Aarti Ayachit

Tragedy

5.0  

Aarti Ayachit

Tragedy

"संदली की पुकार को दें आकार"

"संदली की पुकार को दें आकार"

6 mins
504


"तुम कब तक यूँ अकेली रहोगी?" लोग उससे जब तब यह सवाल कर लेते हैं और वह मुस्कुरा कर कह देती है," आप सबके साथ मैं अकेली कैसे हो सकती हूं।"

उसकी शांत आँखों के पीछे हलचल होनी बन्द हो चुकी है। बहुत बोलने वाली वह लड़की अब सबके बीच चुप रह कर सबको सुनती है जैसे किसी अहम जवाब का इंतजार हो उसे।

जानकी ने दुनिया देखी थी उसकी अनुभवी आँखें समझ रहीं थीं कि कुछ तो हुआ है जिसने इस चंचल गुड़िया को संजीदा कर दिया है लेकिन क्या?

"संदली!, क्या मैं तुम्हारे पास बैठ सकती हूं?", प्यार भरे स्वर में उन्होंने पूछा।

"जरूर आंटी, यह भी कोई पूछने की बात है।" मुस्कुराती हुई संदली ने खिसक कर बेंच पर उनके बैठने के लिए जगह बना दी।

"कैसी हो ?क्या चल रहा है आजकल ? " जानकी ने बात शुरू करते हुए पूछा।

"बस आंटी वही रूटीन, कॉलिज- पढ़ाई...." संदली ने जबाब दिया।" आप सुनाइये।"

"बस बेटा, सब बढ़िया है। आजकल कुछ न कुछ नया सीखने की कोशिश कर रही हूं।" चश्मे को नाक पर सही करते हुए जानकी ने कहा।

" अरे वाह! क्या सीख रही है इन दिनों?" संदली ने कृत्रिम उत्साह दिखाते हुए कहा जिसे जानकी समझ कर भी अनदेखा कर गई।

 

जानकी को मन ही मन ऐसा लगा कि संदली उसकी मस्‍करी कर रही है! अब इस उम्र में क्‍या सीखेंगी ? पर उसे क्‍या पता सीखने की कोई उम्र नहीं होती । वो वैसे ही बहुत दुखी लग रही थी बेचारी!

 

संदली प्रतिदिन बगीचे में घूमने आती और साथ में जानकी भी। अब दोनों में अच्छी-खासी दोस्‍ती हो गई, देखकर लगता मानो आपस में अपने अकेलेपन के एहसास को कम रही हो। ऐसे ही एक दिन बातों-बातों में जानकी ने संदली से कहा! बेटी मैने तुम्‍हें जिस दिन पहली बार देखा न! तब से न जाने मुझे ऐसा क्‍यों लग रहा है कि तुम अपनी जिंदगी में खुश नहीं हो! कुछ तो ग़म है, जो तुम ज़हन में छिपाये बैठी हो, उपर से हँसती हो पर मन ही मन दुखी हो। तुम चाहो तो अपना ग़म मुझसे साझा कर सकती हो, मन हल्‍का हो जाएगा तुम्‍हारा।

 

इस तरह से अपनेमन की बातें सुनकर संदली फफक-फफककर रोने लगी! मानो बरसों बाद किसी सदमे के कारण रूके हुए उसके दर्द भरे अश्रु मोतीरूप में छलक रहे हों। फिर आंसूओं को अपने आंचल से पोछते हुए और उसे प्‍यार से सहलाते हुए जानकी ने शांत कराते हुए पानी पिलाया।

 

फिर कुछ देर रूककर गहरी सांस लेते हुए संदली बोली! आंटी आपने अनजान होकर भी मेरे दर्द भरे दिल के अहसासों को चेहरा देखते ही कैसे पढ़ लिया ? यहां तो मेरे अपनों ने पागल समझकर अनदेखा कर दिया।

 

जानकी ने कहा, मैने जब से अपने अकेलेपन को दूर करने के लिये लेखन के क्षेत्र में कदम रखा है, तब से लोगों के दिलों के ज़ज्‍बातों को पढ़ने लगी हूँ और कोई अपना सा लगता है!...जैसे तुम......तो पूछ लेती हूँ। पति गुजर जाने के बाद अकेली ही हूँ ! इस दुनिया में और कोई संतान हुई नहीं तो इसी तरह के परोपकार उनकी इच्‍छा पूर्ण करने के उद्देश्‍य से कर लेती हूँ कभी-कभी! क्‍योंकि वे चाहते थे कि उनके जाने के बाद भी समाज-कल्‍याण करती रहूँ ताकि आत्‍मसंतुष्टि मिले! वही जिंदगी का सबसे अमूल्‍य धन है ।

 

आंटी के सकारात्‍मक अहसासों को सुनकर संदली थोड़ा संभलकर आपबीती बताने लगी! आंटी मेरा बचपन से ही अनाथ-आश्रम में ही पालन-पोषण हुआ और मेरी देखरेख करने वाली  वार्डन ने ही मुझे अध्‍ययन के लिये प्रेरित किया, सो कॉलेज तक पढ़ पाई! उन्‍होंने मुझे मॉं का प्‍यार देने की पूरी कोशिश की। मुझे कॉलेज की पढ़ाई हॉस्‍टल में रहकर ही पूरी करनी पड़ी। उस समय हॉस्‍टल में मेरी पहचान सुषमा नामक लड़की से हुई, जो मेरी रूममेट बनी। धीरे-धीरे हमारी दोस्‍ती प्रगाढ़ होती गई, साथ ही में रहना, खाना-पीना, सोना, घूमने जाना और पढ़ाई करना इत्‍यादि। कॉलेज की पढ़ाई सफलता-पूर्वक पूर्ण करने के लिए हम दोनों ने कॉलेज के पश्‍चात कोचिंग-क्‍लास शुरू कर ली थी और साथ ही में प्रश्‍नपत्र भी हल करते। सुषमा के माता-पिता थे नहीं इस दुनिया में, उसके चाचा उच्‍चस्‍तरीय पढ़ाई के लिये कॉलेज में दाखिला दिलवाकर हॉस्‍टल छोड़ गए और “हम दोनों का एक जैसा स्‍वभाव होने के कारण हमारा दोस्‍ताना हर तरफ छाने लगा।“

 

एक दिन हम दोनों मस्‍त गाना गा रहे थे, “बने चाहे दुश्‍मन जमाना हमारा, सलामत रहे दोस्‍ताना हमारा” ....और उस दिन कोचिंग-क्‍लास का अवकाश था, पर पता नहीं अचानक सुषमा को किसी राघव ने फोन करके कहा कि कोचिंग में सर ने बुलाया है। मैने कभी इस राघव का नाम तक नहीं सुना था आंटी और न ही सुषमा ने कभी बताया..... काश बताया होता, तो मैं उसकी कुछ सहायता कर पाती।

 

अगले ही पल आंटी कहकर संदली कुछ पल के लिए ठहर गई! जानकी ने थोड़ा पीठ सहलाई......फिर संदली बोली जैसे ही सुषमा कोचिंग-क्‍लास के सामने पहुँची आंटी वैसे ही राघव के बंदुक की गोली का निशाना बनी! मैं फोन पर खबर सुनते ही सिहर सी गई और जैसे-तैसे समीप के प्राईवेट अस्‍पताल में ही तुरंत उपचार हेतु भर्ती कराया, परंतु डॉक्‍टरों की तमाम कोशिशें नाकामयाब रहीं, मेरी सखी की जान बचाने में। इस गहन समय में हमारे साथ कोई भी नहीं था आंटी! शायद पहले से ही योजना थी राघव की, उसको निशाना साधने के लिए सुषमा का सिर ही मिला, गोली इतने अंदर पहुँच चुकी थी कि जिसके कारण उसे बचाया नहीं जा सका और देखते ही देखते अगले पल मेरी प्‍यारी सखी मुझे अकेला छोड़कर दूसरी दुनिया में चली गई। मुझे बाद में पता चला कि राघव उसे शादी करने के लिये जबरदस्‍ती कर रहा था और सुषमा के नहीं में जवाब देने के कारण यह हरकत की। मेरा दिल दहल जाता है इस बात से काश मुझे पता होता तो......आज भी मैं उस प्‍यारी सखी को भुला नहीं पाई हूँ।

 

बाद में पता चला कि गुनहगार को सात साल कैद की सजा सुनाई गई और उसके चाचा पूछताछ करने भी नहीं आए। मैं इस सदमे से अभी तक बाहर नहीं निकल पा रही हूँ आंटी! और मैं पूछती हूँ इस समाज से ? क्‍या यह समाज हमारी विवशता का यूँ ही फायदा उठाता रहेगा ? क्‍या मेरी सखी की जान इतनी सस्‍ती थी कि उसके बदले इस खौंफनाक हत्‍या की सजा सिर्फ 10 साल कैद ? क्‍या हम लड़कियों की कोई मर्जी नहीं है कि कुछ अपनी मर्जी से कर सके ? एक नहीं जवाब देने की कीमत मेरी सखी को अपनी जान गंवाकर चुकानी पड़ी, क्‍या सही है यह ? क्‍यों हमारे देश में कानून व्‍यवस्‍था इतनी कच्‍ची है कि उसकी कीमत निर्भया जैसी या सुषमा जैसी लड़कियों की कुरबानियों के पश्‍चात भी कोई सख़्त कानून लागू नहीं कर पा रही कि जिससे इस तरह की घटना घटित ही न होने पाए और कोई भी व्‍यक्ति किसी भी तरह का जुर्म न कर पाए ।

 

संदली की कहानी सुनकर जानकी ने उसे गले लगाया और कहा आज से हम दोनों मिलकर अपना अमूल्‍य योगदान सामाजिक-सेवा में अवश्‍य देंगे, और अन्‍य लोगों को साथ जोड़ते हुए बड़ा समूह बनाकर अपनी सकारात्‍मक आवाज़ अवश्‍य उठाएंगे ताकि हमारी भारत सरकार भी यह पुकार सुनकर सही न्‍याय करने के लिए विवश हो सके ।

 

 


 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 


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