मोहनजीत कुकरेजा (eMKay)

Drama Others

4.0  

मोहनजीत कुकरेजा (eMKay)

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“चेंज का क़िस्सा!”

“चेंज का क़िस्सा!”

3 mins
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वैधानिक चेतावनी: धूम्रपान तथा मदिरा का सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है!  

वैसे मैं क्रिकेट को लेकर कभी भी बहुत उत्तेजित नहीं रहा, परन्तु यह फ़ाईनल मैच था… और फिर इंडिया और पाकिस्तान के बीच था! एक ऐसा मैच जिसको हमेशा किसी युद्ध का दर्जा दिया जाता है... ऐसा मैच जो स्टेडियम से निकल कर हर एक सच्चे हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी के घर तक आ पहुँचता है!

ख़ैर, कोई ना कोई बहाना बना कर बड़ी मुश्किल से ऑफ़िस से निकल पाया। यह सोचते हुए कि रास्ते में से दो ठंडी बियर की बोतलें उठा कर, घर में इत्मीनान से बैठ कर मैच देखूँगा, मैं पार्किंग में अपनी बुलेट तक पहुँचा... मगर यह क्या! बाइक का पिछला पहिया पंक्चर हो कर बैठ चुका था। बिना वक़्त बर्बाद किए, मैं बाइक को वहीं खड़ा छोड़ बाहर की तरफ़ भागा, इस उम्मीद में कि कोई ऑटो मिल जाएगा। मगर यह काम जितना मैंने सोचा था, उससे कहीं ज़्यादा मुश्किल साबित हुआ, ख़ास तौर पे जब सड़क पर हर तरफ़ एक कर्फ़्यू लगा होने का आभास हो रहा था। 

मैच शुरू भी हो चुका था और मैं अब भी वहीं था जहाँ से चला था… तभी कहीं से एक रिक्शा प्रकट हुआ, और मुझ से थोड़ी ही दूर अपनी सवारी को उतारने लगा। अपनी क़िस्मत पर रश्क़ करता मैं लपका और इस से पहले कि रिक्शा वाला कुछ पूछ या मना कर पाता, मैं रिक्शे में सवार हो चुका था, "सीधा चलो, जल्दी!"

१० मिनटों में मैंने पैसे दिए और एक क्रासिंग पर कूद गया, वहाँ से ऑटो मिलना आसान था। एक ख़ाली ऑटो मेरे क़रीब से गुज़रा, मैंने हाथ दिया.. लेकिन वह रुकते-रुकते भी कुछ आगे निकल चुका था। मैंने दौड़ लगायी और अगले ही पल ऑटो में विराजमान हो गया। ऑटो-चालक को या तो वक़्त की नज़ाकत का एहसास हो गया था या फिर वो ज़रूर अम्बानी ख़ानदान का कोई दूर का सम्बन्धी था... दुगने से भी ज़्यादा किराया माँगा, भाई ने! लेकिन मेरे पास न समय था न कोई और विकल्प...

रास्ते में दारू की दुकान पर कोई भीड़-भाड़ न देखकर दिल को बड़ी तसल्ली मिली! दीन-दुनिया से बे-ख़बर, दुकान वाला एक छोटे से टीo वीo से - जो रखा ऐसे गया था कि लाख कोशिश करके भी मुझे मैच की एक झलक तक न दिखी - चिपका हुआ था! एक रेगुलर क्लाइंट को भी अगले ने दो बियर ऐसे निकाल कर दीं जैसे पता नहीं कितना बड़ा एहसान कर रहा हो!

मैंने बोतलें बैग के हवाले कीं और बाहर खड़े अपने ऑटो की तरफ़ लपका। अपने सारथी को मैंने बिल्कुल अर्जुन के से अंदाज़ में चलने की प्रार्थना की….

आख़िर अपनी मंज़िल पर पहुँच कर मैंने ५०० रुपये का एक नोट निकाल कर ऑटो वाले की तरफ़ बढ़ाया जिसे देखते ही वो बिदक गया, "चेंज नहीं है साहब, छुट्टा दो!" मैंने जल्दी से अपनी सारी जेबें, पर्स, बैग सब टटोल लिया… कुछ न मिला। पड़ोस में और आस-पास सड़क पर नज़र दौड़ाई तो मानवीय जीवन का कोई अवशेष तक न दिखा। सारी दुनिया अपने-अपने घरों में दुबकी मैच ही देख रही थी शायद। 

हर तरफ़ मुकम्मल सन्नाटा!!


फिर अचानक यह सोच कर कि शायद घर में कहीं खुले पैसे पड़े हों, मैं सीढ़ियों की ओर दौड़ा, ऊपर जा कर देखने के लिए। चेंज तो बहरहाल मुझे नहीं मिला, लेकिन घर में क़दम रखते ही एक झटका ज़रूर लगा - बिजली गुल थी, पता नहीं कब से! अब तक इन्वर्टर ना ख़रीद कर बचाए पैसों और ख़ुद पर लानत भेजता, चेहरे पर फटकार लिए मैं वापिस नीचे आया...

"आप ५०० का नोट दो, मैं चेंज लेकर आता हूँ!" ऑटो वाले को मेरी हालत देखकर शायद मुझ से हमदर्दी उमड़ आई थी। मैंने ख़ुशी-ख़ुशी नोट उसको थमा दिया…


डेढ़ घंटे के बाद भी मैं एक हाथ में - तब तक गरम हो चुकी - दूसरी बोतल, और दूसरे हाथ की उँगलियों में सिगरेट पकड़े, अपने घर की बाल्कनी में मुंह लटकाए, मायूस बैठा था। 


अभी तक ना तो बिजली आई थी…

और ना मेरा बकाया वापिस करने वो शरीफ़ ऑटो वाला!!



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