Mohanjeet Kukreja

Romance

5.0  

Mohanjeet Kukreja

Romance

नियति

नियति

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943


1)

पिंड बलूची, गुरुग्राम...


आज हमें एम.डी.आई. (मैनेजमेंट डेवलपमेंट इंस्टिट्यूट) से एम.बी.ए. की डिग्री मिली थी। सेलिब्रेशन के लिए कुछ क्लास्मेट्स एक रेस्टोरेंट में बैठ कर खा-पी रहे थे। मिताली हमेशा की तरह मेरे पास बैठी हुई थी। मुझे लगा जैसे वो आज सुबह से कुछ कहना चाह रही थी। फिर जब बाक़ी सब उठ कर जाने लगे तो मिताली मेरा हाथ पकड़ कर मुझे साथ ही लगे लेज़र वैली पार्क में ले गई।

“चलो थोड़ा टहलते हैं; तुम से एक ज़रूरी बात भी करनी है।”

मैं उस के साथ-साथ चलने लगा।

“हरदीप, मेरे घर वालों ने मेरा रिश्ता पक्का कर दिया है, कहीं और…” वो मायूसी से बोली।

मुझे सुन कर बुरा तो बहुत लगा पर मैं समझ सकता था कि एक पंजाबी ख़ानदान में उसकी शादी करने में उन लोगों को ऐतराज़ रहा होगा... मैंने कहा कुछ नहीं।

“तुम कुछ बोलते क्यों नहीं?”

“क्या बोलूँ मैं अब, मिताली? और मेरे बोलने से फ़र्क़ भी क्या पड़ने वाला है?”

“फिर भी।”

“फिर भी यह कि अगर तुम अपने माँ-बाबा की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जाकर मेरा साथ नहीं दे सकती हो तो ठीक है!” मैं ख़ामोश हो गया; मेरे पास शायद कहने को और कुछ था भी नहीं।

मिताली ने ही उस सन्नाटे को तोडा, “तुम जानते हो मैं तुमसे कितना प्यार करती हूँ, हरदीप। मम्मा को तो मैं जैसे-तैसे मना सकती हूँ, लेकिन बाबा के फ़ैसले के ख़िलाफ़ कुछ बोलने के बारे में मैं सोच भी नहीं सकती…”

“यह सब तुम्हें पहले सोचना चाहिए था! क्या ज़रुरत थी मेरे इतना क़रीब आने की?”

मिताली के पास कोई जवाब न था। वैसे उस रिश्ते को बढ़ावा तो मैंने भी दिया ही था!

“मेरी शादी पर तो आओगे ना?” वो सामान्य होने की कोशिश करती लग रही थी।

“बिल्कुल नहीं! और तुम यह फ़िल्मी उम्मीद रखना भी मत मुझ से, प्लीज़।”

रस्मी तौर पर शादी का कार्ड फिर भी आया था, जिस पर एक नज़र डालने के बाद मैंने उसके टुकड़े-टुकड़े कर के फेंक दिया था। मोहब्बत एक चीज़ है और ज़िन्दगी में प्रैक्टिकल होना दूसरी!

उस बात को कुछ साल हो गए हैं, इस दौरान मैं भी अपनी ज़िन्दगी के साथ मसरूफ़ रहा; मिताली को मैं भूला तो नहीं था पर याद रखने का भी ज़्यादा वक़्त नहीं दिया था ज़िन्दगी ने।


2)

न्यू टाउन, कोलकाता...


“यह हर रोज़ की, हर बात पर, चिक-चिक अब नहीं चलने वाली।”

“तो भास्कर! यह बताओ कि शुरुआत क्या मैं ही करती हूँ?”

“वो सब मुझे पता नहीं यार, मगर तुम मुझसे उम्मीदें इतनी करती हो कि मैं उन पर खरा नहीं उतर पाता। पता नहीं मुझ में तुम क्या तलाशती रहती हो, किसको ढूंढती रहती हो?! मैं कभी समझ ही नहीं पाया कि तुम मुझसे चाहती क्या हो…”

युवती चुप रही।

"कॉलेजे कि तोमार कारोर साथे कोनो समपर्क छिलो...? भालबासते कारोके?” 

अब कॉलेज में किसी के साथ सम्बन्ध के बारे में कहता तो वो ठीक था। मजबूरी में उसने यह शादी कर ली थी, पर हक़ीक़त यह है कि पिछले डेढ़ साल में वो किसी को कभी भी भूल नहीं सकी थी, कोई ऐसा... जो कभी था।

प्रत्यक्षतः वो बोली, “भास्कर इन सब बातों का अब कोई मतलब नहीं है। मैं तुम्हारे साथ कोई ज़बरदस्ती या अपनी मर्ज़ी से नहीं रह रही; तुमने बाक़ायदा शादी की है मुझसे।”

“हाँ! वही शायद मेरी सबसे बड़ी भूल थी!”

“तो अब सुधार लो भूल!” युवती तमक कर बोली, “अभी क्या बिगड़ा है?” 

भास्कर ने हैरानी से अपनी पत्नी की तरफ़ देखा।

“शोनो... तोमार साथे थाकार कोनो शख नेई आमार।” ग़ुस्से में कांपते हुए वह सिर्फ़ इतना कह सका। 

“मैं भी कोई मरी नहीं जा रही तुम्हारे साथ रहने को!” वह निर्विकार भाव से बोली।

यह सिलसिला कोई ५-६ महीने और चला, फिर एक दिन भास्कर की पत्नी ने उसका घर छोड़ दिया।

कुछ समय पश्चात दोनों में बाक़ायदा तलाक़ भी हो गया!

एक दूसरी कंपनी में नौकरी मिल गई तो युवती ने अपना मायका भी छोड़ कर उस शहर से ही किनारा कर लिया।

उधर भास्कर ने, जिस बेचारे की कोई ग़लती नहीं थी, जल्द ही एक दूसरी सुशील लड़की से शादी कर ली।


3)

एक ऑफ़िस काम्प्लेक्स सेक्टर १७, चंडीगढ़...


अचानक एक मोबाइल फ़ोन बजा -

“कौन बोल रहा है?” दूसरी तरफ़ से पूछा गया।

आवाज़ में एक ऐसा रौब था कि कॉल सुनने वाले ने झट से अपना नाम बताया।

“आप किसी रश्मि को जानते हैं?”

“आप कौन?” सशंक भाव से पूछा गया।

“आप सिर्फ़ मेरी बात का जवाब दीजिए।”

“जी, मेरी बीवी का नाम है रश्मि। क्यों पूछ रहे हैं? और आप हैं कौन?”

“आप घर पे हैं? रश्मि घर पे है?” बात को फिर से अनसुना कर दिया गया।

“नहीं, मैं ऑफ़िस में हूँ; रश्मि भी जॉब करती है, और सुबह तक़रीबन मेरे साथ ही घर से निकली थी।” 

“कैसे?”

“अपनी गाड़ी से।”

“सफ़ेद ऑटोमैटिक ऑल्टो? नम्बर सी एच ज़ीरो थ्री...”

“हाँ!” हैरानी भरा स्वर!

“मैं सेक्टर २३ की पुलिस चौकी से इंस्पेक्टर राणा बोल रहा हूँ; रश्मि की गाड़ी का सेक्टर २२-२३ की लाइटों (ट्रैफ़िक जंक्शन) पर एक्सीडेंट हो गया है।”

“क्या? कब? और रश्मि कैसी है?” जैसे कुठाराघात हुआ था।

“आप फ़ौरन पहुंचिए।”

“२२-२३ की लाइटों पर?” कंठ में फंसे स्वर से पूछा गया।

“नहीं! पी.जी.आई. हॉस्पिटल...” फिर फ़ोन कट गया।

रश्मि की गाड़ी क्रॉसिंग पर एक तेज़ी से मुड़ती हुई बस से टकरा गई थी और उसकी हालत गंभीर थी। उसे जल्दी से अस्पताल पहुँचा दिया गया था। फ़ोन पर ख़बर मिलने पर जब तक यह शख़्स वहाँ पहुंचा, एक इमरजेंसी ऑपरेशन के बाद रश्मि को सर्जिकल आई.सी.यू. में शिफ़्ट किया जा चूका था।

वहाँ से वो अगले दिन, दोपहर बाद ही बाहर निकली! 

बेजान...


4)

फ़ोरम मॉल, बैंगलोर...


बुधवार, दिन के तक़रीबन तीन बजे। मैं आज सुबह ही उस कोरमंगला इलाक़े में किसी काम से आया था। लौटने के लिए फ़्लाइट रात को थी, जल्दी फ़ारिग होकर बीच का वक़्त गुज़ारने के इरादे से यूँ ही विंडो-शॉपिंग कर रहा था जब मुझे अचानक लगा कि मैंने मिताली को देखा है। पहले तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ; थोड़ा और नज़दीक जाकर तसल्ली की तो वाक़ई वही थी। चार सालों में बस थोड़ी मोटी हो गई थी, आँखों पर चश्मा था, बाक़ी बिल्कुल पहले जैसी… वैसी ही ख़ूबसूरत!

“मिताली…” मैंने फिर भी तसल्ली करने के लिए धीरे से पुकारा।

आवाज़ सुनकर उसने मेरी तरफ़ मुड़ कर देखा, “हरदीप, तुम!” हैरानी भरी ख़ुशी से वह मेरे गले मिली। कॉलेज के दिनों में भी वो मुझसे ऐसी ही बेबाकी से मिलती थी, मगर तब गर्मजोशी कुछ ज़्यादा हुआ करती थी।

हम सी.सी.डी. (कैफ़े कॉफ़ी डे) में जा कर एक एकांत से कोने में बैठ गए। उसे भी शायद भूख लगी थी, हमने एक-एक सैंडविच खाया और गर्म कॉफ़ी की चुस्कियां लेते हुए बातों में मशग़ूल हो गए।

“तुम बैंगलोर में रहती हो?” मैंने पूछा।

“नहीं, हैदराबाद में; यहां तो किसी काम से आई थी, और तुम?”

“वाह! क्या इत्तेफ़ाक़ है, मैं भी!”

वह बहुत हैरान हुई। 

फिर बातों-बातों में पता चला वह पिछले ६ महीने से हैदराबाद में रह रही थी, जबकि मुझे अपनी ही कंपनी में वहाँ ट्रांसफर लिए हुए अभी सिर्फ़ दो ही महीने हुए थे।

बातों-बातों में कब शाम के सात बज गए, पता ही नहीं चला।

अचानक उसने अपनी घड़ी पर नज़र डाली और उठ खड़ी हुई।

“मुझे अब जाना होगा, हरदीप! किसी से मिलना है।”

“ठीक है, मैं भी एयरपोर्ट के लिए निकलता हूँ।” मैं बोला, “अब हमारे पास एक-दूसरे के नए नंबर तो हैं ही, जल्द ही मिलते हैं फिर।”

“कॉल ज़रूर करना!” उसने कहा। 

फिर हम एक साथ मॉल से बाहर निकल आए।


5)

इनऑर्बिट मॉल, हैदराबाद...


वो एक शनिवार का दिन था। दोपहर के क़रीब साढ़े बारह बजे थे, मैं हाइपरसिटी से घर के लिए कुछ ख़रीदारी कर रहा था जब मुझे हाथ में एक शॉपिंग-बास्केट संभाले मिताली दिखी। तब मुझे एहसास हुआ मैंने पिछले दो महीनों में उसको एक बार भी फ़ोन नहीं किया था, वैसे उसने भी कहाँ किया था!

मैंने पीछे से उसके कंधे को हल्के से थपथपाया, वह तुरंत पलटी और अपनी बास्केट वहीं फेंक कर पहले सी गर्मजोशी से मुझसे मिली।

ख़रीदारी तो उसके बाद ख़ैर क्या होनी थी, हम ऊपर फ़ूड कोर्ट में जा बैठे।

“एक बार भी फ़ोन नहीं किया तुमने,” उसने शिकायत की।

“हाँ, मैं कुछ ज़्यादा ही मसरूफ़ रहा। नया ऑफ़िस, नए लोग… होप यू कैन अंडरस्टैंड!”

“चलो छोडो, और बताओ सब कैसा चल रहा है?”

“सब ठीक है, तुम कहो।”

“मेरी भी ठीक गुज़र रही है।”

उस दिन के बाद हम अक्सर फ़ोन पर बात करने लगे, और एकाध बार मिले भी। अपने कॉलेज की यादें ताज़ा कीं, और दूसरी पुरानी यादों के बारे में बातें करते रहे, लेकिन कभी भी एक-दूसरे की ज़ाती ज़िन्दगी के बारे में कुरेद कर कुछ ना पूछा। ना उसने और ना ही मैंने!

एक दिन वह अचानक बोली, “तुम रहते कहाँ हो?”

“मलेशियन टाउनशिप में, और तुम?”

“माई होम ज्वेल में।” वो चंदा नगर की एक पॉश कॉलोनी थी, और मेरी देखी हुई...

“ऐसा करते हैं, कल लंच एक साथ करेंगे, मेरे घर पर,” उसने आगे कहा, "मैं तुम्हारी पसंद की फ़िश करी और चावल बना लूँगी।"

“बढ़िया! और क्या चाहिए?” मैंने ख़ुश होकर कहा...

“नहीं, बियर भी पिला दूंगी...” वह शरारत से मुस्कुराई।


6)

माई होम ज्वेल, हैदराबाद...


अगले दिन, जो कि एक इतवार था, मैं दोपहर के कोई एक बजे बाहर मेन गेट पर सिक्योरिटी-गार्ड के पास विज़िटर्स रजिस्टर में अपनी एंट्री करवा रहा था। मेरे घर से वो जगह कोई बहुत ज़्यादा दूर नहीं थी। फिर थोड़ी देर बाद मैंने लिफ़्ट से चौथे माले पर पहुँच कर वांछित फ़्लैट की घंटी बजाई ही थी कि तुरंत दरवाज़ा खुला। नीचे गार्ड ने पहले से ही मैडम को मेरे आने की ख़बर कर दी थी शायद।

खुले बालों में, एक साड़ी पहने, महकती-चहकती मिताली दरवाज़े पर प्रकट हुई। मैंने मिलाने के लिए हाथ बढ़ाया लेकिन वो मुझसे बगलगीर हो कर मिली, और मेरे कंधे के पीछे कुछ देखने की कोशिश करते हुए उसने एक तरफ़ हट कर मुझे अंदर आने को कहा।

बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से सजे एक लिविंग-रूम के एक सोफ़े पर मुझे बैठा कर वह एक ट्रे में पानी से भरा ग्लास ले कर लौटी। मैंने गिलास उठाते हुए पूछा, “तुम मेरे साथ किसी और के आने की उम्मीद कर रही थी क्या?”

“नहीं तो!” उसने मुस्कुरा कर जवाब दिया।

फिर वह दोबारा कहीं अंदर चली गई; इस बार लौटी तो ट्रे में दो बियर की कैन्स और एक कांच की कटोरी में कुछ भुने हुए काजू के साथ।

सोफ़े पर मेरे साथ ही बैठकर उसने अपना कैन उठा कर खोला और मेरे खोले कैन से टकरा कर बड़े दिलकश अंदाज़ में चियर्स बोली।

“अच्छा, खाना तैयार है... जब बोलोगे परोस दूंगी,” उसने बताया।

अगले दौर में वह चिकन नगेट्स ले आई।

फिर जैसे उसे अचानक कुछ याद आया, “अरे मेरे पास व्हिस्की भी है, तुम्हें अगर बियर अब भी पसंद ना हो तो...!”

उसे मेरी पसंद याद थी। मैं ख़ुद उठा और उसके बताए हुए बैडरूम की एक कैबिनेट से जैक डैनिएल्स की एक बोतल बरामद की। फिर किचन में से दो व्हिस्की के ग्लास उठा कर सेंटर टेबल पर रखे, इस बीच मैंने नोट किया कि घर में और कोई नहीं था; दूसरा बैडरूम भी मुझे खुला हुआ और ख़ाली मिला था।

मैंने एक पेग बनाया। उसके लिए दूसरा गिलास उठाया तो वह बोली, “मुझे बियर के साथ हिट कर जाती है, वैसे भी मेरी बस है। टू कैन्स ऑफ़ बियर इज़ माई लिमिट!”

मैंने भी वही एक पेग लिया, फिर हमने डाइनिंग टेबल पर बैठ कर खाना खाया, जो बहुत ही लज़ीज़ बना था।

वापिस सोफ़े पर आकर बैठे तो मैंने पूछ ही लिया, “तुम्हारे मियां जी कहाँ हैं, दिखाई नहीं दिए?”

“मैं यहाँ अकेली रहती हूँ।”

“क्यों?” मैंने हैरानी से पूछा।

भास्कर और मेरे बीच कभी बनी ही नहीं। फिर कोई साल भर पहले हमारा तलाक़ हो गया, उसने बिना किसी लाग-लपेट के बताया। 

“ओह!”

“मेरी छोड़ो, तुमने क्या अभी तक शादी नहीं की, हरदीप?”

“अच्छा! तो तुम मेरे साथ मेरी बीवी को एक्सपेक्ट कर रही थी।”

“हाँ, है तो कुछ ऐसा ही...” वह मुस्कुराई।

“नहीं, ऐसी बात नहीं! शादी तो मेरी हुई थी। लेकिन एक साल बाद ही रश्मि मुझे छोड़ कर चली गई।

“कहाँ?”

“जहाँ से कोई लौट कर नहीं आता...”

“ओह माई गॉड!”


7)

मिताली का घर, हैदराबाद...


शाम के पांच बजने को थे। मिताली ने मुझसे कॉफ़ी के लिए पूछा तो मैंने बिना एक पल गंवाए हाँ कर दी। मुझे उम्मीद थी उससे मेरे सिर का दर्द भी शायद ठीक हो जाता।

कॉफ़ी पीते-पीते हमारे बीच कोई ख़ास बातचीत नहीं हुई। दोनों जैसे अपनी ही किसी सोच में गुम थे।

“अच्छा यह बताओ,” मिताली ने कहा, “तुमने चंडीगढ़ क्यों छोड़ा?”

“बस यूँ समझो कि उस हादसे के बाद, मेरे अपने ही शहर में दिल नहीं लगा मेरा!” मैंने ईमानदारी से बताया।

फिर एक ख़ामोशी…

कुछ देर बाद मिताली अचानक बोली, “एक बात कहूँ?”

“बोलो ना!”

“तुम्हें ऐसा नहीं लगता हम दोनों के साथ जो कुछ भी हुआ वो ऊपर वाले की मर्ज़ी से हुआ?”

“मतलब?”

“मतलब यह कि वो भी चाहता था कि हमारा मिलन हो। कैसे मेरा डिवोर्स हुआ, मैं कोलकाता छोड़ कर हैदराबाद आ गई। फिर रश्मि का तुम्हें छोड़ कर चले जाना, तुम्हारा भी चंडीगढ़ छोड़ कर हैदराबाद में आ बसना। फिर हमारा यूँ बैंगलोर में एक दूसरे से टकराना, हैदराबाद में मिलना… यह हमारी नियति है!

मैं सोचने पर मजबूर हो गया। देखा जाए तो बात ठीक थी...

मैं ख़ामोश ही था कि उसने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर बड़ी संजीदगी से कहा,

“क्या हम फिर से एक साथ नहीं चल सकते, हरदीप?”

मैं उसका हाथ थामे हुए ही उठ खड़ा हुआ, उसने मेरी तरफ़ देखा, मेरे जवाब के इंतज़ार में।

मैंने बिना कुछ कहे उसे पकड़ कर उठाया और गले से लगा लिया!


मेरी तरफ़ से ऐसा पहली बार हुआ था...


*****


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