Rahim khan KHAN

Abstract

4.5  

Rahim khan KHAN

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सस्वी-पुन्नु

सस्वी-पुन्नु

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सिंधु के किनारे बसा एक गांव सेवण, अधिकांश आबादी ब्राह्मण है, राज काज ब्राह्मणों का है, लोगों का जीवन अति धार्मिक है, हर काम काज मे धर्म व ज्योतिष का बड़ा महत्व है। इलाके का सरदार "नाहुं " इसी गांव मे रहता है। ब्राह्मण सरदार के उम्मीद है, सरदार संतान की आस मे बहुत खुश है। 

 समय बीतता गया, ब्राह्मण के घर बच्ची ने जन्म लिया। परिवार ने खुशी खुशी ज्योतिषि को बुलाया और बच्ची की कुण्डली खोलाई गई। ज्योतिषि बच्ची की कुंडली देख हेरान था। ज्योतिषि ने बताया कि इस बच्ची का वर कोई मुसलमान होगा। ब्राह्मण परेशानी मे पड़ गया। एक ब्राह्मण के लिए यह स्वीकार नहीं था। मसला उसकी लोकलाज व सम्मान का था।परिवार मे मंत्रणा हुई और तैय हुआ कि इस बच्ची को एक संदुक मे जिंदा बंद कर सिंधु मे बहा दिया जाए। फिर ऐसा ही हुआ और उस कन्या को संदुक मे बंद कर सिंधु नदी मे बहा दिया।

अरब सागर तट पर जहां सिंधु अपना दोआब बनाती है, वहां सिंधु के घाट पर बसा एक गांव है -भंभोर, जहां अधिकतर मल्लहा (मछुआरे) व कुछ धोबी रहते हैं।जहां महमूद नाम का एक धोबी रहता है। महमूद नदी के घाट पर कपड़े धोने का धंधा करता है। महमूद का परिवार बड़ा दुखी रहता है क्योंकि कि उनके कोई संतान नहीं है।

एक दिन महमूद घाट पर काम कर रहा है, उसकी नजर नदी की तरफ गई, उसे नदी मे एक संदुक तैरती हुई दिखी। कौतूहलवश वह नदी में उतरा, संदुक को खींच कर घाट पर लाया। जहां उसकी पत्नी भी थी।उन्होंने ने संदुक खोला तो हेरान रह गए। संदुक मे एक जिंदा व खूबसूरत लड़की थी। महमूद की पत्नी बहुत खुश हुई और कहा की हम इसे पालेंगे।

निःसंतान दम्पति ने बच्ची को पालना शुरू किया और उसका नाम रखा " सस्वी "

महमूद के घर सस्वी पलने लगी।

सस्वी बहुत ही हसीन थी। जब वह जवान हुई, तो उसके हुश्न के चर्चे चारों तरफ होने लगे। अब सस्वी महमूद के साथ घाट पर काम मे हाथ बंटाया करती थी।

बलोचिस्तान का एक इलाका है केच-मकरान, पहाड़ों, पर्वतों एवं हसीन वादियों का यह इलाका जहां बलोचों का "होत " कबीला राज करता है। जहाँ का सरदार है " आली जाम खान होत, बलोच "। सरदार कई सहजादे व बड़ा कुटुम्ब है, जो मेवों एव ईंत्र का कारोबार करता है। सरदार के कारोबार को संभालता था "जस्सु ", जस्सु हमेशा कारोबारी सफर किया करता था। वह लस्कर के साफ सिंध पंजाब, बलोचिस्तान व अरबों तक सफ़र किया करता था।

जस्सु का लस्कर करोबारी सफ़र पर था, घूमते फिरते वह शहर भंभोर जा पहूंचा। लस्कर ने शहर में अपने सामान की हाट लगाई। शहर में जब हाट की खबर हुई तो शोकीन मिजाज व जरूरतमंद लोग हाट पर जा कर खरीदारी करने लगे। इन्हीं खरीदारों में जस्सु की हाट पर एक दिन एक बहुत ही खूबसूरत हसीन नवजवान लड़की आई, जस्सु उसका हुस्न देख हेरान रह गया। जस्सु के दिलोदिमाग पर वह लड़की छा गई। जस्सु के मन मेंं कई सपने तैरने लगे।

सावन का महीना है, केच मकरान की वादियां फूलों से महकी है, जस्सु का लस्कर सफ़र से लौटा है, सरदार के सहजादे जस्सु से सफ़र के हाल अहवाल पूछने लगे। जस्सु सफ़र की कुछ बातें करता करता भंभोर की उस हसीन लड़की की बात चलाता है, जस्सु ने जो हुस्नो जमाल देखा था, उसने बंया कर दिया।

सरदार आली जाम खान का सहजादा बहुत ही शौकीन व इश्क मिज़ाजी था, अभी उसकी सादी भी नहीं हुई थी, उसका नाम है " पुन्नू "। पुन्नु ने जब जस्सु से भंभोर की उस लड़की के हुस्न की कहानी सुनी तो उसे देखने की मन में ठान ली। बस फिर क्या था, सहजादे का शौंक जाग गया, मन के घोड़े दौड़ने लगे, मन भंभोर की कल्पनाएं करने लगा।

सहजादा पुन्नु अपने पिता से कहता है कि इस बार वह व्यापार के लिए बाहर जाना चाहता है। सरदार ने सहजादे के लिए लस्कर तैयार करवाया, कारोबार के लिए मेवे, ईंत्र, मुषक -खथूरी वगैरा लाद दिए गए। पुन्नु लस्कर लेकर रवाना हो जाता है। पुन्नु के मन में भंभोर था बाकी सब बहाना था। इसी की तलाश में पुन्नु का लस्कर सिंध की तरफ चल पड़ा

दरया ए सिंध अपने आक्रोश मे बह रहा है, सामने अरब सागर अपनी लीलाएं दिखा रहा है। सिंधु व अरब सागर के आगोश मे शहर भंभोर अपना इतिहास स्वयं रचता है। शहर के लोगों ने देखा कि शहर के मैदान मे एक कारोबारी लस्कर ने अपना डेरा डाला है। भंभोर मे ऐसे लस्कर पहले भी खूब आते रहते थे लेकिन यह लस्कर शहर मे चर्चा का बायस बना हुआ था। शहर में गली गली चर्चा होने लगी कि कैच मकरान का कोई शहजाद है जो खुशक -खथुरी (श्रृंगार सामग्री ) बड़ी सस्ती दे रहा है , हजारों का माल टक्कों में दे रहा है। शहर की स्त्रियाँ सामान खरीदने के लिए आने लगी। पुन्नु सामान धड़ाधड़ बेच रहा था, सामान बैचना तो बहाना था पुन्नु का असल मक्सद तो उस सुंदरी की झलक पाना था जिसकी कहानी उसने जस्सु से सुनी थी।

शहर मे फैली चर्चा शहर मे रहने वाली सस्वी ने भी सुनी, तो वो भी एक दिन सामान खरीदने वहां जा पहूंची। बस फिर क्या था किसमत व हुश्न का रोमांस रंग लाया। सस्वी का हुस्न पुन्नु पर छा गया, पुन्नु भी तमाम खूबसूरत नव जवान था, सस्वी की आंखें भी अड़ गई।  खरीद-फरोख्त के बहाने कुछ गुप्तगु हुई, दो चार दिन आना जाना होता रहा बस फिर क्या था, दोनों एक दूसरे को दिल दे बैठे।

कुछ दिन सस्वी- पुन्नु का प्रेम पसमंज़र मे रहा लेकिन इश्क व धुआं छुपता कहाँ है। पुन्नु ने सस्वी का हाथ महमूद से मांग लिया। महमूद ने कहा हम गरीब धोबी हैंं, तुम कैच मकरान के शहजादे हो, यह संबंध कैसे होगा ?पुन्नु सस्वी के प्रेम मे गिरफ्तार था उसने कहा जो भी शर्त होगी कबूल होगी लेकिन सस्वी उसे चाहिए।

महमूद ने कहा हमारे यहाँ रिवाज है कि वर को पहले 6 महीनेंं ससुराल मे रहना होता है ,वर को ससुराल वालों का काम करना होता हैं। तुम्हें भी धोबी बन कर हमारे साथ रहना होगा। पुन्नु सस्वी के लिए कुछ भी करने को तैयार था उसने यह सब स्वीकार कर लिया। पुन्नु ने अपने साथियों को लस्कर के साथ वापस र वाना कर दिया और खुद महमूद के घर सस्वी के साथ रहने लगा।अब पुन्नु भी महमूद और सस्वी के साथ घाट पर जाता और कपड़े धोता। समय गुजरने लगा, सस्वी-पुन्नु एक दूसरे के लिए जीने मरने की कसमें वादे करने लगे और 6 महीने होने का इंतजार करने लगे।

ऊधर जब लस्कर जा कैच मकरान पहूंचा।सारा किस्सा सुनाया गया। सरदार आली जाम खान को पुन्नु का यह कदम नहीं जंचा। सरदार को अपने कबीले व खानदान की इज्ज़त का ख्याल सताने लगा। उसने अपने कई आदमियों को भंभोर भेजा ताकि पुन्नु को समझा बुझा कर वापस लाया जाए लेकिन सारी कोशिशें नाकाम होने लगी, पुन्नु नहीं माना। परिवार की सारी चिंताओं को दरकिनार कर पुन्नु ने सस्वी के साथ जीने मरने का अहद कर लिया।  मकरान वालोंं को मंजूर नहीं था, मशवरे होते रहे, पुन्नु को लाने की तरकीबें सोची जाने लगी। समय गुजरता गया, लगभग 6 महीने लगे।

भंभोर में भी पुन्नु के महमूद के घर का 6 महीने का समय नजदीक आने लगा, महमूद ने अपने वादे अनुसार पुन्नु सस्वी की सादी की तैयारी शुरू कर दी। शहर सजने लगा, सादी का दिन तय हुआ, चारों तरफ समाचार फैलने लगा।

सादी की खबर कैच मकरान तक पहंची, सरदार आलीजाम खान ने आखिरी हरबा अस्तेमाल किया, कुछ कोई खुफिया फैसला हुआ, सुबह होते ही सादी के साजोसामान के साथ एक लस्कर भंभोर रवाना किया गया।

भंभोर में सस्वी पुन्नु की सादी बड़ी धूम धाम से होती है।पुन्नु सस्वी एक दूसरे के हो जाते हैं। शहर सादी की खुशियां मना रहा है। अभी सादी को कोई तीन चार दिन ही बीते हैं, मकरान से लस्कर भंभोर पहूंचता है। भंभोर वालों ने जब लस्कर के हाल अहवाल पूछे तो पता लगा कि लस्कर पुन्नु की सादी के सामान व तोहफों के साथ सरदार आलीजाम खान होत बलोच ने भेजा है। जब यह खबर सस्वी के घर पहूंची तो परिवार खुशी से झूम उठा। सस्वी ने बड़े खुलुस के साथ लस्कर का अस्तकबाल किया। ऊंटों से सामान उतारा गया, ऊंटों के चारे की व्यवस्थाएं हुई।मेहमानों जमकर खातिरदारी हुई।भंभोर की खुशियाँ चार गुना हो गई।तोहफे बांटे गये रस्मो रिवाज अदा होने लगे। खुशी की दो राते और बीत गई।अगली रात कुछ अलग थी, शाम को महफिल ए मौशिकी हुई, रंग -रस हुआ, पीना -पिलाना हुआ। फिर मेहमान सो गए, आज पुन्नु भी मेहमान खाने में सोया।

सस्वी दिनभर की थकान के बाद आज पुरअमन होकर सो गई। भंभोर की फिज़ा में अंधेरी रात का पहले पहर का अंधेरा घिर आया। शहर शांत था, हर कोई सोया था , ऐसा लग रहा था। लेकिन उस शांत अंधेरी रात में मकरान से आए मेहमान सोए नहीं थे सोने का सिर्फ दिखावा कर कर रहे थे। वो इंतजार कर रहे थे सभी के सो जाने का।  रात गहराई, लस्कर वाले अपने मनसूबे पर अमल करने लगे, चुपचाप ऊंटों को तैयार किया सोए पुन्नु को नशा देकर बेहोश किया, उसे ऊंट पर लादा, रात के अंधेरे में चुपचाप लस्कर पुन्नु को लेकर मकरान की तरफ चल पड़ा।

भंभोर की अगली भौर बैचेनी से भरपूर थी। सस्वी सवेरे सवेरे उठी, इस उम्मीद के साथ कि उसे मेहमानों खातिरदारी करनी है।लेकिन ये क्या - न मेहमान, ऊंटों का लस्कर और न ही पुन्नु। सस्वी हेरान परेशान, लेकिन वह सारा माजरा समझ गई कि उसके साथ धोखा हुआ है। जिन मेहमानों की वह खातिरदारी कर रही थी वे मेहमान नहीं, पुन्नु के पीछे लगे अपहरणकृता थे।

सस्वी का सारी खुशी गम में बदल गई। उसका वर उससे छिन गया। पूरा भंभोर उसे तस्सली दे रहा था लेकिन वह पुन्नु पुन्नु कर रही थी। अब सस्वी के लिए भंभोर काम का न था उसे पक्का विश्वास था कि पुन्नु के साथ धोखा हुआ है, पुन्नु बैवफा नहीं हो सकता। 

सस्वी को कुछ ओर नहीं सूझा, बस पुन्नु पुन्नु पुकारती चल पड़ी लस्कर के पीछे।भंभोर के लोगों ने उसे समझाया कि कैच मकरान बहुत दूर है।बीच में जंगल है, पहाड़ है विरान डगर है, सूने पहाड़ों में जंगली जानवर है, गीदड़ बगड़ शेर भालू चीता है, उसे खा जाएंगे।लेकिन सस्वी ने किसी की परवाह न की। उसने अहत कर लिया कि जीना है तो पुन्नु को पा कर ही जीना नहीं राह में भटकते भटकते ही मर जाऊंगी। सस्वी लस्कर के पैरों के साथ साथ चल दी।

मकरान एक हजार मील के फासले पे था, बीच में सिंध के सेहरा व बलुचिस्तान के पहाड़ थे। लेकिन सस्वी चल पड़ी और चलती रही, भूखी प्यासी, रोती चिलाती, चलती रही।चलते चलते व आधा रास्ता पार कर गई।लेकिन सफर की मुश्किलों ने उसे पस्त कर दिया, बड़ी मुश्किल से उस मकां तक पहूंची जिसे आजकल लसबेला कहा जाता है, जो कि कराची से पश्चिमी में तुरबत के पास बडधता है। अब वह बहुत थक हार चुकी थी, वह पस्त हो कर गिर पड़ी फिर उठ ना सकी, कहते हैं एक बलौच चरवाहे ने उसे देखा, वह पुन्नु पुन्नु कर रही थी, चरवाहे ने उसे कुछ खाने पीने को दिया लेकिन उसने कुछ न खाया पिया, बस पुन्नु पुन्नु पुकारती रही। बस मरते मरते कह गई कि अगर कहीं पुन्नु मिल जाए तो उसे यह बता देना और बताना कि तेरी सस्वी बेवफा न थी, और इस सस्वी ने प्राण त्याग दिए। चरवाहे ने वहां कब्र खोदी और दफना दिया।  

उधर लस्कर ने अपना रास्ता तय किया, मकरान मकरान पहूंचा और पुन्नु को बंद कर दिया। कुछ दिन बाद पुन्नु को आजाद किया गया, बस फिर क्या था, पुन्नु के लिए सस्वी के सिवाय कुछ और न था, पुन्नु चल पड़ा भंभोर की तरफ।

सस्वी सस्वी पुकारता पुन्नु चलता रहा, सफर बहुत मुश्किल व तवील था। लेकिन चलता रहा।

पुन्नु पहाड़ों की खाक छानता हुआ आन पहूंचा उसी लसबेला की साराह पे, जहां सस्वी ने अपनी जान दी थी।

अब तक मकांंमी लोगों ने सस्वी की कब्र को मज़ार.बना दिया था।

पुन्नु सस्वी सस्वी करता जा उसी जगह पहूंचा। लोगों ने उसे सस्वी की कब्र दिखा कर सारी दास्तांं सुनाई। पुन्नु ने कहा बस मुझे मेरी मंजिल मिल गई है, वह वहीं बैठ गया और प्राण त्याग दिए।

इस प्रकार दो बिछड़े प्रेमियों का मिलन हो गया, दोनों अपनी वफाई का सबूत देकर अमर हो गए। लोगों ने सस्वी की कब्र के भर में पुन्नु की भी कब्र बना दी। लसबेला के मक्कांं पे आज भी सस्वी-पुन्नु की मज़ारें मौजूद हैं।

 यह दास्तान मूल रूप से सिंधी भाषा की हैं, सिंधी साहित्य में इस दास्तान पर खजाने भरे पड़े हैं।

सिंध के बहुत से शायरों ने इसे अपने अपने अंदाज में पेश किया है। सिंध के महान शायर शाह शांई ने अपने सुर "सस्वी-पुन्नु" में बहुत मारमिक अंदाज में पेश किया है।


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