तलाक की त्रासदी..
तलाक की त्रासदी..


"देखो, इसके पति ने इसे तलाक दें दिया हैं, कितना बन -ठन कर जा रही हैं।"
"हाँ यहीं लक्षण होंगे, तभी तो छोड़ दिया।"
स्नेहा का दिल किया, इन पड़ोसियों के पास जाकर बोले, तलाक उसने नहीं, मैंने दिया हैं। पर किस -किस को सफाई देगी। तलाकशुदा, होने का दर्द सिर्फ वही समझ सकता।जिसने वो पीड़ा झेली हो । एक स्त्री का तलाकशुदा होना, उसके चरित्र का अच्छे -बुरे का आंकलन बन जाता हैं।जरा सा ढग से तैयार हो लोग तो, लोग चरित्र ही ख़राब बता देंगे।
रिस्ट वाच देखा, नौ बजने वाले थे, उफ़ कहाँ इन बातों के पचड़े में पड़ गईं। आज फिर देर हो गईं। स्कूटी की स्पीड तेज कर दी।ऑफिस पहुँच कर, अपनी सीट पर बैठ, एक गिलास पानी गटागट पी गईं।
तभी रामू काका आये, "साहब ने आपको याद किया।"
"आतीं हूँ "कह स्नेहा, बुझे मन से बॉस के केबिन में पहुंच गईं। माथे का पसीना पोंछते, दरवाजा धकेल कर अंदर गईं। अधेड़वस्था के मनीष जी ने दाँत दिखाते हुए,"आइये -आइये स्नेहा जी, आज तो आपको फिर देर हो गईं।"
"जी सर, वो स्कूटी स्टार्ट नहीं हो रही थी, तो थोड़ी देर हो गईं।"
"अरे आप कहाँ स्कूटी के चक्कर में पड़ी हैं, मैं तो आपको कब से कह रहा था, मैं आपको पिक कर लिया करूँगा।"
"हद हैं "मेरे बराबर, इसकी बेटी हैं, पर इसे मुझ पर आँख गड़ाते शर्म नहीं आतीं, मन ही मन उबलते हुए स्नेहा ने मीठी आवाज में कहा -"अरे नहीं सर, आप रोज -रोज कहाँ परेशान होंगे,।
"इसमें परेशानी की क्या बात स्नेहा जी, ये तो हमारा सौभाग्य हैं।" "हम तो आप की सेवा में हमेशा हाजिर हैं।" किसी तरह जान छुड़ा कर स्नेह उनके कमरे से बाहर निकली। अपनी सीट पर आ कर राहत की सांस ली।
तलाकशुदा स्त्री, सब की संपत्ति बन जाती हैं। जिसे देखो वही, उसपर अपना हक़ जताने लगता हैं। स्नेह उदास हो गईं। क्या, तलाक का निर्णय गलत था। क्या उसे समीर की प्रताड़ना अनदेखा करना चाहिए था। उफ़ उस पीड़ा को, कैसे दिखाये, जो समीर उसको देता था। सामने वाले के सामने इतने प्यार से हिदायतें देता था। कि लोग उसकी किस्मत पर रश्क करते थे। वहीं अकेले जरा सी गलती पर वो थप्पड़ मारने या सिगरेट से जलाने से नहीं चूकता था। हाथ में पड़े सिगरेट के दाग छुपाने के लिये वो पूरे बाजु वाले कपड़े पहनती थी। ये कैसा प्यार का इजहार था।
माँ -पापा को बता नहीं पाई, ना उन जख्मों को दिखा पाई। क्योंकि उनकी आँखों पर तो समीर ने, जादुई पट्टी बांध रखी थी। उसके छोटे भाई -बहनों पर, समीर दिल खोल कर पैसे लुटाते थे। मायके में, उस पर बिछ -बिछ जाने वाले समीर के चेहरे का मुल्लमा वो उतार नहीं पाती थी। जानती थी कोई यकीन नहीं करेगा। समीर उसे ही बड़े प्यार से गलत करार दें देते थे।
दिसंबर की एक सर्द रात, समीर देर से आये और डोरबेल बजा रहे थे, रजाई में घुसी, स्नेहा को दरवाजा खोलने में विलम्ब हो गया। दरवाजा खोलते ही, उसके हाथों को मरोड़ते हुये, समीर ने चार -पांच जगह उसके हथेलियों पर जलती सिगरेट छुआते रहे, वो दर्द से तड़प उठी। नशे में डूबे समीर, की हँसी ने उसे झिकझोड़ दिया। ये इंसान हैं या शैतान...। जाने कहाँ से ताकत आ गईं, समीर को परे धकेल कर, घर के कपड़ों में बाहर निकल आई। जब तक सह पाई, सहने की कोशिश की, पर जब सहने की अति हो गईं तो छोड़ आई। वो घर...मायके नहीं जा सकती थी, सो अपनी सहेली इरा के घर जा रात गुजारा। उसी की मदद से ऑफिस में जॉब मिला, फिर स्नेहा ने अलग घर ले लिया।
समीर ने ढूंढ कर उसे बहुत मनाने की कोशिश की, यहाँ तक उसके माँ -पापा को साथ ले कर आये। उनको ये यकीन दिलाया कि स्नेहा की दिमागी हालत ठीक नहीं हैं। इसलिये वो घर छोड़ आई हैं।
"मैं फिर भी स्नेहा को अपना लूंगा, क्योंकि मैं प्यार करता हूँ इससे"। समीर ने दर्द भरे स्वर में कहा।
माँ के बहुत समझाने पर, उसने अपने हाथों पर जलने के निशान दिखाये। उसके अपने माँ -पापा ने उसकी बात पर विश्वास ना कर समीर की तरफदारी करने लगे। वो समझ गईं। उसके माता -पिता पर समीर का जादू सर चढ़ कर बोल रहा।
तलाक के लिये अर्जी, स्नेहा ने ही दी थी। एक साल लगा तलाक मिलने में। तलाक मिलते ही उसने, अपने आस -पास के लोगों को तेजी से बदलते देखा। हर इंसान, उसे उपदेश देने का हक़ रखने लगा। खुद भले ही कैसा हो, पर उसे सुधरने की राय देने लगा। तलाकशुदा हो कर, उसने तलाक की पीड़ा समझी। जो पहले दोस्त थे, उनको लगता कहीं उनके पति पर ना डोरे डाल दें। वे दूर होने लगे। एक नारी ही दूसरी नारी की पीड़ा नहीं समझ पाती। स्नेहा एक बार फिर अवसाद में डूबने लगी।
स्नेहा, सर झटक कर पुरानी यादों से बाहर आ गईं। हर समय डर कर या उदास हो कर नहीं जीया जा सकता हैं।
बॉस के कमरे से बाहर आ सीट पर बैठी तो उसके उदास, परेशान चेहरे को देख, बगल में बैठी, लाजो जी ने, "स्नेहा, गलत बातों का जवाब हिम्मत से देना चाहिए। तुम को उदास और परेशान नहीं होना चाहिए। याद रखो "अपनी खुशियों की चाभी को खुद ही ढूँढना पड़ता हैं "..। हिम्मत रखो, सब ठीक हो जाएगा।
स्नेहा को लाजो जी के कहने का मर्म समझ में आ गया। अगले दिन जैसे ही स्कूटी निकाली, फिर वही ताने -उलाहने, व्यंगात्मक हंसीं का दौर चालू हुआ। स्नेहा स्कूटी रोक कर महिला मण्डल के पास गईं..। "हर तलाक, सिर्फ पति ही नहीं देता, बल्कि पत्नी भी देतीं हैं। मैंने खुद पति की प्रताड़ना से परेशान होकर, उनको तलाक दिया हैं। तलाक देने का ये मतलब नहीं की, मैं चरित्र हीन हो गईं या, सबके लिये सहज सुलभ हो गई। मुझे भी सामान्य जीवन जीने का उतना हक़ हैं, जितना आपको हैं। और कम से कम एक स्त्री होने के नाते दूसरी स्त्री को सहयोग दें, मैंने तो हिम्मत की, आप लोग अपना देखें "..। कह स्कूटी की चाभी घुमाते स्कूटी स्टार्ट कर चल दी। पीछे छोड़ गईं, एक सच की स्तब्धता....। उन जुबानों पर ताला लग गया। जो कल स्नेहा को चरित्रहीन कह रहे थे।
ऑफिस में भी समीर जी को मुंह तोड़ जवाब दिया। हिम्मत को साथ रखे तो जिंदगी आसान हो जाती हैं। इसी हिम्मत की वजह से स्नेहा, सामान्य हो पाई।
और एक दिन, ऑफिस के ही कुलीग, अशोक ने उसके व्यक्तित्व से प्रभावित हो, जीवनसाथी बनने की इच्छा व्यक्त की। पर स्नेहा ने मना कर दिया। दूध का जला छाछ भी फूँक -फूँक कर पीता हैं।" स्नेहा अब अकेले ही अपनी जिंदगी से खुश थी।
पर लगन सच्ची हो तो राह जरूर मिलती हैं। कुछ समय बाद अशोक, स्नेहा के दिल में उमंग जगाने में कामयाब रहे। लाजो जी की बात याद आ गईं "हमें अपनी खुशियों की चाभी खुद ढूँढनी पड़ती हैं।" एक बार फिर हिम्मत कर स्नेहा, जिंदगी की जंग में कूद पड़ी। पर इस बार मीत मन का था और सही भी था।