Mohanjeet Kukreja

Tragedy

4.9  

Mohanjeet Kukreja

Tragedy

स्टैग पार्टी

स्टैग पार्टी

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१२ जनवरी १९९५, बृहस्पतिवार: 


दूसरी तरफ़ बजती घंटी की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी। मैं एक एसo टीo डीo बूथ पर, फ़ोन उठाए जाने के इंतज़ार में, सिक्का हाथ में थामे तैयार खड़ा था। शादी की ख़ुशी से कहीं ज़्यादा मैं उस उपलक्ष्य में आयोजित की जा रही स्टैग पार्टी को ले कर उत्तेजित था, जो शादी से दो दिन पहले के लिए हुई थी, यानि कि २० जनवरी को - आज से ठीक आठ दिन बाद। २२ जनवरी को शादी का मुहूर्त निकला था। छुट्टी मैंने अभी ६ दिन के बाद से ली हुई थी।

शादी मेरी अपनी थी।

उन दिनों मैं अपने सभी दोस्तों के नाम और फ़ोन नंबरों की एक बड़ी सी लिस्ट जेब में लेकर घूमता था। मोबाइल फ़ोन तब किसी के पास होता नहीं था। अपनी फ़ील्ड-जॉब के दौरान, जब भी मुझे मौक़ा मिलता मैं किसी न किसी को फ़ोन करके उस ख़ास पार्टी का न्योता दे देता था। शादी के कार्ड तो पहले ही भेजे जा चुके थे सबको। ऐसे ख़ास तौर पर फ़ोन करके दिए गए पर्सनल इनविटेशन से एक तो दोस्तों से बात हो जाती थी और दूसरा उनकी हाज़री सुनिश्चित हो जाती थी। ऐसा करते-करते ज़्यादातर लोगों से मेरी बात हो चुकी थी, बस कुछेक ही और बचे थे।

यह एक ऐसा ही ख़ास दोस्त था, जिसके संपर्क में मैं अपनी पिछली मल्टीनेशनल कंपनी में आया था। वो जर्मनी की एक मशहूर कंपनी थी, जिस के सेल्स टूर में डायग्नोस्टिक उपकरणों और मशीनों के डेमो के लिए अक्सर वही मेरे साथ जाता था, कंपनी में सेल्स इंजीनियर की हैसियत से। इकट्ठे घूमते थे, एक ही होटल में रुकते थे, खाते-पीते भी साथ में, थोड़ी-बहुत दोस्ती तो होनी ही थी।  

अपने व्यवसाय की तकनीकी जानकारी में निपुण, एक कुशल सेल्स-मैन, किसी से भी काम निकलवाना तो कोई उससे सीखे! बिना किसी रिज़र्वेशन के, अचानक और अक्सर लगते हमारे बिज़नेस ट्रिप के दौरान ट्रेन में एडजस्ट होना, और कहीं भी बाहर या दूसरे शहर में जाकर सबसे दोस्ती कर लेना। इन सब से बढ़ कर, दिल का एक साफ़, सच्चा इंसान। स्मार्ट और हैंडसम तो वह था ही, उसके आकर्षक व्यक्तित्व को और चार चाँद लगा देती थी उसकी बुलेट ३५० मोटरसाइकिल, जिसे लेकर जब वह दिल्ली की सड़कों पर निकलता तो उसके साथ बैठ कर घूमने के लिए लड़कियाँ हमेशा मरी जाती थीं। 

अपनी निजी ज़िन्दगी में भी मैंने आजतक उसके जैसा ज़िंदा-दिल और हंसमुख शख़्स कोई और नहीं देखा, पार्टियों की तो वह जैसे जान हुआ करता था! 

अपनी नई कम्पनी में आने के बाद मैं कुछ ऐसा व्यस्त हो गया कि एक अर्से से हमारी कोई मुलाक़ात नहीं हुई। यहाँ तक कि बात भी नहीं हुई।

उससे आज एक ख़ुशी की ख़बर साझा करके निकट भविष्य में मिलने की उम्मीद में मैं बहुत ख़ुश था। कुछ गुनगुनाते हुए, रिसीवर के माउथपीस पर उँगलियों की थाप से तबला सा बजाते हुए मैं बड़ी बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था। अगर दिल्ली में हो तो शाम को इस वक़्त तक वह हर हाल में घर पर ही होता था।


अचानक दूसरी तरफ़ से हेल्लो की आवाज़ सुनाई दी, मैंने झट से हाथ में थमा सिक्का मशीन में डाल दिया और बोला -

‘ओए भाप्पे! कैसा है?’

‘हेल्लो! कौन बोल रहा है?’ उधर से पूछा गया।

‘अरे पहचाना नहीं, यार?!’

‘किस से बात करनी है आपको?’

‘मयंक से...’ पहली बार मुझे लगा कि लाइन पर कोई और था।

‘किस से?’ थोड़े हैरानी भरे-स्वर में फिर पूछा गया।

‘मयंक, यह मयंक अरोड़ा का नंबर है न?’ मैं जल्दी से बोला।

दूसरे सिरे पर काफ़ी देर पूरी तरह से ख़ामोशी छाई रही। मुझे लगा शायद रॉंग नंबर लग गया था।

‘हेल्लो, हेल्लो!’ मैंने यह तसल्ली भी कर ली कि लाइन कहीं कट ना गई हो।

‘आप कौन?’ फिर सवाल हुआ।

‘मैं आकाश बोल रहा हूँ...’

‘कौन आकाश? आकाश खुराना?’

‘जी, वही!’

‘तुम्हारा तो शादी का कार्ड भी पहुँचा हुआ है, मुबारक हो!’

‘शुक्रिया!’

‘मयंक को कैसे जानते हो?’ फिर दूसरे छोर से सुनाई दिया।

‘मेरा दोस्त है मयंक! वैसे आप कौन बोल रहे हैं?’ मैंने पूछ ही लिया।

‘मैं मयंक का पिता हूँ - प्रोफ़ेसर शिव चरण अरोड़ा।’

‘ओह, अच्छा, नमस्ते अंकल!’

‘नमस्ते बेटा! कब से नहीं मिले मयंक से?’

‘वो क्या है न अंकल, मैंने जॉब चेंज कर ली थी, फिर दो साल तक मेरी पोस्टिंग बैंगलोर में थी। तीन महीने पहले ही ट्रांसफ़र होकर दिल्ली लौटा हूँ, काफ़ी समय से हमारी बात नहीं हो पाई।’

‘आई सी...’

‘अंकल, मयंक को अपनी शादी की ख़ुश-ख़बरी सुनानी थी, घर पर नहीं है क्या?’

‘अपने मम्मी-डैडी को भी बधाई देना हमारी तरफ़ से...’

‘ज़रूर अंकल! मयंक से बात करवा दीजिए, उसको शादी से पहले पार्टी में भी आना है!’

‘वह तो नहीं आ पाएगा।’

‘क्यों, किसी टूर पे बाहर गया है क्या? कब तक वापिस आएगा?’

‘नहीं बेटा!’

‘तो?! उसको आना ही होगा मेरी पार्टी में, उसके बिना क्या पार्टी जमेगी अंकल!’

‘सही है, लेकिन मयंक नहीं आ पाएगा, बेटा,’ इस बार आवाज़ थोड़ी विषादपूर्ण लगी मुझे।

‘पर क्यों अंकल?’ अब मेरी आवाज़ में थोड़ा हैरानी और झुंझलाहट का पुट था।

‘लगता है तुम्हें ख़बर मिली नहीं, बेटा...'

'कैसी ख़बर?' मैंने आशंकित होकर पूछा।

'मयंक नहीं रहा अब।’

‘क्या? यह क्या कह रहे हैं अंकल आप?' मैंने रूंधे गले से पूछा।

'हाँ बेटा, ही इज़ नो मोर।'  

'कैसे? कब हुआ यह?’ मुझे अपने कानों पर अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था।

‘तक़रीबन डेढ़ साल पहले, अपनी बाइक पर एक रोड-एक्सीडेंट में...'


मेरी आँखों से आँसू बहने लगे थे।

हाथ से छूटा रिसीवर तार के साथ लटक कर झूल रहा था!


*****




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