सुरभि रमन शर्मा

Tragedy

4.7  

सुरभि रमन शर्मा

Tragedy

तर्पण से पहले समर्पण

तर्पण से पहले समर्पण

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आज जाने की जिद न करो,

यूँ ही पहलू में बैठे रहो

आज जाने की जिद न करो।


अपने पोते के मोबाइल पर ये गाना सुनते हुए अरविंद के चेहरे पर धीरे - धीरे मुस्कुराहट फैलने लगी। पलंग के नीचे से उन्होंने अपने जमाने का एक बक्सा निकाला और उसे खोल कुछ सूखे हुए फ़ूलों पर यूँ हाथ फेरने लगे जैसे कुछ याद करने की कोशिश में हों।पोते राघव की नजर पड़ी तो वो कौतुहलवश वहाँ पहुँच गया, 18 वर्ष की लड़कपन उम्र, उन सूखे फ़ूलों को देख पूछ पड़ा।


"दादाजी, ये मुरझाए फूल आपने बक्से में क्यों रखे हैं?"


दादाजी बोले "बेटा ये सिर्फ फूल नहीं किसी की यादें हैं।"


"किसकी यादें दादाजी?"


"उसी की जिन्हें पिछले 10 वर्षों से भूलना चाह कर भी भूल नहीं पा रहा।"


आँखे गीली होने लगी थी तो राघव ने आगे कुछ पूछना उचित नहीं समझा और मुड़ कर जाने लगा कि दादाजी ने आवाज़ दी।


"राघव आ बेटा, यहाँ बैठ थोड़ी देर आज तुझे एक किस्सा सुनाता हूँ।"


हरिहरपुर एक गाँव था। सात भाइयों का परिवार, खेती बाड़ी अच्छी थी।सब कुछ खुशहाल था।उस समय प्रेम विवाह तो दूर की बात घरवालों की मरज़ी से भी शादी करने के पहले लड़का - लड़की एक दूसरे को देख नहीं सकते थे।आजकल के ज़माने की तरह प्री - वेडिंग शूट तो बहुत दूर की कौड़ी थी।पर उस समय में भी उस घर के सबसे छोटे बेटे ने सबके खिलाफ जाकर अपनी मर्जी से शादी की।परिणाम घर निकाला।पर जीवनसंगिनी के साथ उसने दिन - रात मेहनत करके अपने आप को इज़्ज़त से कमाने खाने लायक स्थापित कर लिया। फिर घर में गूंजी उसके खुशियों की किलकारी उसके बेटे अमन के रूप में।कुछ सालों तक ऐसा लगा कि अगर धरती पर स्वर्ग कहीं है तो वो बस इसी घर में, पर समय एक सा कभी कहाँ रहता है।


गाँव पर अब उस लड़के के अम्मा - बाबूजी नहीं रहे थे। जब ये उनके अंतिम संस्कार में पहुँचे तो किसी ने भी इनका इंतजार किए बिना सारे क्रिया - कर्म निपटा दिए थे, तो जमीन जायदाद में हिस्सेदारी तो बहुत दूर की बात।इन्हें बेहद तकलीफ हुई, गांव से वापस लौटे तो एक जिद के साथ कि अब बहुत बड़ा आदमी बनना है। न दिन को दिन समझा न रात को रात मेहनत रंग ला रही थी।


फ्लैट फिर बंगला, गाड़ी, नौकर - चाकर सब इनके बाएँ हाथ की गिनती हो चले थे, सारी सुख - सुविधा ऐशो - आराम थे पर कुछ पाने के लिए खोना पड़ता है ये उन्हें याद नही रहा था। बेटे का बचपन वो जी नहीं पाए, जिसके लिए अपने माँ - पिता के खिलाफ गए वो बेल प्रेमाजल के बिना अब धीरे धीरे सूख रही थी।पर कह्ते हैं न नशा बहुत बुरी चीज़ होती है। वो भी पैसों का नशा.... हा हा हा।व्यंग्यातमक हँसी हँस कर फिर उन्होंने आगे कहना शुरू किया।


बेटा बड़ा हो गया उनका शादी कर दी गयी, एक साल के अंदर घर में किलकारी गूँज गयी, अब वो अपने बेटे के ऊपर अपनी जिम्मेदारियों का बोझ डाल फिर से अपने पोते के साथ जिंदगी जीना चाहते थे।अपनी बीवी के बालों में फूल लगाना चाहते थे। बूढे दिल ने फिर से हसीन- तरीन सपने देखने शुरू कर दिए थे।कि एक रात वो पूरा परिवार पार्टी में गए पर लौटे सिर्फ अकेले अपने पोते के साथ।गाड़ी का एक्सीडेंट हुआ और बेटा, बहू और पत्नी सब ने नाराज होकर मुँह मोड़ लिया।तब से बेटा हर पल यही सोचता रहता हूँ कि हर साल मैं पितृपक्ष में परलोक गए जिन रिश्तों की शांति के लिए तर्पण करता हूँ। काश समय पर उनकी कदर करता और पैसों के आगे न झुककर रिश्तों के आगे समर्पण करता तो शायद....।


और ये सूखे फूल तुम्हारी दादी के गजरे के हैं और ये गाना हमारी शादी के शुरुआती दिनों में अक्सर वो गुनगुनाया करती थी...... कह्ते कहते रो पड़े।राघव ने आगे बढ़कर उन्हें अपने बाहों में ले सीने से लगा लिया और मन ही मन निश्चय करने लगा कि अब हर दिन कुछ वक्त मैं जरूर अपने दादाजी के साथ बिताऊंगा।


"क्योंकि तर्पण से ज्यादा जरूरी रिश्तों के प्रति समर्पण है।"



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