सरकारी बाबू
सरकारी बाबू
रामानंद आज बहुत प्रसन्न था| घर से उसकी माँ सुलोचना ने उसे दही और गुड खिलाकर भेजा था| आज उसे लग रहा था जैसे की उसके जीवन के समस्त परिश्रम का पारितोषिक उसे मिलने वाला है| सामान्य कद काठी का, गेहुएं रंग का, एक सुंदर युवा था राम| स्वाभाव से बहुत ही मधुर और मेहनती| "राम" सब उसे ये ही कहकर बुलाते थे|
वो सीधा कॉलेज के प्रधानाचार्य कक्ष में पहुंचा| आसपास के सारे देहात में सबसे बड़ा कॉलेज था ये| इंटर कॉलेज और डिग्री कॉलेज एक साथ ही थे| राम ने यहीं से स्नातकोत्तर तक शिक्षा पूर्ण की थी| बंदायू के सहसवान देहात का बी. एच. यु. था ये विद्यालय| समस्त देहात के बच्चे इन दोनों विद्यालयों से ही पढ़कर निकलते थे|
राम डिग्री कॉलेज के प्रधानाचार्य कक्ष में जाकर कुर्सी पर बैठ गया| अभी प्रधानाचार्य मिश्र जी नहीं आये थे| चूने की चिनाई का पुराना निर्माण था विद्यालय का| अब विद्यालय में नए कमरे भी बन गए थे लेकिन कार्यालय पुराने कमरों में ही था, क्योंकि ये ठन्डे थे| पुराने अंदाज की लकड़ी की कुर्सियां और मेज विद्यालय के प्राचीन उत्कर्ष को इंगित करती थी| कुछ देर बाद धोती कुर्ता पहने 50 वर्ष से ऊपर के मिश्र जी कक्ष में आये| राम ने तुरंत उनके चरण स्पर्श किये| मिश्र जी ने आशीर्वाद दिया और अपनी कुर्सी पर बैठ गए| राम चेहेरे पर उत्सुकता लिए खड़ा था| मिश्र जी ने उसे बैठने का इशारा किया| राम बैठ गया, मिश्र जी शांत थे और राम की अधीरता बढती जा रही थी|
राम ने अधीरता को नियंत्रित करते हुए पूछा "गुरूजी आज तो मेरी जोइनिंग हो जाएगी"
मिश्र जी कुछ कागज पढ़ रहे थे| वो एकदम से जडवत हो गए| कुछ देर कागज को ही देखते रहे और फिर बेहद ही मलीनता के साथ बोले "राम वो जोइनिंग तो हो गयी कल ही| पाण्डेय जी आये थे बंदायूँ से, करवा गए|"
राम के आँखों के आगे जैसे अँधेरा छा गया| उसे कुछ समझ नहीं आया उसने स्वयं को नियंत्रित करते हुए प्रश्न किया "कैसे गुरूजी, किसको ज्वाइन करवा दिया? मैं कुछ समझा नहीं"
मिश्र जी हाथ जोड़ने की मुद्रा में बोले "मुझे माफ़ कर दे राम, मैं कुछ नहीं कर सका| पता नहीं क्या सेटिंग की पाण्डेय जी ने? अतनोली का वो जो लड़का तुम्हारे साथ ही पढता था, 'ब्रिजेश' उसको ही ज्वाइन करवा दिए"
पाण्डेय जी के दादा जी ने कॉलेज की स्थपाना की थी तो आज तक प्रबंधन उनके परिवार के हाथो में चला आ रहा था| बंदायूँ का एक संपन्न परिवार था पाण्डेय जी का|
राम की आँखों में पानी आ गया था| वो अपने दोनों हाथो को आपस में मसल रहा था|
मिश्र जी अपनी कुर्सी से उठकर उसके कंधो पर हाथ रखकर कहा "सब दुष्ट हैं... पता लगा कि पाण्डेय जी ने 8 लाख रूपये लेकर ज्वाइन करवाया| मैंने पूछा तो बोले कि शिक्षा अधिकारी से लेकर ऊपर तक देना पड़ेगा, राम कहाँ से देता? अब हमें तो कॉलेज चलाना है ना|"
राम का मन कर रहा था कि जी भर कर रोये, चिल्लाये| लेकिन उसने संयत होते हुए कहा " गुरु जी पिछले पाँच वर्ष से मै यहाँ सेवाएँ दे रहा था, कुछ नहीं लिया| जब पाण्डेय जी को जरुरत होती वो बुला भेजते थे| उनके घर की भी चाकरी की, बल्कि उनके रिश्तेदारों तक के यहाँ जाकर चाकरी की| इस आशा में की एक बार यहाँ बाबु की पक्की सरकारी नौकरी मिल जाये| मुझे ही पता है गुरु जी मेरी माँ ने कैसे दिन काटें हैं? अब क्या कहूँ उनसे जाकर?"
इतना कहते कहते राम की दोनों आँखों से अश्रु धारा बह निकली|
मिश्र जी ने उसके सर पर हाथ फेरते हुए उसे दिलासा देने के अंदाज़ में कहा "शांत हो जा राम भगवान् नए रास्ते भी खोलता है| मेरी खूब झड़प हुई पाण्डेय जी से, फिर मैंने उन्हें एक शर्त रख दी और वो मान भी गए| अब तू इंटर कॉलेज में पढ़ाना शुरू कर| मैंने कह दिया है कि अब बेगार नहीं करेगा राम| तो वो तुझे पाँच हज़ार रूपये महिना देने को तैयार हो गए हैं| घर के घर पाँच हज़ार बुरे नहीं बेटा"
राम ने मिश्र जी को कोई उत्तर नहीं दिया और उनका हाथ कंधे से हटाकर चल दिया| राम स्वयं में ही मगन कॉलेज से बाहर आ गया| कॉलेज से कुछ दूर ही बाग़ था| राम उसमें आकर बैठ गया| राम के मस्तिष्क में भूत-भविष्य दोनों घूम रहे थे|
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राम के पिता की मृत्यु बचपन में ही हो गयी थी| कई संतानों में ये ही एक संतान जीवित रही थी| पिता की मृत्यु के बाद राम की माँ सुलोचना ने ही पाला राम को| वो गाँव में मेहनत मजदूरी करती थी| ब्राह्मण होने के कारण हर घर में मजदूरी नहीं करती थीं| लेकिन गाँव समाज का सहयोग भी बहुत था| सुलोचना ने कभी भी अपने सम्मान पर कोई आँच नहीं आने दी| कोई जमीन जायदाद तो थी नहीं तो बस मजदूरी ही एक विकल्प था खाने कमाने को| घरो में काम काज किया करती थी सुलोचना|
राम ने पढ़ाई पूरी करने के बाद मिश्र जी से एक दिन कहा "गुरु जी कहीं बोलकर कोई नौकरी लगवा दीजिये| अब माँ और कितने दिन हड्डियाँ पेलेंगी| कहीं कोई काम लग जायेगा तो आराम मिलेगा उन्हें"
मिश्र जी के पास जब भी राम आ जाया करता था तो वो उससे कार्यालय का काम करवा लिया करते थे| पुराने बाबू अब सेवानिवृत्त होने वाले थे, तो बाहर जाने का काम नहीं कर पाते थे या करना नहीं चाहते थे| तो इस तरह के काम भी राम को दे दिया करते थे मिश्र जी| पढ़ाई के समय से ही मिश्र जी को ख़ास लगाव था राम से| वो काफी प्रभावित थे राम की सज्जनता से|
मिश्र जी ने कहा " राम, बाबु जी रिटायर होने वाले हैं दो साल बाद| फिर ये जगह खाली हो जाएगी| मैं कहता हूँ तू रोज आ और काम देख| पाण्डेय जी की दृष्टी में भी आ जायेगा तो वो भी तेरे बारे में ही सोचेंगे और मेरी बात भी हो गयी है उनसे इस सम्बन्ध में| शहर जाकर पाँच चार हज़ार की नौकरी लग भी गयी तो हज़ार तो उसमें से आने जाने का ही खर्चा आ जायेगा| आगे को तेरा ब्याह भी होगा, बच्चे भी होंगे, कैसे करेगा? तेरी माँ से भी बात हुई थी मेरी, वो भी तैयार हैं| भाई जहाँ इतने दिन दुःख उठाये हैं थोडा और परिश्रम कर ले| सरकारी नौकरी हो जाएगी बेटा|
राम के चहरे पर ख़ुशी छा गयी| ब्याह के नाम से तो उसका चेहरा कुछ लाल भी हो गया था| राम उठकर कार्यालय में आ गया| आकर बैठा ही था कि रचना आ गयी| रचना विद्यालय में ही स्नातक द्वितीय वर्ष की छात्रा थी| पास के ही गाँव की थी| अक्सर कार्यालय में आती थी तो राम से मुलाकात होती थी| कभी-कभी हसी ठिठोली भी हो जाती थी| धीरे-धीरे ये हास्य-विनोद दोनों तरफ प्रेम को अंकुरित कर रहा था|
रचना ने राम को छेड़ते हुए कहा "बाबु जी कब तक बेगार करते रोहोगे यहाँ? कोई नौकरी वौकरी भी देख लो| शादी ब्याह हो जायेगा..... नहीं तो कोई नहीं पूछेगा"
राम आज कुछ अलग ही उत्साह में था| आज उसने रचना के हाथ पर अपना हाथ रख दिया "तेरा बाप सरकारी बाबू से तो तेरा ब्याह कर ही देगा?"
रचना जो उसके हाथ की छुवन से ही सिहर गयी थी इस बात पर तो अचकचाकर बोली "क्यों?"
राम : बस बताओ, कर देंगे या नहीं
रचना :मेरे पिताजी तो मेरा ब्याह ही किसी सरकारी नौकरी वाले से करेंगे| तो सरकारी बाबू से करने में क्या हर्जा है उन्हें?
राम : मिश्र जी जी ने कहा है की बाबु जी तो रिटायर हो रहें हैं| मैं यहाँ लगा रहू तो उनकी जगह मुझे ही पक्का करवा देंगे| पाण्डेय जी से भी बात हो गयी है|
रचना के चहरे पर एक ख़ुशी की लहर दौड़ गयी| उसने बस इतना ही कहा "सच"
राम : झूठ क्यों बालूँगा? वो भी तुझसे| किसी से जिक्र मत करना| बस अपने पिताजी को मना लेना|
इतना कहते ही राम की दृष्टि झुक गयी| रचना भी शर्मा कर वहाँ से चली गयी| आज पहली बार दोनों ने अपने प्रेम को स्वीकार किया था|
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रचना के ही गाँव में एक संपन्न ब्राह्मण परिवार था अशोक तिवारी जी का| उनके बस एक पुत्री थी शुशीला| अपने नाम के अनुरूप ही गुनी और रूपवान थी अशोक तिवारी की पुत्री| काफी जमीन और धन था अशोक तिवारी जी के पास, बस पुत्र ही नहीं हुआ था| उन्होंने पुत्री का विवाह एक संपन्न परिवार में तब ही कर दिया जब पुत्री ने बारवीं ही पास की थी| मुश्किल से 16 या 17 वर्ष उम्र रही होगी| हालाँकि ये कानूनन अपराध है लेकिन देहात में सामाजिक परम्पराओं में संविधान का हस्तक्षेप सामन्यतया नहीं होता|
तिवारी जी ने शुशीला का ब्याह एक संपन्न शहरी परिवार में बहुत धूमधाम से किया था| लड़के के परिवार की जीवन शैली शहरी थी| तिवारी जी ने बहुत ही अच्छा इंतजाम किया था विवाह का लेकिन फिर भी बारातियों को और लड़के वालो को पसंद नहीं आया था| खूब हंगामा किया दुल्हे ने|
लेकिन अशोक जी ने हाथ जोडकर सारी रश्मे पूर्ण की|
दुर्योग ही था कि शुशीला जैसी शुशील लड़की भी उसके पति को पसंद नहीं आई| क्योंकि उसे तो कोई शहरी लड़की चाहिए थी| पहले दिन से ही शुशीला का जीवन दूभर हो गया था| एक बार मायके वापस आई तो फिर दुबारा ना जा पाई ससुराल| शुशीला ने तो अपने घर वालो से अपनी कोई पीड़ा नहीं बताई लेकिन लड़के वाले ही रखने को तैयार नहीं थे| बाद में पता चला लड़के का कहीं और प्रेम प्रसंग था| अशोक तिवारी जी की जमीन जायदाद के कारण लड़के के पिता ने ये विवाह करवा तो दिया, परन्तु बाद में लड़के को ना समझा पाए|
17 वर्ष की आयु में ही बिटिया का विवाह भी हो गया और तलाक भी| अशोक तिवारी सज्जन व्यक्ति थे इसलिए ज्यादा कोर्ट कचहरी में ना पड़ते हुए इश्वर की इच्छा मानकर सब स्वीकार कर लिया|
अशोक जी के जीवन की समस्त उमंग समाप्त हो गयीं थी| लेकिन फिर किसी ने उन्हें राम के बारे में बताया|
राम पढ़ा-लिखा और सम्मानित युवक था| बताने वाले ने बताया "तिवारी जी लड़के के माँ है बस| बेचारी समय की मारी है| बेटा छोटा ही था जब पति की मौत हो गयी| मजदूरी करती है परन्तु अत्यंत स्वाभिमानी हैं| लड़का कॉलेज में टेम्परेरी बाबु है| देख लीजिये तिवारी जी पैसा ना सही पर लड़का हीरा है और पैसे से आपको लेना भी क्या? इतनी सब जायदाद शुशीला बिटिया की ही है| लड़का पढ़ा लिखा और बहुत ही सज्जन है|
अशोक तिवारी जी शहरी और धनवान परिवार का अनुभव कर चुके थे| अब तो वैसे भी पुत्री पर परित्यक्ता का दोष लग गया था तो समझौता तो करना ही था| निश्चित नहीं था कि कोई गरीब लड़का भी मान जायेगा क्या?
लेकिन राम के बारे में सुनकर उन्हें ख़ुशी हुई और मुहँ से एक बात ही निकली "पहले बता देते... मैं तो पहले ही इससे कर देता, कम से कम ये दुःख तो ना देखना पड़ता बिटिया को"
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अशोक तिवारी जी राम के घर पहुँच गए| जब उन्होंने अपनी बिटिया के बारे में सुलोचना से बताया तो सुलोचना को शुशीला से एक आत्मीय सम्बन्ध सा जुड़ा महसूस हुआ| उसने भी लम्बा जीवन विधवा के रूप में बिताया था|
तिवारी जी ने सुलोचना से हिचकते हुए कहा "देखिये सुलोचना जी आपका लड़का हीरा है, आपका भी बहुत सम्मान है| बाकी मेरी दृष्टि में धन से ज्यादा सम्मान ही मायने रखता है| मुझे पहले किसी ने बताया होता तो मैं अपनी बेटी का रिश्ता आपके बेटे से ही करता| "
सुलोचना कृतज्ञता के साथ उनकी बात सुन रही थी| तभी राम भी घर आ गया| राम ने आते ही तिवारी जी के और अपनी माँ के पैर छुए और आँगन में ही दूसरी खाट लाकर बैठ गया| सुलोचना ने राम से अशोक तिवारी जी का परिचय बताया|
अशोक तिवारी राम को देखते हुए बोले "अच्छा है तुम भी आ गए|"
अशोक तिवारी फिर थोडा हिचकते हुए बोले "देखिये मेरी बात को अन्यथा मत लीजियेगा| बेटा आपके कॉलेज से ही मेरी बेटी बी ऐ कर रही है आप जानते होंगे, 'शुशीला'| मैं अपनी बेटी का रिश्ता राम के लिए लेकर आया हूँ"
इतना कहकर अशोक जी थोडा सकपका भी गए और फिर बोले "देखिये मैं जानता हूँ मेरी बेटी पर एक दाग लगा है परित्यक्ता का| लेकिन वो एकदम कुंदन है बहनजी| उसका भाग्य ख़राब था जो ये दाग लगा| आपकी इच्छा है हाँ कीजिये या ना, मैं तो एक निर्भागी बेटी का बाप हूँ... धक्के खाऊंगा ही बेटी का जीवन बनाने को"
सुलोचना कुछ बोलती तुरंत राम बोल पड़ा "जी अच्छी तरह से जनता हूँ शुशीला को| पहले तो आप उसे परित्यक्ता मत कहिये और ना ही कोई दाग है उसपर| और दुर्भाग्य शुशीला का नहीं उस लड़के का है जिसने शुशीला जैसी जीवनसंगिनी को खो दिया| कोई भी लड़का और परिवार भाग्यशाली होगा जिसकी बहु बनेगी शुशीला| लेकिन मैं आपसे क्षमा चाहूँगा... मैं अभी विवाह नहीं कर सकता|"
सुलोचना के लिए अब कुछ ज्यादा कहने को रह नहीं गया था|
राम के मन में रचना बसी थी तो उसे तो मना करना ही था|
अशोक तिवारी जी ने आगे कोई आग्रह नहीं किया|
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राम का जीवन इस रोज की बिगार में चलने लगा था| जब कहीं बाहर जाता था तो उसे खर्चा मिलता था| कभी-कभी कुछ पारितोषिक भी मिल जाया करता था| पाण्डेय जी को जब भी जरुरत होती बुलवा लेते थे अपने काम करवाने को| यहाँ तक की उनकी बेटी की ससुराल में कानपूर तक भेजा था राम को| जब कोई पारिवारिक समरोह या कार्यक्रम होता था तो उसमें प्रबंधन सँभालने को राम को ही बुलाया जाता था|
राम और उसकी माँ एक सुखद आशा में जीवन काट रहे थे कि राम सरकारी बाबू बन जायेगा|
राम और रचना अपने जीवन के स्वप्न बुन रहे थे|
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राम झटके से विचार प्रवाह से बहर आया देखा दोपहर सर पर चढ़ गयी थी| उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या बताये अपनी माँ से और रचना से? चलो कोई मजदूरी करके माँ का तो पेट भर भी लेगा लेकिन रचना से ब्याह ना हो पायेगा, कैसे सहेगा इस विरह को वो?
राम घर चला गया|
माँ इंतज़ार कर रही थी|
राम के पहुँचते ही सुलोचना ने वो ही प्रश्न किया "क्या हुआ इतना समय कैसे लगा? काम तो पक्का हो गया ना आज?"
राम का घर दो कमरे और एक बरामदे का एक पुराना मकान था| एक छप्पर पड़ा था जिसमें गाय बंधती थी|
राम को कुछ नहीं सुझा और वो अपनी माँ के गले लगकर छोटे बच्चे की तरह फुट-फुट कर रोने लगा| सुलोचना को समझ आ गया था कि कुछ अनर्थ हो गया है|
जैसे तैसे सुलोचना ने राम को शांत किया और तब उसने सब कुछ बता दिया| सुलोचना पर जैसे वज्रपात हो गया था| वो भीतर से एकदम बिखर गयी थी| लेकिन राम की हालत देखकर उसने स्वयं को नियंत्रित किया और बोली "बेटा ना ही तो सब सरकारी नौकरी करते हैं और ना ही सब सेठ होते हैं| तेरी माँ ने तो मजदूरी की है लेकिन सम्मान में कोई कमी नही आने दी| तू परेशान मत हो अब इस कॉलेज का चक्कर छोड़ और कोई अलग नौकरी देख ले| भगवान् सब भला करेंगे...... इतनी सी बात से इतना परेशान हो रहा है| मैं तो वैसे भी खुश ना थी इस बाबू गिरी से| गाँव से बाहर निकलेगा तो कुछ नया सीखेगा| चल अब खाना खा ले,
पागल छोटी सी बात पर इतना मरा जा रहा है"
राम को कुछ दिलासा मिली थी लेकिन उसका मन अभी भी विचलित था| थोडा-बहुत खाकर दोनों सोने चले गए|
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राम रोज घर से निकलता और उस ही बाग़ में जाकर बैठ जाता था| आज भी राम जैसे ही घर से चलने को हुआ तो सुलोचना ने राम को रोका और अपने पास बैठाया।
सुलोचना राम से बोली "राम परसों अशोक तिवारी जी मिले थे| एक बार फिर बोले उनकी लड़की के बारे में| राम ये मत समझना कि मैं उनकी संपत्ति के कारण तुझे उनकी लड़की से विवाह करने को कह रही हूँ| राम मैंने तेरे पिता के बिना जीवन बिताया है एक विधवा के रूप में| एक विधवा से भी ज्यादा मुश्किल जिन्दगी होती है उसकी बेटा, जिसे उसका पति त्याग दे| जबसे उसके पिताजी ने उसके बारे में बताया था, तब से ही एक अलग ही रिश्ता सा जुड़ गया उस बच्ची से| बस पता नहीं क्यों उसका दर्द मुझे मेरा दर्द लगता है| देख ले बेटा शादी तो करनी ही है| कोई भी नौकरी करके काम चल ही जायेगा, मत लेना उनकी संपत्ति| और तू भी तो उसकी बड़ाई करता है|"
राम से कुछ जवाब देते नहीं बना| वैसे भी अब रचना से उसकी शादी होगी ये तो असंभव ही था, लेकिन मन आशाओं की डोर को नहीं छोड़ता है| राम कुछ नहीं बोला और बाहर निकल लिया|
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राम फिर से उस बाग़ में ही आकर बैठ गया| इस दौरान बाग़ में कोई नहीं रहता था और बाग़ सड़क से हटकर भी था तो राम को यहाँ शांति मिलती थी| राम अपने में तल्लीन बैठा था तभी एक आवाज़ ने उसका ध्यान तोडा "बाबु जी"
राम ने देखा ये शुशीला थी| राम आश्चर्य मिश्रित बोला "तुम यहाँ क्या कर रही हो? कोई देखेगा तो क्या कहेगा?"
शुशीला : बाबु जी ये हमारा ही बाग़ है इसलिए मुझे देखकर कोई कुछ नहीं सोचेगा| लेकिन आप जो रोज यहाँ आकर बैठते हो, इससे जरुर लोग ये सोचने लगेंगे कि बाबु जी भंग फूंकने लगे हैं|
राम : बाबूजी कहकर मजाक उडा रही हो मेरा| अब कहाँ बाबूजी रहा मैं?
शुशीला : हमने तो आपको ही देखा कॉलेज में बाबूजी की कुर्सी पर... तो ये ही तो बोलूंगी|
राम : अब नहीं देखोगी| सरकारी बाबू आ गया| अब उन्हें कोई जरुरत नहीं इस बेगार करने वाले बाबू की|
इतना कहते ही राम की आँखे सजल हो गयीं|
शुशीला ने ताना मारते हुए कहा "कहते हैं मर्द मजबूत होते हैं, लेकिन बाबु जी आपको देखकर ये बात गलत लगी| मुझे देखिये बाबूजी... छोटी सी उम्र में क्या कुछ नहीं सह लिया| लोग मुझे परित्यक्ता की दृष्टी से देखते हैं लेकिन मैं अपनी जिन्दगी को आगे लेकर जा रहीं हूँ फिर भी| अब भगवान् ने जीवित रखा है तो कुछ लिखा ही होगा| देखतें हैं वो अच्छा है या बुरा?"
राम ने सहानुभूति पूर्वक कहा "बेवकूफ हैं जो तुम्हे परित्यक्ता समझते हैं"
कुछ देर मौन रहने के बाद राम ने कहा "मुझे क्षमा कर देना शुशीला"
शुशीला : किस बात की क्षमा बाबूजी
राम : मैंने तुम्हारे रिश्ते को मना किया
शुशीला : इसमें क्षमा की क्या बात बाबूजी| जिसने ब्याह करके ठुकरा दिया उसने तो एक बार भी क्षमा नहीं मांगी| आप किस बात की क्षमा मांगने लगे बाबु जी?
राम ने दृष्टि चुराते हुए कहा "शुशीला कैसे बताऊँ?..... मेरे जीवन में कोई और थी| उस स्थिति में मैं हाँ कैसे करता?"
शुशीला : शुरू में नहीं पता था लेकिन बाद में पता चला| लेकिन जब मेरे पिता ने बताया कि आपने मेरे बारें में क्या कहा? और मैंने कॉलेज में भी देखा जब सब लोग मुझे बस सहानुभूति की नजरो से देखते थे तो आपने कभी भी ऐसा नहीं किया| हमेशा बस दूसरी लड़कियों की तरह ही मुझे लिया| नहीं तो बाबु जी पिछले कुछ दिनों से ऐसा लगने लगा है कि जैसे मैं कोई अपराधिन हूँ या फिर कोई बेचारी अपाहिज जिसे देखकर या तो दुःख जताओ या फिर बस दूर हट जाओ कि कहीं इसकी मनहूसियत का साया ना पड जाये|
इतना कहते-कहते शुशीला की आँखें गीली हो गयी थीं और लाल भी थीं|
शुशीला : बाबु जी आपने एक स्त्री के सम्मान और भावनाओं को समझा| आपके लिए बहुत सम्मान है मेरे मन में|
शुशीला ने एक संक्षिप्त मौन के उपरान्त प्रश्न किया "क्या एक नौकरी इतना महत्वपूर्ण है कि ना मिली तो सब ख़त्म हो जायेगा?"
राम : आपके पास जायदाद है, पैसा है, आप नही समझेंगी|
शुशीला : चलिए छोडिये.....जिस काम के लिए आई हूँ वो तो कर दूँ|
इतना कहकर शुशीला ने मोबाइल फोन निकाला
राम ने देखा तो शुशीला बोली "पिताजी का है| जब खेत या बाग़ में जाती हूँ तो ले जाती हूँ| रचना आपसे बात करना चाहती है, कर लो"
राम : क्या बात करूँ? और क्या कहूँ?
शुशीला : वो कुछ सुनना नहीं बल्कि बताना चाहती है| सुन लीजिये|
राम : क्या?
शुशीला ने फोन लगाकर राम को दिया "सुन लीजिये"
राम ने हैलो कहा
रचना : कैसे हो आप?
राम : ठीक हूँ..
रचना : पता चला तुम्हारी नौकरी किसी और को मिल गयी|
राम : हाँ..
रचना : मेरे पिताजी ने मेरा ब्याह पक्का कर दिया है| वैसे अब और ज्यादा मना नहीं कर सकती थी मैं|
राम वैसे रचना को पाने की आशाएं छोड़ चूका था लेकिन ये बात सुनते ही उस पर तुषारापात हो गया| वो हकलाकर बोला "क्क्क्कक्या कह रही हो रचना? मेरा क्या होगा?"
रचना : अब मैं कुछ नहीं कह सकती| देखो कुछ भी ऐसा मत करना जिससे मैं बदनाम हो जाऊं|
राम को ये सुनकर झटका लगा| उसके मन में ख्याल आया की क्या बस इतना ही विश्वास था उनके रिश्ते में? जो आज रचना को ऐसा कहना पड़ रहा है उससे|
राम ने कहा "रचना तुम खुश रहो मेरे लिए ये जरुरी है| मेरे और तुम्हारे बारे में तो अब मेरे मन में भी ख्याल नहीं आएगा"
राम शायद कुछ और भी कहना चाहता था लेकिन फोन कट गया था|
राम ने फोन शुशीला को दिया|
शुशीला ने राम से फोन लेते हुए कहा "अब तो वो जो जेब में पुडिया रखी है उसे खा ही लो बाबू जी"
राम ने आश्चर्य मिश्रित दृष्टी शुशीला पर डाली|
शुशीला : वैसे बाबू जी एक बात बताइए आपको नौकरी ना मिलने का दुःख है या रचना से बिछोह का?
राम ने दृष्टी नीचे ही रखी
शुशीला : आपके प्रेम का सम्मान करती हूँ बाबु जी| लेकिन क्या प्रेम बस रचना से ही है अपनी माँ से नहीं? क्या बस रचना तक ही थी आपकी जिन्दगी?
राम : क्या लाभ अब इन सब बातों का|
शुशीला : लाभ तो कुछ नहीं बाबु जी लेकिन जहर खाकर मर ही रहे हो तो मन की सारी शंकाएं तो दूर करते जाओ| मरते समय रचना को निर्लज्ज बोलोगो, बददुआ दोगे| लेकिन बाबू जी एक बात सोचना कि तुम्हारी तरह ही जहर खाकर अपने परिवार को बदनाम करे क्या रचना भी? आपको अपनी माँ से प्यार ना सही उसे तो अपने माता पिता से प्यार है ही|
राम शुशीला को देख रहा था|
शुशीला ने पुन: कहा "आपकी माँ भी यदि आपकी तरह ही स्वार्थी बन जाती तो आज अनाथ होते आप| उनके मन में भी ये ख्याल जरुर आया होगा कि ख़त्म कर ले जीवन लीला| लेकिन उन्होंने आपके लिए आजतक अपने जीवन को जिया| आपको भी उनके लिए जीना पड़ेगा बाबु जी| जिन्दगी ख़त्म नहीं होती.....आप पढ़े लिखे हैं कुछ भी कर लेंगे| लाइए वो पुडिया मुझे दीजिये|"
राम अपलक अब शुशीला को देख रहा था| उसने अपनी जेब से जहर की पुडिया निकाल कर शुशीला के हाथो में रख दी| शुशीला ने पुडिया को फेंक दिया|
राम शुशीला के हाथो में ही अपने चेहेरे को छिपाकर रोने लगा| राम को शुशीला ने आज नयी राह दिखाई थी| ये एक ऐसा रिश्ता था जो काम, वासना और किसी शर्त से मुक्त और विश्वास और सम्मान से परिपूर्ण था| राम के सजल नेत्र शुशीला के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हुए अविरल बह रहे थे|
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