Rahim khan KHAN

Abstract

3.6  

Rahim khan KHAN

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राष्ट्रवाद बनाम धर्मवाद

राष्ट्रवाद बनाम धर्मवाद

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इतिहास में कई बार यह प्रयास हुआ है कि धर्मवाद के सहारे राष्ट्रवाद को परवान चढ़ाया जाए लेकिन यह हमेशा असफल रहा है।

दुनिया के कई हिस्सो में धर्म को बुनियाद बना कर लोगों को मोटिवेट किया गया और एक मजबूत राष्ट्र बनाने का प्रयास किये गये; कुछ समय के लिए उनको सफलता मिली लेकिन जल्दी ही वहां आंतरिक असुरक्षा का माहौल बना; फित्ने पैदा हुए ; संघर्ष हुए और वे राष्ट्र दुनिया के पश्मंजर में पिछड़ गए।ऐसे उदाहरण योरप से लेकर मध्य पूर्व की इस्लामी दुनिया में मौजूद है।

यह बात कहने का मेरा उद्देश्य यह है कि अगर आज के दौर में भी अगर कोई इसी बुनियाद पर किसी राष्ट्र को अग्रेषित कर एक मजबूत राष्ट्र बनाने की कोशिश कर रहा है तो वह भी वही भूल कर रहा है।क्योंकि धर्म व राष्ट्र दो ऐसी संरचनाए हैं जो एक साथ मिलकर काम कर नहीं सकती। ऐसा क्यों इसे समझने के लिए हमे धर्म व राष्ट्र की अवधारणा को निष्पक्ष रूप से समझना होगा।

धर्म के बारे मे सोचते समय यह बहुत जरूरी है कि हम निष्पक्ष रहे लेकिन यह होना बहुत मुश्किल है।

निष्पक्ष रूप से अगर देखा जाए तो हम देखेंगे कि किसी भी धर्म ने अपने सिद्धांतो को किसी अन्य धर्म के सिद्धांतो से कम या बराबर होने की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी।यानी अपने धर्म को सर्वोच्च मानना ही अपनी सच्ची वफादारी होता है। धर्म की यही बात धर्म को अधर्म बनाती है।

इसके बरक्स राष्ट्र अपेक्षा करता है कि लोग समानता के आधार पर रहे; एक दूसरे के विचारो का सम्मान करे। इस कारण से ही राष्ट्र के लिए हमेशा धर्म एक समस्या ही रही है।धर्म के आधार पर राष्ट्र की कल्पना करने वाले आगे चलकर इसी द्वन्द का शिकार हो जाते है। राष्ट्रवादी विचारधारा हमेशा समझोतावादी होती है, वे बहुत हद तक धर्मवाद से सहिष्णुता के नाते समझौता करती है लेकिन धर्मवाद ने हमेशा उसका दुरुपयोग किया है ; मौका पाकर हमेशा धर्मवाद ने राष्ट्रवाद के लिए मुश्किले खड़ी की है।

आगे बढ़ने से पहले मैं यह स्पष्ट करना चाहता हू कि आखिर धर्म मे ऐसा क्या है जो कि राष्ट्र को स्वीकार्य नहीं। इस हेतु मैं थोड़ा धर्म के गढ के अंदर घुस कर बात करूंगा; किसी अन्य के धर्म को खंगालने से पहले मैं समझता हू कि अपने ही धर्म से शुरूआत करू।

मै एक मुसलमान हू; इसलिए कई दफे दीनी तकरीरो ;जलसो वगैरह मे शामिल हो लिया करता हू ; वहा कई बाते सुनने को मिल जाती है जो कि एक राष्ट्र के लिए काबिल ए कबुल नहीं होती। मसलन 

मौलाना साहब बड़े दावे के साथ फरमाते है कि दुनिया मे सच्चा धर्म तो सिर्फ इस्लाम ही है बाकी सब गुमराह है। जो नमाज नहीं पढता वो इंसान इंसान ही कहा ? इससे भी कड़वी बाते सुनने को मिल जाती है।

ऐसा सिर्फ यहीं नहीं बकिया धर्म भी कम नहीं !

आजकल हिन्दू धर्म के प्रचारक बड़े दावे के साथ सुने जा सकते है कि सारे लोग मूल रूप से हिन्दू ही है इसलिए सब को हिन्दू ही हो जाना चाहिए; 

राम तो सभी के पूर्वज है ; सभी को ब्रह्मा ने ही पैदा किया है; इससे आगे तक की बाते सुनी जाती है।

सब धर्म इसी प्रकार की बातो से चलते है।जो बहुत संकीर्ण सोच की हामिल होती है।

यही वह वजह है जो आदमी आदमी के बीच खाई पैदा करती है; वैचारिक मतभेद व संघर्ष पैदा करती है और राष्ट्र की परिकल्पना के लिये बाधा उत्पन्न करती है।

पिछले कुछ दसको से भारतीय जन मानस को भी इसी धर्मवाद की तर्ज पर संगठित करने का प्रयास किया जा रहा है।लेकिन इन का भी यही हाल होने वाला है। भारतीय समाज बहुत सी संस्कृतियों का मिश्रण है। यहा सभी धर्मो के लोग रहते है ; इस कारण धार्मिक द्वन्द व वैचारिक वैमनस्य का बहुत अधिक खतरा रहता है। इन परिस्थितियो मे राष्ट्र के अस्तित्व को बचाने के लिए धर्म पर चैक एंड बैलेंस की पोलिसी लागू करना चाहिए। आजादी के बाद राष्ट्र निर्माताओ व संविधान निर्माताओ ने इसे समझा भी और चैक व बैलेंस की नीति लागू करने के लिए प्रावधान भी किए। लेकिन समय के साथ यह कमजोर होते गए। 

इन्ही परिस्थितियो मे राष्ट्रवादी लोग दरकिनार होते गए और धर्मवाद का प्रयास तेज होता गया।

धर्मवादी फिर उसी गलतफहमी का शिकार हो गए कि वे धर्म के सहारे मजबूत राष्ट्र का निर्माण कर लेंगे। और यह लाॅबी इसी गुमराही मे उलझी हुई है।

आज यह बहुत जरूरी है कि लोगो को समझाया जाए कि धर्म की बुनियाद पर सफल राष्ट्र खड़ा नहीं किया जा सकता। कुछ समय के लिए हमे ऐसा लगता है कि हम अपने मकसद मे सफलता पा रहे है लेकिन आगे चलकर इस मार्ग मे बहुत खतरनाक हालात पैदा हो जाते है।

भारतीय परिवेश मे अगर धर्मवाद को स्वछंद किया जाए तो हम देखेंगे कि इस्लाम परस्त हिदुत्व को मिटाने की चेष्टा करेंगे ,हिन्दुत्व इस्लाम का अस्तित्व मिटाने की चेष्टा करेगा ; इतना ही नहीं दलित का अस्तित्व स्वर्णो को गवारा नहीं; और यहीं से मानविय संघर्ष पैदा होता है और ये सब राष्ट्र के अस्तित्व को ध्वस्त करते है।

यहां एक और बात भी महत्वपूर्ण है; हर दौर मे समाज मे क्राईम मौजूद रहता है; क्राइम अपने आप को बचाने के लिए धर्म की आड़ आसानी से प्राप्त कर लेता है और वह धार्मिक वैधानिकता हासिल कर लेता है जो कि एक राष्ट्र के लिए काबिल ए कबुल नहीं हो सकता।

राष्ट्रीय महत्व के लिए धर्म पर चैक एंड बैलेंस रखना कोई नई बात नहींं है। भारतीय इतिहास मे जितने भी महान साम्राज्य हुए है उन सभी ने अपने अपने तरीके से धर्म पर कड़ी नजर रखी है। उन्होंने हमेशा उन धार्मिक विचारो को राज्य व राष्ट्र की नितियों से दूर रखा जो कि प्राकृतिक न्याय के अनुरूप नहींं होते थे।

भारत एक विविध संस्कृतियों व धर्मो वाला देश है।अगर कोई यह समझे कि यहा धार्मिक मान्यताओ को हवा दे कर सफल राष्ट्र कायम रखा जा सकता है तो यह उनकी गलतफहमी है। अगर कोई सरकार अपनी जनता को कल्याणकारी व प्रगतिशील राष्ट्र देना चाहती है तो उसके लिए यह जरूरी है कि वह धार्मिक मिथ्या व संकीर्ण धारणाओ को हवा देने के बजाय उनको रोकने की कोशिश करनी चाहिए।देश के जनमानस मे विज्ञान व तर्क के आधार प्रगतिशील विचारो का संचरण किया जाना चाहिए। 

धर्म का मूल अंधविश्वास होता है; कोई भी धर्म हो वह वर्तमान स्थिति को लेकर वास्तविकता को समझने के बजाय प्राचीन चमत्कारो की दुनिया दिखा कर मनुष्य को दैवीय शक्ति का भय दिखाकर उसकी विचारधाराको संकीर्ण व रूढ़िवादी बनता है।

आज के परिपेक्ष मे भारतीय जनमानस को यह चोला चढ़ाया जा रहा है जो कि भारतीय राष्ट्र के लिए बहुत ही खतरनाक साबित होगी।हमे इस खतरे को समय रहते समझना चाहिए वरना हम देश को रूढ़िवाद व धार्मिक संघर्ष के भंवर मे फंस्सा बैठेंगे। देश के जागृत नागरिकों को देश मे वैज्ञानिक सोच व सामाजिक सहअस्तित्व की विचारधारा को बढ़ावा देना चाहिए।भारत जैसे देश के लिए यह शोभा नहीं देता है कि वह मध्यकालीन धार्मिक उन्माद को वापस स्थापित करे बल्कि उसे राष्ट्रीय विचार की वैश्विक सोच को कायम करना चाहिए और धर्मवाद को स्वछंद न छोड़े बल्कि उस पर चैक एंड बैलेंस की पोलिसी लागू करना चाहिए।


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