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Chitra Chellani

Classics

3.4  

Chitra Chellani

Classics

शून्य

शून्य

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तुमसे परिणय में बंधकर भी परिणीता कब बन पायी थी मैं ? चकाचौंध के अनुरागी तुम और सादगी की मूर्तरूप मैं। इक दूजे के अस्तित्व में उपस्थित ही कब थे हम?आज ढलते जीवन में साथ हिंडोले लेते इस झूले को देखकर यह सोचती हूँ कि अंततः तुम्हें गंवाकर भी क्या गंवाया मैंने ? उत्तर तो वही " शून्य " है जो हमेशा हमारे बीच पसरा रहा। 


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