वो आजाद हो गई
वो आजाद हो गई
लिखने का शौक उसे बचपन से था कविताएं लिखना, अपने आस -पास की घटनाओ को क्रमबद्ध अपनी डायरी में लिख लेना, उसकी आदत में शामिल था।। बहुत अच्छा लिखती थी पर आज पति के हाथ प्रताड़ित होने के बाद समझ में आया पत्नी बनते ही औरत कभी आजाद नहीं हो पाती । उसकी अच्छाई ही उसकी दुश्मन बन जाती है । मन के बंधन में वो इतनी गहराई से जुड़ जाती की सही गलत कुछ सोच नहीं पाती।
इस कोने में बैठ मै बहुत कुछ लिखती और पढ़ती थी, पर आज जो हुआ। उसने मुझे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया।। मैंने तो पति को गोष्ठी का निमंत्रण पत्र ही दिखाया था। ना जाने क्यों आग बबूला हो उठे। हाथ पकड़ कर घर के बाहर खड़ा कर दिया जाओ, जहाँ जाना है पर इस घर में कविता- गोष्ठी नहीं चलेगी। हतप्रभ मै कुछ बोल नहीं पाई।पथराई आँखों से मै वहीं सीढ़ी पर बैठ गई। जहाँ उसकी लिखी असंख्य कहानियाँ और कविता टुकड़ों में पड़े अपनी दर्दनाक कहानी कह रहे थे।। माना पति का गुस्सा तेज है, पर ये हरकत की उम्मीद भी नहीं थी,। पंद्रह साल के वैवाहिक जीवन की डोर इतनी कमजोर थी, आज जाना। गुस्सा शांत होने पर पति माफी भी मांग लेते थे, पर उनकी ये प्रताड़ना कुछ ज्यादा ही दुःखद थी जो सीधा मन में घाव कर गई। आजादी के इस दौर में भी महिलाओं की ये हालत है।
कुछ गहरी सोच के साथ मै उठ खड़ी हुई। अंदर जा अपने कपड़े समेटे। तभी पति की आवाज आई अभी तक चाय नहीं बनाई तुमने । सिर्फ नजर उठा कर उन्हे देखा और बोली तुम्हारी रिपोर्ट मैंने दस साल पहले ही देख लिया था,पर मैंने सोचा कोई बात नहीं। तुम्हारे आरोपों ने मुझे निर्दोष होते हुए भी हमेशा दोषी साबित किया । तुम मर्द हो तो अपनी कमी को
कैसे मानते ।। मै चुप थी क्योंकि हम पति पत्नी, एक दूसरे के पूरक माने जाते है , मै तो हँस कर ये दुख भी झेल रही थी । पर आज तुम ने अपनी हद पार कर दी।एक औरत के मर्म पर जब चोट लगती है तो सब ख़त्म हो जाता है । अपनी अटैची उठा मै घर के बाहर निकल गई।।। मै चल पड़ी एक नई राह पर, जहाँ पग -पग पर कांटे तो होंगे पर फूल भी होंगे।संघर्ष तो होगा पर शांति तो होंगी थोड़ी देर तो हुई है पर बहुत देर नहीं हुई।
आपका गुस्सा तेज है तो पत्नी को सहन करना है क्योंकि आप पुरुष है वो महिला है। दुनिया आगे चली गई और हम सदियों पुरानी सोच में बंधे है। स्त्री - पुरुष के अधिकार बराबर है। स्त्री बहुत कुछ बर्दाश्त करती है अपने बच्चे के लिए, अपना घर बचाने के लिए। पर उसका ये मतलब नहीं की उसमें आत्मसम्मान नहीं है।
पंद्रह सालों से वो झेल रही थी बाँझ के नाम का लेबल।आज वो सब कुछ छोड़ चली वो बाँझ नहीं है।। वो सक्षम है खुद अपना रास्ता बनाना जानती है। पीछे पति की आवाज आ रही थी रुक जाओ सुनैना।। पर नहीं। अब नहीं रुकेगी वो । अपनी कविता, कहानियों के संग्रह को खो, वो दृढ़ संकल्प है ना लौटने के लिए। तोड़ दिये उसने वो बंधन जो उसके पैरों में बेड़ियाँ डाल रखें थे। जो इतने समय से उसे सम्मान नहीं दे सका तो अब क्या देगा। सामाजिक बंधन तो टूटा साथ ही मन का बंधन भी टूट गया। रिश्तों की कश्मकश से वो आजाद हो गई।
अब अपनी खुशी जियेगी वो।लेख तो और लिख लेगी क्योंकि प्रतिभा तो नहीं ख़त्म हुई।सहेली की मदद से उसे एक प्रिंटिंग प्रेस में अनुवादक की नौकरी मिल गई। एक बच्ची को गोद ले सुनैना ने नई जिंदगी शुरू कर दी। पीछे ना देखने के लिए।।