हेलमेट
हेलमेट
"किस से मिलना है आपको?"
कॉलबेल बजाने के क़रीब दो मिनट बाद मुझे सुनाई दिया। ऊपर बालकनी में एक लड़की खड़ी थी।
"मुझे कल्पना से मिलना है... कल्पना श्रीवास्तव।" यह पूछने की ज़रुरत मैंने नहीं समझी कि क्या वो वहाँ रहती भी है। बाहर लगी नेम-प्लेट पर मैंने पढ़ लिया था - "पीo श्रीवास्तव, एडवोकेट"।
"ओह, अच्छा… आप ऊपर आ जाइए। " सीढ़ियों की ओर इशारा करके उसने कहा।
मैं कुछ झिझकता हुआ ऊपर पहुँचा, दरवाज़े पर वही लड़की खड़ी थी - बारह-तेरह साल की रही होगी। शक़्ल-सूरत से कुछ-कुछ अंदाज़ा होने पर भी मैंने पूछ लिया, "तुम...?"
"जी, कल्पना मेरी दीदी है।" लड़की बेशक समझदार थी। "आइए ना, बैठिए..." ड्रॉइंग-रूम तक मुझे पहुँचा कर वह कहीं अंदर चली गई।
क्रिस्चियन मेडिकल कॉलेज, लुधिआना में कल्पना मेरी जूनियर थी। पर शायद इतना सा परिचय काफ़ी नहीं है; मैं उसे बेहद पसंद करता था, और हाल ही में इज़हार भी कर चुका था। गर्मी की छुट्टियों में हम कॉलेज से चले आए थे। वह चंडीगढ़, और मैं दिल्ली - अपने-अपने घर। और कल जब किसी काम से चंडीगढ़ आया तो सोचा कल्पना से भी मिलता चलूँ। एक दोस्त के यहाँ ठहरा था; सुबह उसीकी मोटर साइकिल उठा कर निकल पड़ा था। पीo जीo आईo में अपना काम निपटा कर सीधा यहीं चला आया था - सेक्टर सैंतीस में। बिना नंबर के भी घर ढूँढने में कोई ख़ास परेशानी नहीं हुई, उसके पापा एक जाने-माने वकील थे।
कुछ देर बाद ट्रे में कुछ ठंडा और थोड़े बिस्कुट वग़ैरह लिए एक महिला ने अंदर प्रवेश किया...
"नमस्ते, आँटी!" मैंने उठ कर उन्हें प्रणाम किया, उम्र के लिहाज़ से यही सम्बोधन मुझे उचित लगा था।
"नमस्ते बेटा, बैठो..." वे बोलीं, "मैं कल्पना की माँ हूँ।"
"आँटी," मैंने वापस बैठते हुए पुछा, "कल्पना है घर पर?"
"नहीं, पर तुम कुछ लो तो..." उन्होंने ट्रे मेज़ पर रख दी थी।
"अगर कुछ देर में लौटने वाली हो तो मैं इंतज़ार कर सकता हूँ..." मैंने एक गिलास उठा लिया।
"पर... वो तो अपनी मौसी के यहाँ शिमला गई हुई है।"
"अच्छा!" मैंने मायूसी से पूछा, "कब गई है?"
"कल ही... और दो हफ़्ते बाद ही लौटेगी," प्लेट मेरी तरफ़ बढ़ाते हुए वे बोलीं, "अच्छा, तुम कल्पना को कैसे जानते हो?"
"जी, मैं उसी के कॉलेज में पढ़ता हूँ; एक साल सीनियर हूँ उसका।"
"नाम क्या है बेटे तुम्हारा?" उनकी आवाज़ में एक अपनापन था पर मुझे फिर भी थोड़ी घबराहट हो रही थी!
"जी... अभिषेक, और मैं दिल्ली से आया हूँ। " इससे पहले कि वे पूछें मैंने ख़ुद ही बता दिया।
"ओह! तुम इतनी दूर से आए हो... मुझे अफ़्सोस है कि तुम्हें बेकार तकलीफ़ हुई!"
मैंने ख़ाली गिलास मेज़ पर रखते हुए कहा, "नहीं आँटी, इसमें तकलीफ़ कैसी? मैं यहाँ किसी काम से आया था, कल वापस चले जाना है... तो सोचा कल्पना से भी मिल लूँ।"
"बड़ा अच्छा किया बेटा, तुम्हारा अपना घर है। हाँ, कल्पना के लिए कोई सन्देश छोड़ना चाहो तो..."
"जी नहीं, धन्यवाद! अच्छा, मैं अब चलता हूँ; नमस्कार।"
नीचे बाइक के पास पहुँच कर ध्यान आया कि मेरा हेलमेट ऊपर ही छूट गया था, वहीँ सोफ़े के पास। दोबारा ऊपर पहुँचा पर दरवाज़े के पास ही ठिठक कर रुक जाना पड़ा...
"क्यों मुझ से झूठ बुलवाया तुमने? बेचारा इतना शरीफ़ सा लड़का है!"
"ओफ़्फ़ोह, मम्मी! समझा भी करो। मुझे नहीं मिलना है आपके उस शरीफ़ज़ादे से... ज़बर्दस्ती पीछे पड़ा है! चला गया न चुपचाप?!"
इससे पहले कि कोई मुझे देख पाता, मैं ख़ामोशी से नीचे उतर आया। बाइक अभी स्टार्ट ही की थी कि वही छोटी लड़की दौड़ते हुए मेरे पास पहुँची, "भईया, आप का हेलमेट!"
चंडीगढ़ में तब हेलमेट इतना ज़रूरी न होते हुए भी न सिर्फ़ मैंने हेलमेट पहना, बल्कि कस कर बंद भी कर लिया ताकि मुझे कुछ और सुनाई न दे...
***
