मोहनजीत कुकरेजा (eMKay)

Comedy Fantasy Others

4.0  

मोहनजीत कुकरेजा (eMKay)

Comedy Fantasy Others

“प्रबोधन”

“प्रबोधन”

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       इस भौतिकवादी दुनिया में, जहाँ सब कुछ पैसे के इर्द-गिर्द ही घूमता लगता है, जीवन की मुश्किलों से तंग आ कर, सब कुछ छोड़-छाड़ कर, मैं एक बार शहर से बहुत दूर एक जंगल में पलायन कर गया था। वेदों के अनुसार मनुष्य-जीवन की पहली तीन अवस्थाओं, जिनको आश्रम कहा जाता है, से गुज़र चुकने के बाद मुझे वैसे भी वो चौथे और अंतिम आश्रम की ओर बढ़ाए जाने वाले क़दम के लिए एक उपयुक्त अवसर लगा था! एक बार वहाँ पहुँचने के बाद मुझे भोजन के नाम पर जो उपलब्ध था.. वो बस कंद-मूल, कुछ अज्ञात जंगली फल और छोटे-मोटे मासूम जानवर। ज़ाहिर है, ऐसी जगह पर मुझे 'डोमिनोस' से पिज़्ज़ा तो डिलीवर होने वाला नहीं था! शुरू-शुरू में कुछ रातें बड़ी मुश्किल से कटीं, 'स्लीपवेल' गद्दों का अभाव और अपने से ज़्यादा ख़तरनाक जंगली जानवरों का डर ही इस अनिद्रा का कारण रहा होगा। ख़ैर, वजह जो भी हो, मेरे पास इस बीमारी के ख़ुद-ब-ख़ुद ठीक होने का इंतज़ार करने के अलावा कोई चारा भी नहीं था; वहाँ हर तरफ़, दूर-दूर तक कोई केमिस्ट शॉप भी तो नहीं थी जहाँ से मैं अपने दवा-उद्योग के ताल्लुक़ात का बेजा इस्तेमाल कर के 'कॉम्पोज़' की कुछ गोलियां ख़रीद लाता!

       वक़्त काटना मेरे लिए सब से बड़ी चुनौती बन गया था। जल्दबाज़ी में मैं अपना 'आईफ़ोन' भी घर पर ही भूल आया था! आधुनिक दुनिया (मतलब 'व्हाट्सएप्प' और 'फ़ेसबुक' वग़ैरह!) से पूरी तरह कट कर पहली बार मुझे अभावों भरी ज़िन्दगी का एहसास हो रहा था… अपने पास समय की बहुतायत का कहीं सदुपयोग कर पाने की फ़िराक़ में अचानक मुझे सूझा कि क्यों ना मैं भी किसी भगवान को प्रसन्न करने के लिए तपस्या शुरू कर दूँ। भगवान के दर्शन अगर ना भी सही, इससे मेरा वक़्त अच्छे से गुज़र सकता था। फिर मैंने मन ही मन उन ऋषि-मुनियों की कहानियों को याद किया जो सालों-साल तपस्या में लीन रहे बताए जाते हैं... इस ख़्याल भर से ही मेरे अंदर एक प्रेरणा का संचार शुरू हो गया था, एक नया जोश उमड़ आया था। 

       अब अगली समस्या जो मुंह-बाये मेरे सामने खड़ी थी, वो यह थी कि अपने इस प्रयोजन के लिए किस भगवान को चुना जाए। जितनी बड़ी तादाद मैंने इन की सुन रखी थी उस को ध्यान में रखते हुए यह वाक़ई एक जटिल काम था! फिर सद्बुद्धि ने मेरा साथ दिया और यह फ़ैसला किया गया कि 'एक ओंकार' को ध्यान में रख कर उस शक्ति को, उस भगवान को याद किया जाए जिस के बारे में कहते हैं 'भगवान एक ही है!' मैंने अपने उस कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए फिर एक विशाल पेड़ का चयन किया, अब पता नहीं वो बरगद का ही था या कोई और...

       शुरुआत में यह सब काफ़ी मुश्किल साबित हो रहा था... शायद मेरी सक्रिय इन्द्रियों और बची-खुची ख़्वाहिशों की वजह से! किसी आम इंसान की तरह, भूख-प्यास और मल-मूत्र जैसी सांसारिक और मानवी ज़रूरतें एक बाधा उत्पन्न करती प्रतीत होती थीं। तब मैं लाख सोचने पर भी यह नहीं समझ पाया कि पुराने, महान तपस्वियों के सन्दर्भ में किसी ने आज तक इस सब का उल्लेख क्यों नहीं किया! बहरहाल, सौर (या चांद्र) स्थिति से समय जानने का कोई ज्ञान ना होने के कारण मुझे गुज़रते वक़्त का कोई अंदाज़ा नहीं हो पा रहा था। बस मेरे लम्बे-घने (बिना 'हेड एंड शोल्डर्स' के!) बाल इस बात का प्रमाण दे रहे थे कि काफ़ी समय गुज़र चुका था….

       अपनी लम्बी, संतों जैसी, बढ़ती दाढ़ी से मैं सख़्त हैरान था कि जंगल में इन्हीं हालात में रह कर भी प्रभु राम और भईया लक्ष्मण पूरे चौदह वर्षों तक अपनी वो चॉकलेट-हीरो जैसी छवि कैसे बरक़रार रख पाए थे (विश्वास ना हो तो रामानंद सागर कृत रामायण देख लीजिए...)! वक़्त गुज़रता गया… धीरे-धीरे मैंने इन सब दुविधाओं पर भी पार पा लिया…. फिर मुझे किसी चीज़ का कोई होश ना रहा!

       अंततः एक दिन (पता नहीं सप्ताह का कौन सा दिन था, किस महीने का था, या कौन से साल का था) मेरे क्षीण हो चुके कानों के परदों से एक एसo डीo बर्मन जैसी आध्यात्मिक आवाज़ पूरे डॉल्बी डिजिटल साउंड इफेक्ट्स के साथ टकराई...

"आँखें खोलो वत्स, हम प्रसन्न हुए!"

मुझे अपनी आँखों पर (नहीं, कानों पर!) एक बार तो विश्वास ही नहीं हुआ। मैंने डरते हुए, धीरे-धीरे अपनी आँखें, पुरानी हिंदी फिल्मों में आँखों के ऑपरेशन के बाद वाले अंदाज़ में, खोलीं... देखा तो आस-पास कोई भी नहीं था, मेनका भी नहीं, जिसे (काश!) किसी देवता ने मेरी तपस्या से अपना आसन डोलता देख कर मारे डर के, मेरी तपस्या भंग करने के लिए भेज दिया होता...

       अपनी निराशा और भड़ास निकालने के लिए मैं बड़बड़ाने लगा। उस बड़बड़ाहट में आत्मिक शांति देने वाला वो मंत्र-जाप भी शामिल था, जिसमें किसी भी छोटे-बड़े अपराध के लिए हम ग़लत काम करने वाले को कौटुम्बिक व्यभिचार तक का उत्तरदायी बना छोड़ते हैं! अपनी पर्याप्त रूप से बड़ी शब्दावली का समापन होते-होते मुझे अब यह चिंता सताने लगी थी कि… सारा झमेला एक बार फिर शून्य से शुरू करना पड़ेगा...

"यह मंत्रोच्चारण बंद करो!" फिर वही उद्घोषणा, "कहा ना, हम प्रसन्न हुए... तुम्हें अब और यत्न करने की कोई आवश्यकता नहीं!"

"परन्तु, भगवन!" इस लुका-छिपी से परेशान मैं बोला, "आप हैं कहाँ? मुझे दिखते क्यों नहीं?"

"मैं यहीं हूँ... तुम्हारे ठीक सामने, मेरे मूर्ख बच्चे!"

       मैंने अपना चश्मा उतारा, पुराने हो हो कर घिस चुके 'कार्ल ज़ेइस्स' के प्रोग्रेसिव शीशों को अपने मुंह से भाप देकर साफ़ किया और फिर अपनी आँखों को हथेलियों से रगड़ा। इस बार चश्मे में से ग़ौर से देखने पर मुझे अगर कुछ दिखा तो वो सिर्फ़ एक ५०० रुपये का नोट था... जो मेरे सामने ही ज़मीन पर चित पड़ा हुआ था! उस प्रभावशाली आवाज़ का स्रोत शायद वही नोट था, जैसे कि अपनी धीर-गंभीर मुद्रा में उस नोट के ऊपर से राष्ट्र-पिता ख़ुद मुझ से मुख़ातिब हों! मैं हैरान था महात्मा की आवाज़ एकदम से इतनी बुलंद कैसे हो गई थी…

अभी तक मैंने सिर्फ़ सुना ही था कि 'पैसा बोलता है!'

"किन्तु, यह आप?!" अपनी उस खोज पर मैं उत्तेजित होकर आर्कमिडीज़ की तरह यूरेका-यूरेका चिल्लाने की जगह शांति से बोला...

"हाँ, मैं ही हूँ!"

"जहाँ तक मुझे याद है," मैं हड़बड़ाया, "मैं तो भगवान को प्रसन्न करने का प्रयत्न कर रहा था!"

"अब मूर्खों वाली बातें छोड़ो , मैं ही भगवान हूँ, अपने इस नवीनतम अवतार में..."

शायद बात सही थी... हाँ, बेशक सही थी! इस अत्याधुनिक, मूर्त और भौतिक युग में कोई और भगवान हो भी कैसे सकता है?!


"मगर वो सर्वोच्च शक्ति जिस के बारे में हमने सुना है?"  मेरी कुछ जिज्ञासा और संदेह संभवतः अभी बाकी थे। 

"क्यों, तुम्हें मेरी शक्ति पर कोई संदेह है? मैं ही सर्वशक्तिमान हूँ, नादान बालक!" मुझे प्यार से डांटते हुए भगवन ने मेरा ज्ञान बढ़ाया...

"और उसका क्या जो लोग कहते हैं आप निराकार और..." मेरी तरफ़ से एक दबा सा विरोध जिसे बीच में ही काट दिया गया...

"तुम तो सच में बहुत भोले हो... तुम्हें क्या लगता हैं, मेरा कोई आकार है?" आवाज़ गूंजी, "जो चाहे मुझे जहाँ मर्ज़ी रख सकता है... जेब में, बटुवे में, अल्मारी में, तिजोरी में, और तो और, ब्लाउज़ के भीतर भी..!" प्रभु अच्छे मूड में दिखाई (मतलब, सुनाई!) पड़ते थे...

"और वो अन्य विशेषण… वो अलंकार जो आपके नाम के साथ जुड़े हैं?" भगवन के क्रोधित होने की आशंका ना होने की तसल्ली हो जाने पर मैंने एक और संदेह व्यक्त कर डाला...

"अरे सिरफिरे मनुष्य, सोचो उन सब के बारे में... मैं अजर-अमर हूँ - कभी मेरी मृत्यु नहीं होती, सर्व-भूत हूँ, सर्वव्यापी हूँ, सर्वज्ञ हूँ, जहाँ चाहे आ सकता हूँ, जब मर्ज़ी जा सकता हूँ, अजातशत्रु हूँ, अर्थात… कोई मेरा शत्रु नहीं, हर कोई मुझ से प्रेम करता है, मेरी पूजा करता है, मेरे समक्ष नत-मस्तक रहता है..."


       अज्ञानता की धूल जो मेरे मनो-मस्तिष्क पर छाई पड़ी थी, अब धीरे-धीरे छटने लगी थी। 

       अचानक मैंने अपने-आप को इतना प्रबुद्ध पाया जितना कि शायद महात्मा बुद्ध ने स्वयं को निर्वाण प्राप्त करने के पश्चात ही पाया होगा... सारा कुछ मेरी समझ में आने लगा था, कहीं लेशमात्र भी कोई संदेह नहीं बचा था...

अपनी लग्न और अथक परिश्रम से आख़िर मैंने उस चमत्कारी वृक्ष की छाया में बैठ कर वो अभूतपूर्व और अवांछित ज्ञान प्राप्त कर लिया था जिसकी वास्तव में मैंने खोज भी नहीं की थी!

मैं उठा, 'भगवान' को दिल से धन्यवाद दिया, और बोझिल क़दमों से उसी शहर की तरफ़ चल दिया जिसे मैं बरसों पहले ख़ुद ही छोड़ आया था…!!



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