ब्राउन स्वेटर
ब्राउन स्वेटर
ब्राउन स्वेटर .... हाँ वही पुराना, फीके रंगों वाला, दाग़ लगा, ब्राउन स्वेटर।
गाँव, कस्बों से निकल मुंबई महानगर के महासमर में जंग लड़ते हर युवा के सपने जितने बड़े होते हैं उससे दूना बड़ा होता है संघर्ष पथ। चार सालों की साधारण नौकरी के बाद बामुश्किल एक श्रेष्ठ पद के साक्षात्कार का अवसर मिल पाया था दीक्षित जी को। उस पर भी मुंबई की बेमौसम बारिश और लोकल की भीड़ से जूझते हुए दफ्तर पहुँचे। खुद से ही बुदबुदाते हुए साक्षात्कार के लिए कमरे में जैसे ही घुसने को हुए तो बाहर निकलते चपरासी से टकरा गए और चपरासी के हाथ का चाय का प्याला दीक्षित जी के " ब्राउन स्वेटर " पर आ गिरा।
अब आप सोचेंगे आगे क्या हुआ। तो हुआ कुछ यूं, कि अपनी सारी झेंप छुपाते हुए, आज तक पढ़े हर आत्म विश्वास के पाठ को याद करते हुए और अब तक देखे हर फिल्मी हीरो की भांति दीक्षित जी जैसे तैसे साक्षात्कार दे आए। पूरे पंद्रह दिन तक अलमारी में धुल कर सजा हुआ वह ब्राउन स्वेटर दीक्षित जी को काटने को दौड़ता रहा मगर ठीक सोलहवें दिन शुभ समाचार आ ही गया। जी नौकरी का!! आज भी याद है उन्हें कि नए दफ्तर में पहले दिन वही ब्राउन स्वेटर पहन कर गए थे।
चाय का दाग भी पूरी तरह भले ही ना गया पर जाने क्यूँ एक लगाव सा हो गया दीक्षित जी को उस ब्राउन स्वेटर से। उसे पहनकर उन्हें लगता कि बस, सब ठीक ही होगा। संपन्नता भी बढ़ी, नए फैशन के नए स्वेटर भी आए और ब्राउन स्वेटर भी फीका पड़ गया मगर हर जाड़े की शुरुआत में उसे एक बार पहनकर दीक्षित जी को लगता जैसे फिर एक शुभ शुरुआत हो गई हो।
जाने इस बार श्रीमती जी ने कहाँ रख छोड़ा। "पूछ लूँ ज़रा मिला कि नहीं" , नाराज़ तो ज़रूर होंगी हर बार की तरह पर अब उन्हें क्या कहूँ कि ये दाग लगा पुराना, ब्राउन स्वेटर, मेरे लिए तो समझो " नजरबट्टू " ही है।