Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational

सफलता के सोपान..

सफलता के सोपान..

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जो सरोज के साथ अब तक जो हो रहा था वह उसके परिचित, सगे संबंधी देख रहे थे। और सरोज के भाग्य में आगे क्या लिखा था, यह साहित्यकार देख पा रहा था। इसके पास लेखनी थी, जिससे वह सरोज के आगामी जीवन का विवरण, आगे लिपिबध्द करने जा रहा था।


सरोज पर, देवरानी के जहर बुझे शाब्दिक तीरों के हमले, कुछ और दिन चलते रहे थे। जिन्हें सरोज के हृदय में विद्यमान शीतलता, निष्प्रभावी कर दिया करती।

देवरानी को ऐसा होते देखना, नागवर होता था। साफ है उसके चलाये तीर, लक्ष्य से टकराकर वापिस उसी पर आते रहे थे। जिनकी चुभन, स्वयं देवरानी को सहनी पड़ती थी। ऐसे दिन गुजरते रहे थे फिर, सुखद आश्चर्य जैसी एक होनहार घटी थी। सरोज को समय पर मासिक नहीं आई थी। सरोज ने बीस दिन और प्रतीक्षा की, फिर घर पर ही परीक्षण किया, जिसमें प्रेगनेंसी पॉजिटिव आई।


यद्यपि देवरानी को बताने में सरोज ने जल्दबाजी नहीं की। लेकिन देवरानी की उत्सुकता ने, उसे चुप नहीं रहने दिया। देवरानी ने पूछ ही लिया- जिठानी, तबियत तो ठीक है? कुछ ज्यादा ही चुप दिखाई पड़ रही हो, इन दिनों।

सरोज के स्वभाव में झूठ बोलना नहीं था। निष्कपटता और मधुरता से उसने, घर में किये टेस्ट और उसके रिजल्ट की जानकारी, देवरानी को बता दी।

इस पर देवरानी, दिखावे की ख़ुशी का शिष्टाचार भी नहीं दर्शा सकी।

सरोज ने बुरा नहीं माना। देवरानी से ज्यादा बड़ी भूल, उसे उसके लालन-पालन कर बड़ा करने वालों की लगी।

जिन्होंने बड़ा तो किया मगर, देवरानी को सँस्कार में दूसरों की ख़ुशी में, खुश होना नहीं सिखा सके। सरोज की ख़ुशी पर तो देवरानी का, कोई वश नहीं था लेकिन डाह से, देवरानी को खुद ही, मानसिक कष्ट, अवश्य होता होगा।


जब इधर, रात सरोज सोच रही थी कि किसी की ख़ुशी में ईर्ष्या करने से किसी को, मिलता क्या है। 

उसी समय उधर, देवरानी पर, आज पता हुई बात ने, अच्छा असर दिखाया था। वह रात आत्म-मंथन कर रही थी।


देवरानी को, अक्सर, गाँव में कही जाने वाली एक कहावत कि 'कौऐ के कोसने से ढोर नहीं मरता', याद आ रही थी। जिस दिन मुंबई से, मुश्किलों में जेठ जिठानी गाँव लौटे, उसी दिन से, उनके बिना किसी अपराध के, उनके साथ, किसी दोषी जैसा व्यवहार ही तो, देवरानी ने किया था।

सरोज की शारीरिक और मानसिक हालत को समझे बिना, वह व्यर्थ उसे खरी खोटी सुनाते रही थी। यूँ तो देवरानी को भगवान पर बहुत आस्था थी लेकिन वह यह समझने में चूक कर गई थी।


जिस को वह मानती वही भगवान तो जिठानी का भी था। और भगवान यदि देवरानी के हिस्से में ख़ुशी लिख सकता था, तो जिठानी को भी तो ख़ुशी दे सकता था।

देवरानी ने उस रात तय किया की वह अपना, यह दोषपूर्ण स्वभाव बदलेगी। कोशिश करेगी कि वह अपनी ही नहीं अपितु अन्य की ख़ुशी में भी, ख़ुशी ही अनुभव करे।

दूसरों की ख़ुशी में भी वह खुश जो रह सकेगी तो, उसे खुशियाँ ही खुशियाँ ही तो मिलेंगी। जब खुद की ख़ुशी मिल सकने के संयोग बनेंगे तब उसमें खुश रहेगी और जब संयोग औरों की ख़ुशी के बनेंगे तो उनकी खुशियों में खुश रहेगी।


फिर अगले दिन के नव-सूर्योदय से ही सरोज ने, देवरानी के व्यवहार में परिवर्तन अनुभव किया था। घर के सभी सदस्यों के साथ ही देवरानी को भी बड़ी आतुरता से, जगन और सरोज के नये शिशु के आगमन की प्रतीक्षा रहने लगी।


इस बीच कोरोना भी देश में नियंत्रित कर लिया गया था। महानगरों के लिए, लोगों की वापिसी शुरू हुई थी। मगर जगन ने तय किया कि वह यहीं गाँव में और पास के शहर में ही, अब आगे काम किया करेगा। वह अपने परिश्रम को अपनी ही माटी के विकास में लगाते हुए, आजीविका अर्जित करेगा। 

उसने इस भले मंतव्य से प्रयास शुरू किये तो, दस वर्ष के मुंबई में रहने और काम करने का अनुभव बहुत काम आया। जगन के गुणवत्ता पूर्ण काम को, जल्दी ही ख्याति मिल गई। अब नवनिर्माणों के लिए उसकी माँग होने लगी। जिससे पूरा परिवार खुश रहने लगा।


तय समय पर सारे परिवार की प्रसन्नता दोगुनी हो गई, जब सरोज ने जुड़वाँ बच्चों को जन्मा। एक पुत्री और एक पुत्र का प्रसव कुछ मिनट के अंतर से हुआ। दोनों बच्चे अपनी माँ के तरह ही सुंदर थे।

कहते हैं कि जीवन में मिलने वाली उपलब्धियों का वक़्त भी तय होता है। सरोज से दो साल बाद ब्याह होकर आई देवरानी के तीन बच्चे हुए तब तक, सरोज की गोद खाली थी लेकिन जब भरी तो एकबारगी ही, एक बेटी और एक बेटे के जन्म ने, उसका परिवार पूरा कर दिया।


इतना ही नहीं यहाँ, यह लोकोक्ति भी चरितार्थ हुई जिसमें कहा जाता है कि, किसी किसी जीव के आने के साथ ही, घर-परिवार के हालात चमत्कारी रूप से बदल जाते हैं।

ऐसे ही सरोज के बच्चे गर्भ में थे तब से ही, परिवर्तन की बयार चलने लगी थी। और जब वे जन्मे तो जगन-सरोज का आदर, घर-परिवार के साथ साथ गाँव में भी निरंतर बढ़ने लगा था।


ऐसा होता देख, जगन-सरोज को, छोटे भाई-बहन और माँ-बाप आदि सभी आगे रखने लगे। हर काम इनके परामर्श लिए जाने लगे और इन्हीं के चाहे गए अनुसार किये जाने लगे। कोई अहं आड़े लाये बिना, सभी उनका अनुकरण करने लगे।


ऐसे समवेत और संयुक्त प्रयास की दिशा, एक हो जाने से घर में सुख समृद्धि को राहें मिलने लगीं। गाँव में इनका परिवार 'एक और एक ग्यारह होना' के उदाहरण जैसा बताया जाने लगा ...



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