयासों से उकसाया था और अपनी काम पिपासा उनसे पूरी करते रहे थे। 

कला के प्रकरण में, बाद में उसे, उसके मास्टर ने, दिल्ली की होटलों में, उन लोगों को उपलब्ध कराया, जिनकी घर में पत्नी भी होती हैं। इस तरह के लोगों की अति कामुकता, उन्हें अन्य स्त्री से वासना पूर्ति के लिए संबंध को दुष्प्रेरित करती है। मास्टर ने कला की देह उन्हें पेश करके, धन कमाया। इन काम रोगियों ने कला की विवशता का लाभ लेकर उस पर दुष्कृत्य किया। अब अर्थ अधिक स्पष्ट हुआ, तुम्हें?"

इन शब्दों के अर्थ मुझे अब समझ आ गए थे। मगर पापा के बताने पर, मेरे मन में अन्य प्रश्न उभर आया, मैंने पूछा -" तो पापा, क्या यौनेक्छा बुरी बात होती है? "

पापा ने कहा - "नहीं बेटी, संतति क्रम जारी रखने के लिए यह, प्राणियों में सृष्टि प्रदत्त होती है। मानव समाज में, इसकी पूर्ति के लिए पति-पत्नी का रिश्ता बनाया गया है। "

मैंने फिर पूछा - "तो पापा विवाह नहीं होने तक. इसका क्या समाधान है? "

पापा ने कहा - "संयम एवं स्वयं को उन बातों से दूर रखना, जिनसे इसकी तीव्रता बढ़ती है। इसके लिए सभी को अपने अध्ययन, कला निखार, अपने गृह-परिवार दायित्व एवं व्यवसायिक कार्यों में अपने को व्यस्त रखना उचित होता है।" 

मैंने बात, समझ लिए जाने की तरह, अपना सिर हिलाया। तब पापा ने बताया - "हमारे समाज में, हमारे ही आसपास, ऐसे काम पिपासु लोगों का होना ही, परिवारों में बेटियों पर अतिरिक्त बंधन को विवश करता है। एक लड़की का भाई या पिता, इतने सारे कामवासना भूखे लोगों को, सुधार पाने में स्वयं को असमर्थ पाता है। तब वह, अपने घर के अनुशासन को ही बहन-बेटी की सुरक्षा एवं सम्मान के लिए उचित समझता है"।   

मेरे दिमाग में नया प्रश्न उठा, मैंने पूछा -" ये लोग खुद भी किसी परिवार के हिस्सा होंगे। क्या इन्हें बेटियों जैसे अनुशासन में नहीं रहना चाहिए?"

पापा ने बताया - "इस काल में, प्रसारण तंत्र पर, सिनेमा, टीवी एवं नेट के घटिया सामग्रियों का बोलबाला है। जो देश में ड्रग्स एवं नशीली वस्तुओं के साथ यौनेक्छा भड़काने वाले दृश्य/वीडियो प्रदर्शित करते हैं। जिनके दुष्प्रभाव में पुरुष-स्त्रियों के द्वारा, परिवार से मिले संस्कार एवं अनुशासन भुला दिए जाते हैं। "

मैंने पूछा -" फिर तो पापा हमें इन प्रसारण माध्यमों से दूर रहना चाहिए, है ना? " 

  (क्रमशः)


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