थोड़ा सा इतवार ...
थोड़ा सा इतवार ...
कानों में पड़ती अलार्म की आवाज़ को मुँह चिढ़ा कर स्नेहा ने कंबल कुछ और ऊपर सरका लिया। रात ही अलार्म ऑफ कर देती तो अच्छा था, अब हाय री बरसों की आदत !! नींद के पखेरू पलकों से फुर्र हो चले । मगर आज तो दिन कंबल से दोस्ती निभाने का था तो कुछ और देर सुस्ताती रही।
तभी किवाड़ पर आहट हुई और स्नेहा ने झट से आँखें मूँद ली। शुभम चाय का प्याला लिए आया था। आते ही उसने खिड़की से पर्दा हटाया और शरारत से गुनगुनाते हुए स्नेहा को उठाने लगा। यह शुभम का हर इतवार का अंदाज़ था जो स्नेहा की मुस्कुराहट को कुछ और गहरा कर देता था और स्नेहा इस एहसास को कभी नहीं गंवाती थी। चाय मेज़ पर रख, फिर से स्नेहा को उठाकर शुभम चल दिया रसोई की ओर, आखिर बेगम के लिए नाश्ता भी आज वही बनाएगा। शादी के लगभग ग्यारह साल होने आए थे और शुभम ने यथा संभव ये इतवार वाला नियम बनाए रखा था।
स्नेहा मेज़ पर आ बैठी, खिड़की से देखा बाहर हल्की बारिश की फुहार थी । वह जान गई कि आज तो खूब फर्माइश होने वाली है,पकौड़े कचौरी या फिर समोसे। आज तो बच्चों का प्रोजेक्ट भी पूरा करवाना है। और शुभम... बीते पूरे हफ्ते सिर दर्द की शिकायत थी उसे। आज अच्छे से गुनगुने तेल की मालिश कर देगी उसके सिर में।
बस यही सब सोचते सोचते चाय का प्याला खत्म और स्नेहा का इतवार भी। फिर चल पड़ी वो शुभम और बच्चों को उनके हिस्से का इतवार देने और बस यही सोचने लगी कि
कुछ देर को ही सही, मगर हर बार आता है...
हाँ, मेरे हिस्से भी " थोड़ा सा इतवार "आता है।