संगीत के अनकहे पहलू
संगीत के अनकहे पहलू


"संगीत परमात्मा का अनुपम उपहार है"
"संगीत" के जीवन पर बहुत गहरे प्रभाव होते हैं। परमात्मा ने भी गूढ़ ज्ञान को समझाने के लिए संगीत के माध्यम का उपयोग किया है। ब्रह्म से शिव बाबा पधारे बोलते ध्वनि "ओम्"। ओम् की ध्वनि सर्व धर्मों में स्वीकार्य है। सर्व मान्य है। "ओम्" को अलग अलग धर्मों में अलग अलग नाम से बोला जाता है। इसका अर्थ यह हुआ यह ओम् ध्वनि इतनी वैज्ञानिकता लिए हुए है कि इसके अस्तित्व और इसके उपयोग को कोई भी इन्कार नहीं कर सकता। इसका ही दूसरा अर्थ यह हुआ कि संगीत को सर्व मान्यता प्राप्त है। और तो और, जीव जन्तु भी संगीत को सुनकर एक अजीब सी तारतम्यता में आ जाते हैं। कुछ तो ऐसे पशु पक्षी भी हैं जो संगीत सुनकर एक मदमस्त जैसी अवस्था में आ जाते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि संगीत (व्यवस्थित की हुई ध्वनियों का समूह) से चैतन्य जीवों और मनुष्यों से गहरा संबंध है।
यह जो ब्रह्म से शिव बाबा पधारे कहा है, यह यही बताने का प्रयास है कि यह "ओम्" की ध्वनि भी सम्पूर्ण अस्तित्व की एक अल्टीमेट ध्वनि है। इसका अर्थ यह नहीं है कि ब्रह्म तत्व से शिव बाबा आकर ओम् की ध्वनि बोलते हैं। नहीं, शिव बाबा को ध्वनि बोलने के लिए यहां आने की अनिवार्यता नहीं है। यह तो उसके साथ एकरूप होने की स्थिति की बात है। यह तो ब्रह्म स्वरूप में स्थित हुई आत्मा की "ओम्" की सूक्ष्म ध्वनि की अतीन्द्रिय अनुभूति होती है। जो भी आत्मा ब्रह्म स्वरूप की वैसी केंद्रिभूत स्थिति में स्थित हो जाएगी; जब वह आत्मा साकार शरीर में साकारी अवस्था में आयेगी तब उसका रोआँ रोआँ ओम् की ध्वनि से आप्लावित होगा। उसे खुद को भी यह सुनाई देने का अनुभव हो सकता है ओम् का अनहद नाद (ध्वनि) बज रहा है। उस आत्मा को यह भी अनुभव हो सकता है कि यह ध्वनि मैं (आत्मा) नहीं बोल रहा हूं, यह ध्वनि तो कहीं और से आ रही है, कोई और ही बोल रहा है, मैं तो सिर्फ सुन रहा हूं। वास्तव में यह उस अवस्था के अनुभूति की बात है जिस अवस्था में ब्रह्म स्वरूप में एकाग्रचित्त हो गई आत्मा उस निश्चित थोड़े समय के लिए सूक्ष्म रूप में पूरे ही अस्तित्व के साथ tunned (एकाकार) हो गई होती है।
पूरा का पूरा अस्तित्व एक संगीत है। विश्व में सब कुछ संगीतमय है। हमें वह संगीत सुनाई नहीं देता। हम अस्तित्व से लयबद्ध (tunned) होने की उस स्थिति नहीं रहते हैं। हम अपने अन्दर मानसिक कोलाहल के कारण अस्तित्व में दशों दिशाओं में बज रहे इस संगीत को सुनकर संगीतमय नहीं हो सकते हैं, वह बात दूसरी है। पर यह पक्की बात है कि यह अस्तित्व का संयुक्त संगीत तो अनवरत चल ही रहा है। अध्यात्म वेत्ताओं के अनुभव इस बात के सबूत हैं। कोई भी अध्यात्म का साधक कुछ विशेष प्रक्रियाओं से गुजर कर अस्तित्व की अल्टीमेट ध्वनि ओम् की ध्वनि को व्यक्तिगत रूप से अपने ही अन्तर्जगत में सुन सकता है। यह संगीत कुछ ऐसी चीज है जो किसी दूसरे को यह ध्वनि (संगीत) नहीं सुनाई जा सकती। जो उस अवस्था में जाएगा वही इस संगीत को सुन सकेगा।
वह जब गहरे में देखें तो मन (विचार) भी एक ध्वनि है। यह मानसिक ध्वनि जब जिस समय में बिल्कुल सात्विक होती है तो आन्तरिक शान्ति का अनुभव कराती है। यानि मन के कम्पनों की सूक्ष्म ध्वनि को एक प्रकार से हम आन्तरिक संगीत कह सकते है। जैसे मन के विचार होंगे अर्थात जैसी मन के विचारों की आन्तरिक ध्वनि होगी वैसा ही आन्तरिक संगीत होगा। यानि कि ध्वनि अन्दर भी और बाहर भी। अन्दर और बाहर की ध्वनियों में हम अपने विवेक से परिवर्तन ला सकते हैं। अन्दर और बाहर के संगीत में परिवर्तन लाकर जीवन को सुखद शांतपूर्ण व खुशनुमा बनाने में उनका सदुपयोग कर सकते हैं। चौसठ विद्याओं में इस एक विद्या (संगीत की विद्या) का यही प्रयोजन होता है। संगीत का दूसरा भी पहलू है। इतिहास के साक्ष्यों के अनुसार संगीत की एकाग्रचित्त लयबद्ध ऊर्जा के माध्यम से अभूतपूर्व कार्य किए जा सकते हैं। लेकिन ऐसे कार्य करना संगीत और संगीतज्ञ की उच्चतम गुणवत्ता पर निर्भर होता है।
इसका अर्थ यह हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति एक संगीत का पिटारा है अर्थात उसके अन्दर एक प्रकार से मन का संगीत लगातार चल रहा है। वह कैसा चल रहा है वह तो व्यक्ति की आन्तरिक स्थिति पर निर्भर करता है। व्यक्ति के आन्तरिक संगीत की गुणात्मक स्थिति के आधार पर उसे अच्छा या बुरा, प्रिय या अप्रिय कहा जाता है। यह व्यक्ति का आन्तरिक संगीत तब अच्छा सुप्रिय और शुभ्र आभा से परिपूर्ण होता है जब मन शान्त, पॉज़िटिव और व्यवस्थित होता है। मन की ज्यादा से ज्यादा शान्ति का अर्थ होता है मन की कम से कम अशांति। जितना ज्यादा से ज्यादा आप शान्त होते हैं उतना अधिक से अधिक मनभावन प्यारा संगीत अन्दर बजने लगता है। जैसे यदि कोई ऐसा संगीत/गीत होता है जिसे सुनकर आप बहुत ज्यादा शान्त या ज्यादा प्रेमपूर्ण अनुभव करते हैं उसे आप बार बार सुन कर उस अवस्था के अनुभव में टिकना चाहते हैं। ठीक वैसे ही आपके अन्दर की मानसिक शान्ति का संगीत जब इतना सुमधुर हो जाता है तब आप उस अनुभव से हटना नहीं चाहते। उस शान्ति रूपी संगीत में आप टिके ही रहना चाहते हैं। इसके विपरित यदि शान्ति की स्थिति का संगीत उबाऊ है तो व्यक्ति अपने से ही हताश व परेशान हो जाता है। यदि दूसरों का आंतरिक संगीत मेरे आन्तरिक संगीत में खलबली पैदा करता है तो पारस्परिक दूरियां पैदा होंगी।
हम समझने की दृष्टि से अपने अपने प्रकार की भाषा या शब्दों से बंधे हैं। इसलिए इसी बात को हम अपनी भाषा में समझने का प्रयास करते हैं। इसी बात को संस्कार मिलन या सम्बन्धों में सामीपता या पारस्परिक तारतम्यता की बात को आन्तरिक संगीत के वाइब्रेशन के आधार पर भी समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए:- यदि आपके निज अस्तित्व के आन्तरिक संगीत के प्रकंपन मेरे आन्तरिक संगीत के तारों इस तरह छेड़ते हैं जिससे मेरा आंतरिक संगीत शांतमय सुमधुर बनता है। या अगर मेरा आन्तरिक संगीत मुझे पहले से ही शांतमय सुमधुर अनुभव हो रहा होता है तो भी यदि दूसरे व्यक्ति की उपस्थिति या व्यवहार का संगीत मेरे आंतरिक संगीत में और ज्यादा इजाफा करता है तो वहां समीप ता पैदा होगी। जैसे आप बाहर संगीत के अच्छे अनुभव
मन के संगीत से (मन की ध्वनि/विचारों के कोलाहल) से बाहर आने के लिए बाहर के उसी प्रकार की उच्चकोटि की सात्विक संगीत का उपयोग किया जा सकता है। बाहर की इस प्रकार की उपयुक्त संगीतमय फ्रीक्वेंसी का उपयोग करते हुए जब आन्तरिक (मानसिक) फ्रीक्वेंसी को साइलेंस की फ्रीक्वेंसी तक ले जाया जा सकता है। उस स्थिति में यह अनुभव होगा कि अब मन का संगीत अस्तित्व के सूक्ष्म संगीत विलीन हो गया है। यह ऐसा समझो जैसे कि एक कांटे का उपयोग करके दूसरे कांटे को निकाल लिया गया हो। उसके बाद दोनों ही कांटे अनुपयोगी हो जाते हैं। उसके बाद बाहर के कांटे को छोड़ा जा सकता है या यूं कहें कि उसका अपने आप ही त्याग हो जाता है। इसलिए बाहर के संगीत का कांटे की तरह उपयोग करना बड़े महत्व का होता है।
"संगीत" पर बहुत प्रयोग हुए हैं। बहुत गहरे में समझें तो संगीत अशांति भी है। यदि यदि संगीत को हम केवल कन रस तक ही सीमित रखते हैं तो यह केवल एक भ्रम बनकर रह जाएगा। केवल इसलिए बहुत गहरे में संगीत एक धोखे का काम भी कर सकता है। लेकिन यह संगीत ही शान्ति की स्थिति में प्रवेश करने के लिए एक टूल/टेक्निक भी बन सकता है। संगीत और साइलेंस का आपस में बहुत गहरा कनेक्शन है। संगीत विचारों को कम करता है। व्यर्थ विचारों को कम करता है। जब हम सॉफ्ट फ्रीक्वेंसी का संगीत सुनते हैं तो आन्तरिक और बाहरी संगीत के बीच क्या घटना घटती है? जब बाहर के अनुकूल पॉज़िटिव संगीत को सुनते हुए हमारा ध्यान बाहर के संगीत और अपने आन्तरिक संगीत के गैप (अन्तराल) में स्थित हो जाता है तो महाशान्ति के अनुभव की आन्तरिक घटना घट जाती है। इसलिए संगीत मन की गति को अल्प काल या दीर्घ काल का विराम देता है।
संगीत को अनेक ध्यान पद्धतियों में अपनाया जाता है। संगीत को स्वयं परमात्मा ने अपनी ध्यान पद्धति में अपनाया। कहते हैं कि परमात्मा वैज्ञानिकों का भी वैज्ञानिक है। उसके इस संगीत के चुनाव से भी सिद्ध होता है कि परमात्मा वाकई परम वैज्ञानिक हैं। असल में उसके पास बहुत कुछ ऐसा ज्ञान भी है, बहुत कुछ अभिव्यक्ति ऐसी है जो गूंगे की मिठाई जैसी है। वह बताए तो भी कैसे बताए। वैसी ही गुणवत्ता वाला जरिया/माध्यम तो चाहिए। उसके पास बहुत कुछ ऐसा ज्ञान भी है कि जो अंधों के शहर में आइने बेचने जैसा है। अर्थात उनको भी कठिनाई होती है कि वह दे भी तो किसको दे। लेने वालों की वैसी गुणवत्ता तो चाहिए। लेकिन चूंकि परमात्मा ज्ञान के सागर हैं, इसलिए स्थितियों और परिस्थितयों की असलियत और व्यापकता को भी वे समझते हैं। इसलिए जैसी स्थिति और परिस्थिति वर्तमान में होती है वैसा ही उसका प्रकटीकरण होता है और वैसी ही उनकी अभिव्यक्तियां हो जाती हैं। वह यह भी जानता है कि यदि कोई आत्मा दृढ़ निश्चय से उत्प्रेरित हो जाए तो आत्मा के परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए इतने ज्ञान विधियों से भी काम चलाया जा सकता है।
संगीत क्या है? ध्वनि की स्वर व ताल के लयबद्ध तरीके से व्यवस्थित अभिव्यक्ति ही संगीत है। स्वर ताल ही नहीं, अपितु शब्दों की लयबद्ध व्यवस्थित अभिव्यक्ति भी संगीत है। संगीत सुखद भी है। संगीत दुखद भी है। संगीत की फ्रीक्वेंसी कैसी किस किस्म की है; सब कुछ संगीत की फ्रीक्वेंसी/प्रम्मपन पर निर्भर करता है कि संगीत हमें सुखद अनुभूति कराएगी या दुखद अनुभूति कराएगी, अशांत अनुभव कराएगी या शान्त अनुभव कराएगी। ध्वनियों (संगीत) का पॉज़िटिव प्रभाव तन पर भी पड़ता है। शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी ध्वनियों (संगीत) के कई उपयोग किए जा सकते है।