Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win

Rahim khan KHAN

Abstract

4.0  

Rahim khan KHAN

Abstract

दोदो चनेसर

दोदो चनेसर

4 mins
319


ईसा की 8वी सदी के आरंभ तक सिंध पर अरबों ने आधिपत्य कर लिया था।अरबों का यह दौर लगभग 250 वर्षों तक रहा।11वी सदी के मध्य तक अरबों की पकड़ सिंध में कमजोर होने लगी और वहां फिर से राजपूत देशी रजवाड़े उभरने लगे।इन्हीं मेंं सिंध पंजाब व कच्छ के इलाकों मे दो प्रमुख रजवाड़े उभरे- सूमरा एव सम्मा

सिंध के इतिहासकारों ने सूमरों को परमार वंश व सम्मोंं को जाड़ेजा वंश से जोड़ा है।

1050 ई. के आसपास कच्छ व दक्षिण पूर्वी सिंध मे सम्मों व थट्टा , नगरपारकर व अमरकोट मे सूमरों ने अपना राज्य स्थापित किया।

लगभग 300 वर्षों तक इस इलाके में सूमरों का राज रहा। सिंध के इतिहास में सूमरों का दौर अमन ,बहादुरी, ,साहित्य सांस्कृतिक विरासत का गोल्डेन एरा माना गया हैं । सिंध के साहित्यिक स्रोतों में मौजूद तमाम दास्तानों के पात्र इसी दौर मे हुए हैं। मूमल-राणों,उमर-मारवी, सौरठ,दोदो-चनेसर आदि सभी इसी दौर मे हुए थे।

सूमरों के आखिरी दौर मेंं थट्टा (उस समय का रूपगढ़) पर भ़ूगर सूमरो का राज था।राजा ने दो सादियां की थी ,एक रानी खानदानी थी, दूसरी को राजा प्रेम प्रसंग से सादी कर लाए थे ।राजा भूंगर की दोनों रानियों के एक एक पुत्र हुआ। जो खानदानी रानी थी उसका पुत्र दोदो व दूसरे वाली का पुत्र था चनेसर।

13वी सदी ई. के मध्य (1350ई. लगभग) मेंं राजा भूंगर की मृत्यु हो गई। जिसके बाद रूपगढ़ की राजगद्दी के लिए दोनों भाई आमने सामने हो गए।दोदो का पक्ष हावी रहा क्योंकि उसकी मां राजघराने से थी ,चनेसर का पक्ष कमजोर रहा, क्योंकि कि उसकी मां की तरफदारी करने वाला कोई नहीं था।

दोदो को राज पाट मिला ,चनेसर नाराज होकर वहां से निकल पड़ा।

चनेसर ने दिल्ली का रूख किया। उस समय दिल्ली पर अल्लाउद्दीन खिलजी की हकुमत थी।चनेसर मदद के लिए अल्लाउद्दीन खिलजी के दरबार मेंं हाजिर हुआ।

चनेसर व अल्लाउद्दीन के बीच एक समझौता हुआ कि अल्लाउद्दीन चनेसर को रूपगढ़ का राज दिलाएगा बदले में दोदो की बहन ब़ाग्गी (बागुल बाई) को अल्लाउद्दीन को दिया जाएगा। चनेसर के इस कदम को सिंध के इतिहास व साहित्य में एक कायराना कदम बताकर सदियों से उसे दुत्कारा जाता रहा है। सिंधी काव्य मेंं इस पर खजाने भरे पड़े हैं जिसमें चनेसर के इस कृत्य को सिंध के इतिहास का कलंक व दोदो को सिंध का दिलेर कहा गया है।

 1352 ई. में दिल्ली की फौज ने रूपगढ़ के सामने अपना खेमा दाला ,दोदो को संदेश भेजा गया -सत्ता चनेसर को सुपुर्द करें, व बागुल (बाग्गी) अल्लाउद्दीन के हवाले की जाए।

दोदो के लिए बहुत मुश्किल घड़ी थी ,राजपूतों के लिए मानमर्यादा का सवाल था। दोदो बहुत दिलेर व खुद्दार राजा था ,उसने हथियार दालने की कायरता के बजाए युद्ध का निर्णय लिया। दोदो को इस दिलेरी के लिए सिंध का आज भी हीरो माना जाता है।सिंध में ऐसा सायद ही कोई कवि ,लेखक या इतिहासकार हो जिसकी कलम ने दोदो का बखान न किया हो।

दोदो एक इलाकाई राजा था ,छोटी सी सेन्य ताकत थी, जबकि दुश्मन की सेना बहुत बड़ी ताकत मे थी, हार सामने थी फिर भी दोदो ने अपनी तैयारी की ,घर की औरतों व बच्चों को पडौसी सम्मो राजा अबडो के वहां भेजा और युद्ध छेड़ दिया । युद्ध मे दोदो के सूरवीरों ने ऐतिहासिक वीरता का मुजाहिरा किया । सिंध के कई तात्कालिक गाहों (छंदो) मे सूमरों की वीरता का बखान किया गया हैं । भागू भाणू नामक एक सिंधी काव्यकार ने वर्णन किया है कि -"सारा सिंध टूट पड़ा था ,उस दिन ,ना कोई मौमिन था ना कौई ठाकुर (राजपूत) , बाग्गी की बांह (इज्ज़त) बचाने घर की मटकियां भी दुश्मन के सर फोड़ दी ,"

आखिर दोदो व उसके साथी शहीद हो गए , स्त्रियों ने जो घेरे में थी जोहर कर लिया ।

जीत के बाद जब बाग्गी की तलाश की गई तो वह नहीं मिली। काव्यों मे मिलता हैं कि जब दोदो की लाश चनेसर के सामने लाकर उसको लात मारी गई तो चनेसर को गुस्सा आ गया और उसने उस लात मारने वाले सिपाही पर हमला कर दिया ,फिर चनेसर का भी कत्ल कर दिया गया।

यह वाक्या कहीं 1352 व कहीं 1356 ई. को बताया जाता है। इसके साथ ही सूमरों का दौर खत्म हो जाता है।

दोस्तों इतिहास मे सूमरों के दौर का प्रमाणिक इतिहास बहुत कम मौजूद हैंं इसलिए इस दौर का इतिहास सिर्फ कुछ काव्य वर्णनों के आधार पर तैयार किया जाता रहा हैं। मैंने भी कई काव्यों के आधार पर यह तैयार किया है।

कुछ गलतियां हो सकती हैं।


Rate this content
Log in

More hindi story from Rahim khan KHAN

Similar hindi story from Abstract