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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Tragedy

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Tragedy

स्त्री पुलिस इंस्पेक्टर …

स्त्री पुलिस इंस्पेक्टर …

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स्त्री पुलिस इंस्पेक्टर …"मेरी माँ चिड़चिड़ा कर कह रहीं थीं - बेटी, नहीं तू पुलिस की भर्ती का यह फॉर्म नहीं भरना। तू कोई और नौकरी देख ले। तेरे पिता रहे नहीं हैं। मैं अब कोई और खतरा नहीं ले सकती हूँ।"

मैंने पूछा - "माँ इस नौकरी में, तुम्हारे चिढ़ने और खतरा लेने की कौन सी बात है?" 

माँ ने कहा - "तू समझ बेटी, लड़की में इतनी शक्ति नहीं होती कि वे खतरनाक गुंडे, बदमाशों का सामना कर पाएं। पुलिस का काम तू नौजवान लड़कों के लिए छोड़ दे। तू अपने भाई की तरह किसी ऑफिस में बाबू की नौकरी देख ले।" 

मैं चुप होकर सोचने लग गई थी, अभी आवेदन करने की अंतिम दिनाँक में 20 दिन का समय है। माँ को इतने दिनों में, मैं किसी तरह से मेरी पुलिस इंस्पेक्टर की नौकरी के लिए समझा लूँगी। 

प्रकट में, मैंने फॉर्म अलग रखते हुए कहा था - "माँ ठीक है, तुम कहती हो तो मैं यह आवेदन नहीं करुँगी।"

उस दिन बात आई गई हो गई थी। 

इसके बाद, मैं माँ को इंस्पेक्टर की नौकरी के लिए समझाने और उन्हें इस हेतु तैयार कर लेने के लिए, तर्क खोजने में लगी रही थी। दो वर्ष पूर्व हमारे पिता के स्वर्गवास के बाद से, मैं माँ के साथ सोया करती थी। चौथी रात सोने के पहले, माँ ने ही पूछा - बेटी तू मुझे कुछ दिनों से अनमनी दिखाई दे रही है, क्या तुझे कोई परेशानी है?

मैंने इसे माँ को राजी करने का उपयुक्त अवसर मानते हुए कहा - "माँ, अब मुझे खाली घर बैठना अच्छा नहीं लग रहा है। मुझे कोई ठीक नौकरी भी नहीं मिल पा रही है।" 

माँ ने कहा - "बेटी तू हाँ करे तो तेरे लिए कुछ अच्छे रिश्ते हैं। इनमें से जिससे तू चाहे मैं तेरी शादी करवा देती हूँ। तब तू खाली नहीं रहेगी।"

अब मैंने इसे सही अवसर मानकर कहा -" माँ, अगर मैं पुलिस इंस्पेक्टर हो जाती तो मेरे लिए इनसे अच्छे रिश्ते मिल सकते थे।"

यह कहकर मैं अपने मुख पर जानबूझकर उदासी दिखाते हुए चुप हुई थी। 

मुझे उदास देख कर माँ की ममता ने जोर मारा था। माँ ने बिस्तर पर बैठ कर मेरा सिर अपनी गोद में लिया था। फिर समझाते हुए कहा - 

"बेटी तेरे पिता रहे नहीं हैं, अब तुम बच्चों की पूरी जिम्मेदारी मेरे पर है। मैं पुलिस की कोई नौकरी, लड़की के लिए तो क्या, लड़के के लिए भी खतरनाक समझती हूँ। तू नहीं जानती है, कैसे कैसे दुष्ट अपराधी होते हैं। इंस्पेक्टर होकर उन पर नियंत्रण करने की कोशिश में भगवान न करे तेरे साथ कुछ हो गया तो तेरे पिता की आत्मा मुझे कभी क्षमा नहीं करेगी।"    

मैंने कहा -" माँ, तुम समझ नहीं पा रही हो मेरे इंस्पेक्टर होने से मेरे पर खतरा, किसी सामान्य लड़की की तुलना में कम हो जाएगा।" 

माँ ने फिर दोहराते हुए कहा - "मगर बेटी लड़की में शक्ति कहाँ जो दुर्दांत लोगों से मुकाबला कर पाए।" 

मैंने अब अपनी पूर्व में सोच रखी हुई बात कही - "माँ अपराधियों पर नियंत्रण करने में किसी की शक्ति से अधिक पुलिस वेशभूषा की महिमा अधिक काम आती है। तुम देखो, 50-55 से अधिक उम्र के बूढ़े हो रहे पुलिस वालों से भी सब डरते हैं कि नहीं? अपराधी कोई भी अपराध करें मगर पुलिस वालों पर वार करने से बचते हैं। क्योंकि ऐसे किसी प्रयास का उन्हें बहुत बुरा परिणाम भुगतना होता है। तब पुलिस उनसे बहुत बुरी तरह से निबटती है। पुलिस से किसी प्रकार का पंगा लेने से सब घबराते हैं।" 

शायद माँ को मेरी बात कुछ समझ आई थी, उन्होंने कहा - "ठीक है तू चाहती है तो फॉर्म लगा दे, वैसे भी आवेदन करने वाली सभी लड़कियाँ सिलेक्ट नहीं हो जाती हैं।" 

मैं समझ गई थी, माँ मेरे आवेदन करने के बाद मन ही मन यही चाहेंगी कि मेरा सलेक्शन नहीं हो जाए। फिर भी माँ की अनमनी इस सहमति को चूकना मैंने उचित नहीं समझा था। अपनी बात पर बल देते हुए कहा था - माँ अगर मैं पुलिस वाली हुई ना तो मैं ही नहीं हमारा पूरा घर-परिवार अधिक सुरक्षित हो जाएगा। अड़ोस पड़ोस में भी हमारा दबदबा हो जाएगा। 

माँ ने ममता भाव में ओतप्रोत होकर कहा - चल तू अब हँस दे, मुझे तेरी उदासी अच्छी नहीं लगती है। 

मैंने हँस दिया था, तब माँ ने मुझे अपने पास खींच लिया और ऐसे थपथपाने लगीं थीं जैसे मेरे बचपन में मुझे सुलाने के लिए करतीं थीं। 

अगले दिन मैंने आवेदन जमा किया था। उसके लगभग तीन माह बाद पुलिस इंस्पेक्टर पद पर चयन के अंतिम चरण में, मैं कमेटी के सामने इंटरव्यू दे रही थी। 

मुझसे प्रश्न किया गया था - "एक लड़की होकर, क्या आप अपने में इतनी शक्ति मानती हैं कि खूँखार अपराधियों को गिरफ्तार कर पाओगी?"

यह प्रश्न मेरे लिए सरल था। मैंने इसका उत्तर माँ को कही बात का स्मरण करते हुए दिया - "सर, जी हाँ! पुलिस इंस्पेक्टर की वेशभूषा मुझमें यह विश्वास दे सकेगी कि मैं इस वेशभूषा की महिमा और अपनी शक्ति सहित प्रत्येक खूँखार अपराधी को सलाखों के पीछे भेज सकूँगी।"

अगला प्रश्न मुझसे किया गया था - "कई व्यक्ति इस वेशभूषा की गरिमा को नहीं निभाते हैं, इस पर आपका क्या विचार है?"

मैंने कहा - "दूसरों की नहीं कहती, मैं अपनी कहती हूँ कि मैं पुलिस वेशभूषा की गरिमा को अपनी ओर से कभी कम न होने दूँगी।"

इसके बाद के प्रश्न औपचारिकता रह गए थे। मुझे चयन पत्र मिला था। 

मेरी माँ उस दिन आनंदित होने की अपेक्षा चिंतित ही अधिक लग रहीं थीं। जबकि मैं आत्मविश्वास से ओतप्रोत थी। मैंने सबको खिलाने के लिए लाए बूँदी के लड्डू, माँ को जबरदस्ती से चार खिलाए थे। 

बाद में मैंने प्रशिक्षण पूरा किया था। तत्पश्चात तीन से अधिक वर्ष की सेवा में मैंने कर्तव्यपरायणता का परिचय देकर पुलिस मैडल भी पाए थे। अब तक मेरी माँ भूल चुकीं थीं कि वे कभी, मेरे पुलिस की नौकरी करने को लेकर भयभीत रहतीं थीं। बीते वर्षों में मेरे आत्मविश्वास एवं साहस में और भी बढ़ोतरी हुई थी। 

पिछली रात मुखबिर से हमें सूचना मिली थी कि हमारे थाना क्षेत्र में कुछ या किसी गाड़ी से अवैध तस्करी की जाने वाली है। रात की चौकसी पर मेरे दूसरे इंस्पेक्टर साथी भी जाने को इच्छुक थे मगर अपने उत्साह में मैंने उन्हें मना किया था। 

मैं अकेली ही यह ड्यूटी करने पहुंच गई थी। रात में मैंने कई ट्रक एवं अन्य गुड्स व्हीकल की जाँच, उन्हें रोककर की थी। मुझे उनमें संदेहजनक कुछ नहीं मिला था। मैं कुछ भी हाथ लगता नहीं पाकर कुछ ऊब रही और कुछ थकी हुई थी। तब तड़के लगभग 3 बजे मुझे सामने से आती हुई एक गाड़ी की हेडलाइट दिखाई दी थी। इसे देखकर मैं सतर्क हुई थी एवं सड़क के बीचोंबीच आ खड़ी हुई थी। मैंने हाथ हिलाकर गाड़ी को रोकने का संकेत किया था। मुझे प्रतीत हुआ, ड्राइवर ने गति कम की थी। मैं आश्वस्त हुई थी कि मेरे रोके जाने पर गाड़ी रुक रही है। 

अचानक (गाड़ी) रुकने के स्थान पर, उसकी गति तेज हुई थी। मैं समझ पाई थी कि ड्राइवर मुझे गाड़ी से रौंद कर भागने की तैयारी में है। मैंने बचने के लिए एक ओर छलाँग लगाई थी। तब गाड़ी भी मेरी दिशा में आ गई थी। मैं अपने को उसकी चपेट में आने से बचा नहीं पाई थी। 

गाड़ी का पहले अगला चक्का एवं फिर पिछले दो चक्के, मेरी ऊपरी धड़ के ऊपर से निकल गए थे। मुझे क्षण भर के लिए तीव्र वेदना का अनुभव हुआ था। मुझे मेरी माँ का कहा स्मरण आया था - ‘तू समझ बेटी, लड़की में इतनी शक्ति नहीं होती कि वे खतरनाक गुंडे, बदमाशों का सामना कर पाएं।’  

मुझे लग रहा था - पीड़ा से मैं चीख रही थी, वेदना से मेरा पूरा शरीर छटपटा रहा था। फिर मुझे होश नहीं रहा था। 

अब मैंने स्वयं को शरीर मुक्त, एक विशालकाय भवन में पाया था। मेरे ज्ञान चक्षु के माध्यम से मुझे दिखाई दिया, वहाँ एक विशाल स्क्रीन लगी थी। जिसमें एक दृश्य दिखाई पड़ रहा था - 

मेरा मुर्दा शरीर डीप फ्रीजर में था। जिससे लिपट कर, मेरी माँ फफक फफक कर रो रही थी। विलाप करते हुए वह कह रही थी - बेटी तूने अपनी जिद कर के देख अपना कैसा हाल कर लिया है। तेरे पिता चले गए थे, अब तू भी मुझे छोड़ गई है। तूने जरा भी नहीं सोचा मैं तेरे पिता को इसकी क्या सफाई दे पाऊँगी, उन्होंने अपने बाद तेरी जिम्मेदारी मुझ पर छोड़ी थी। 

माँ का हृदय विदारक यह विलाप देख कर, मैं सोच रही थी अगर मेरी आँखें होतीं तो उनमें से अश्रु झर झर बह रहे होते, मेरा मुँह होता तो उसमें से विलाप के स्वर निकल रहे होते और मेरा मुखड़ा होता तो वेदना के भाव से वह विदीर्ण हुआ दिखाई पड़ रहा होता। यह मेरी आत्मा थी जिसमें मात्र अनुभूति शेष थी। अभिव्यक्ति का कोई माध्यम नहीं था। 

अपनी अनुभूति में मैं भगवान से शिकायत कर रही थी - भगवान मेरी नहीं आप मेरी माँ की दशा से तो संवेदना रखते, आप मुझे ऐसे मरने को तो नहीं छोड़ते। 

मुझे लगा था जैसे मेरी शिकायत भगवान तक पहुंच गई थी। मुझे ऐसा अनुभव हो रहा था जैसे भगवान कह रहे हैं - दुनिया को यह तेरा मरना दिख रहा है मगर मेरी योजना में, मैं तुझे प्रमोशन देने वाला हूँ। तुझे एक नया जीवन देने वाला हूँ। जो तेरे इस बीते जीवन से बहुत अधिक अच्छा होगा। 

मैं फिर सोच रही थी - "भगवान आप किसी अच्छे व्यक्ति को बुरे व्यक्ति के हाथों ऐसे क्यों मरवा देते हो? क्या आप दुष्ट का साथ देते हो?"

मुझे पुनः बोध हुआ जैसे भगवान बता रहे हों -" मैं किसी को दुष्ट पैदा नहीं करता हूँ। जो जीवन पाकर दुष्ट बन जाते हैं। उनको सजा मैं पहले उसी दुनिया में देता हूँ। फिर उनके अगले कई जीवन में यातना मुख्य करते हुए उन्हें सजा देता हूँ। "

मैं फिर सोचने लगी थी - "मेरे भगवान! यह दुष्ट तरह की प्रवृत्ति, आपने प्राणियों में डाली ही क्यों है?"

अब मुझे लगा जैसे भगवान कह रहे हैं -" मुझे यह सृष्टि अनंत काल तक बनाए रखनी है। यद्यपि मेरी अपेक्षा प्राणियों से सज्जनता की रहती है, फिर भी क्यों कोई, सज्जन और क्यों कोई, दुष्ट प्रवृत्ति रखते हैं, इसका उत्तर अनंत काल तक भी तुम प्राणियों के लिए रहस्य रहने वाला है।"   

मैंने इतना समझा था तभी मुझे लगा कि मैं तीव्र गति से उस विशाल भवन से निकाली गई थी। फिर मैंने स्वयं को छोटी सी अँधेरी जगह में पाया था। शायद यह एक माता का गर्भ था। कुछ ही क्षणों में मुझे अपनी बुद्धि एवं अनुभूति बहुत छोटी हो गई प्रतीत हुई थी तथा मैं पिछला सब विस्मृत कर चुकी थी …. 


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