प्रेम की अभिव्यक्ति
प्रेम की अभिव्यक्ति
"देखो मिलिंद, मैं कहे देती हूँ, आज तो तुम्हें मुझ पर कविता लिखनी ही होगी । " गुंचा जब भी नाराज़ होती , बस यही ज़िद पकड़ लेती।
"कविता और मैं? कहो तो पहाड़ा लिख दूँ। " मिलिंद हँस कर कहता और गुंचा को मना ही लेता।
शब्द और रस से ओतप्रोत, गुंचा और अंकों में डूबा गणित का प्रोफेसर, मिलिंद। देखो तो कोई मेल नहीं और जानो तो इक दूजे से जुदा ही नहीं, जैसे विपरीत आकर्षण का नियम।
आज गुंचा को उसकी कविताओं के लिए सम्मानित किया जा रहा था और मिलिंद उपहार स्वरूप गुंचा की स्पृहा पूर्ण करना चाहता था। जोड़ तोड़ कर मिलिंद ने कविता लिख दी ,पर जब गुंचा ने सुनी तो हँसते हँसते जैसे उसके प्राण ही छूटने लगे। फिर बड़े प्यार से मिलिंद का हाथ अपने हाथों में लेकर बोली ..." कहो मिलिंद, कभी देखा है मेघों ने अवनी पर या नदिया ने सागर पर , कविता कही हो? आखिर प्रेम कब शब्दों पर आश्रित हुआ है? प्रेम तो स्नेहिल स्पर्श और हृदय के स्पन्दन में रचा बसा है। और जो मुझ पर विश्वास ना हो तो देखो ज़रा झरोखे से, आम की डाली पर बैठे इस प्रेम मग्न जोड़े को और कहो क्या किसी कविता की कमी है वहाँ ?"