संतुलित हो आहार हमारा
संतुलित हो आहार हमारा


"आहार" ही हम हैं "आहार" ही हमारा व्यक्तित्व है"
" लेखक ने कहा है :- You tell me what you eat; I will tell you who/what you are"
प्रकृति प्रदत्त मनोवैज्ञानिक समझ कहती है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत जीवन के अनिवार्य और आधारभूत तथ्यों को समझकर अपने आहार का चुनाव करना चाहिए। खासकर उन तथ्यों को समझना जिनपर हमारे जीवन की अनुभूतियों और व्यवहार की गुणवत्ता निर्भर करती है। अनेक जन्मों की आदतें हैं इसलिए आहार का परिवर्तन करना थोड़ा कठिन सा लग सकता है। लेकिन यदि बुद्धि स्वीकार कर ले तो आहार की संतुलित शैली को कम से कम अस्सी प्रतिशत अमल में लाया जा सकता है। जो तथ्य हमें समझने हैं उनमें तीन विशेष हैं। आहार, विचार और विहार। ये तीनों ही आहार हैं। इनमें भी पहला तथ्य होता है आहार। आहार के तमो होने से विचार भी तमो होते हैं। आहार की गुणवत्ता को प्राकृतिक रूप से संतुलित बनाने से निर्विवाद रूप से सम्पूर्ण जीवन सकारात्मक बनता है। जीवन सत्व गुणकारी सुखद बन जाता है। लेकिन समय के चक्रीय प्रभाव के कारण मनुष्य आहार के संबंध में भी इन्द्रियों के रस के वश में हो गया है।
विचार करें। आदमी के व्यवहार में इतनी हैवानियत कैसे अाई? कारण अनेक गिनाए जा सकते हैं। पर आधारभूत कारण आहार है। क्योंकि उसने आहार (विचार व वस्तु) का गलत चुनाव किया। इसलिए धीरे धीरे उसका व्यवहार हैवानियत का हो गया। ठीक इसके विपरीत कहें तो आदमी देवता कैसे बनता है? क्योंकि मनुष्य जब आहार (विचार व वस्तु) का सही चुनाव करता है तो वह देवता बन जाता है। आहार की श्रेणी में भोजन जो हम ग्रहण करते हैं, केवल वह ही नहीं आता बल्कि वह सब कुछ आता है जो हम स्थूल सूक्ष्म इन्द्रियों से अपने अन्दर लेते हैं।
यदि सम्भव हो तो अपने पहले तथ्य "आहार" की क्वांटिटी व क्वालिटी को दो - तीन - पांच; (20 30 50) के अनुपात में बांट सकते हैं। बीस प्रतिशत तमो गुण वाला आहार ले सकते हैं। ध्यान रहे यहां हमारा तमो गुण का भावार्थ मांस मदिरा के मांसाहार के आहार से नहीं है। हमारे शाकाहारी भोजन में भी कुछ ऐसे ठंडे किस्म के या कुछ और भी ऐसी वस्तुएं होती हैं जो तमोगुण की श्रेणी में आते हैं। तीस प्रतिशत ऐसे पदार्थ लिए जा सकते हैं जो रजो गुण प्रधान होते हैं। पचास प्रतिशत ऐसे पदार्थ होने चाहिए जो सात्विक गुण प्रधान हों। जीवन शैली और आयु के हिसाब से आहार की क्वांटिटी की जरूरत प्रत्येक के लिए भिन्न भिन्न होती है। आहार की क्वांटिटी जितनी भी हम अपनी जरूरत के अनुसार लेते हैं उसको क्वालिटी (गुणवत्ता) के हिसाब से उपरोक्त तीन प्रकार के अनुपात में विभाजित कर लें। यदि चिकित्सा शास्त्र की भाषा में कहें तो सत्तर फीसदी क्षारीय (एल्कलाइन) की गुणवत्ता वाले पदार्थ और तीस प्रतिशत अम्लता (एसिडिक) की गुणवत्ता वाले पदार्थ आहार में लेने चाहिएं। पानी का क्षारीय बनाकर ही उपयोग करें। जिन पदार्थों का आपस में मिलने से हानिकारक ऊर्जा निर्मित होती है ऐसे परस्पर विरोधी ऊर्जा वाले पदार्थ आहार में नहीं लेने चाहिएं।
"वैचारिक" आहार के लिए कोई अनुपात की बात नहीं है। विचार केवल सकारात्मक, श्रेष्ठ और स्व की व सर्व की सुख, शान्ति, प्रेम आनन्द की सम्पदा को बढ़ाने वाले जीवन के लिए सकारात्मक रूप से उपयोगी होने वाले हों। "विहार" - वायुमंडल व वातावरण भी ऐसी चीज है जो संक्रामक होता है। हम यदि सचेत नहीं रहते तो वायुमंडल से भी जाने अनजाने में वाइब्रेशन को ग्रहण करते हैं। उसका प्रभाव भी तन और मन पर पड़ता है। "विहार" (वायुमंडल/वातावरण) का हमारे व्यक्तित्व को बनाने में कम से कम चालीस प्रतिशत रोल होता है। इसका चुनाव करें और चूंकि हमारे विचार से वायुमंडल बनता है, इसलिए साथ ही साथ अपने स्वमान और ऊंचे वैचारिक स्तर से सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाने पर भी ध्यान देते रहें। अब पुनः ज्ञान (विवेक) युक्त होकर अपने आहार विचार और विहार को फिर से पॉज़िटिव व सात्विक बनाना होगा। सतयुगी देवत्व की परिकल्पना तभी साकार हो सकती है। अध्यात्म के पथिकों के लिए स्थूल आहार पर ध्यान देना बहुत जरूरी होता है। एक समय ऐसा आता है जब उनको स्थूल आहार की कम से कम जरूरत रह जाती है। वे अपनी योग साधना की तपस्या को बढ़ाते जाते हैं और धीरे धीरे उनका स्थूल आहार स्वत: ही सूक्ष्म व कम होता जाता है।