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Arunima Thakur

Abstract Classics Fantasy

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Arunima Thakur

Abstract Classics Fantasy

समय यात्रा

समय यात्रा

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आज का विषय है फंतासी (fantasy)I फैंटेसी मतलब शायद कल्पनाओं में जीना। आप को मालुम है, यह हमारा मन है ना इसे भी सिर्फ कल्पनाओं में जीना पसंद है। यह कभी वर्तमान में रहना ही नही चाहता। या तो यह हर समय भविष्य के सुंदर ख्याब संजोता है या फिर पुरानी यादों में खोया रहता है। पर इतना ही नही है अक्सर यह पुरानी यादों से लोगों को खींच कर हमारे वर्तमान में ले आता है। हमें लगता है मानो हम उनके साथ ही जी रहे है। हाँ मेरा मन रोज मुझे समय की यात्रा करवाता है। लोग सदियों से टाइम मशीन बनाने की कोशिश कर रहे हैं और मैं बिना टाइम मशीन के समय की यात्रा रोज करती हूँ। यकीन मानिए आप सब भी करते होंगे पर यह इतना स्वाभाविक है हमारे लिए कि हम इस बात को जान कर भी नहीं जान पाते।


मैं एक गृहणी हूँ। सुबह उठते ही रोज के काम निपटाते निपटाते अपने बेटे के साथ मैं भी अपने स्कूल पहुँच जाती हूँ। अपने गुरुजनों का आशीर्वाद लेने के लिए। कभी कभी तो बच्चों की तरह स्कूल का घण्टा बजा कर भाग आती हूँ वर्तमान में और हँसती हूँ अपने बचपन के साथ। रोज के अभ्यस्त हाथ चाय, नाश्ता, टिफिन बर्तन करते रहते हैं और मैं अपने स्कूल की क्लास में जाकर अपना स्कूल जीवन पल भर के लिए ही सही, जी कर वापस आ जाती हूँ।

 दोपहर को लगता है मुझे दादी, बुआ लोगों ने घेर रखा है I पता नहीं वह समय यात्रा करके मेरे पास आते हैं या मैं उनके पास पहुँच जाती हूँ। जो भी हो पूरी दोपहर उनके साथ गप्पे मारने में बीत जाती है। कितनी बार तो अचार बनाते वक्त दादी आकर चुपके से अचार में हींग और मेथी की मात्रा बढ़ाकर प्यार से मुस्कुराती हैं। जब भी मैं पालक की भाजी वघारती हूँ, छोटी बुआ हमेशा पास में खड़े होकर बोलती हैं तेल में थोड़ी हल्दी डाल दो आलू का रंग अच्छा आएगा।

मेरी दोस्त बीनू की मम्मी तो रोज ही किचन में आकर खड़ी हो जाती है और हम बातें करते जाते हैं खाना बनता रहता है। मैं उनसे पूछती भी हूँ, "आप रोज आ जाती हो। बीनू के पास नहीं जाती क्या" ? वह मुस्कुराकर मेरे साथ र्मिचौनी, मिर्ची का अचार बनाने लग जाती है। और बीनु के ताऊ जी वह तो जब भी मैं आलू टमाटर की भाजी बनाती हूँ आकर मेरा हाथ पकड़ लेते हैं कि नहीं टमाटर रसा लगाने के बाद डालो। मैं हर बार उन्हें कहती हूँ, "अब आप का जमाना नहीं है कि देसी टमाटर की खुशबू से पूरी भाजी महक उठे। आज तो टमाटर हम सिर्फ रसा गाढ़ा करने के लिए ही डालते हैं। वह मुस्कुराते हैं और आशीष देकर चले जाते हैं। 

शाम के पाँच बजते ही मेरे अब्बा की आवाज मुझे आज भी रोज सुनाई देती है। अनु जी चाय बनाई जाए। मैं हंसती हूँ, अब्बा यहां के लोग साढ़े तीन बजे ही चाय पी लेते हैं। आप थोड़ा जल्दी आया करो। अब्बा तो लगता है मेरे साथ ही टहलते रहते हैं। जब भी किचन में जल जाती हूं जब ससुराल के लोग देख कर भी अनदेखा कर निकल जाते हैं। सबसे पहले अब्बा का स्पर्श महसूस होता है। वह मेरे हाथों को ठंडे पानी से धुलाते हैं। तेल की छींटे उड़ने पर उन पर कोलगेट लगाते हैं। साथ-साथ समझाते भी जाते हैं, ध्यान रखा करो। कभी-कभी तो गरम तेल के बड़े-बड़े छींटे मैंने बीच में गायब होते देखे हैं। आज भी मेरी परेशानी अब्बा अपने ऊपर झेल जाते हैं।

शाम को किचन में होती हूँ। जब कभी लाइट जाती है तो लगता है मटरू दा, पुत्तन दा, फूफा जी सब आकर मुझे घेर कर बैठ जाते हैं। चौपड़ या ताश की बाजिया चलती है। ना जाने कितनी बार मुझे जिताने के लिए वे हार जाते हैं। कितनी बार बड़े मामा आते हैं। मेरी प्लेट से रसगुल्ला, मिठाई उठा कर खा लेते हैं और बोलते हैं भांजी मीठा कम खाया कर नहीं तो मेरी तरह डायबिटीज हो जाएगी। मैं जो अपने आप को इतना मजबूत महसूस करती हूँ ना, घर से बाहर निकलते ही सतीश तुम्हारी मम्मी मेरे साथ चलती है I वह मुझे संबल देती है। उनका साथ मुझे मजबूत और मजबूती से आगे बढ़ने में मदद करता हैं।

ऐसे बहुत सारे लोग और यह लोग जिनकी बातें मैंने की वह आज इस दुनिया में नहीं है I जिनसे मैं टेलीफोन या खत के माध्यम से बात नहीं कर सकती हूँ। वह मेरी यादों में आकर मुझसे बातें कर जाते हैं। शायद यह सब पढ़कर आप मुझे पागल समझेंगे। पर यह उनका प्यार है जो उन्हें मेरे पास या मुझे उनके पास खींच ले जाता है। क्या यादों में भटकना एक प्रकार की समय यात्रा नहीं हैं ? यह है मेरा बनाया अपना कल्पनालोक जहाँ मेरे सभी अपने है।

यह समय यात्रा करना मैंने अपनी दादी से सीखा था। मेरी दादी अक्सर दोपहर को अपने कमरे का दरवाजा बंद करके लेट जाती थी। अंदर से किसी दिन हंसने की, किसी दिन गाना गाने की, किसी के साथ बातें करने की आवाजें आती I हम सोचते दादी किसके साथ बातें करती है ? बाकी लोगों के लिए तो वह एक बुड्ढी थी जिनका दिमाग.. .  आगे में क्या लिखूं जाने दीजिए। फिर तो मैं अक्सर दादी के पास जाकर दोपहर को सोने की जिद करती। मैं सोने का बहाना करती | दादी बातें करना या गाना गाना शुरू करती। तो मैं पूछती दादी किससे बातें कर रही हो ? किसके साथ गाना गा रही हो ? तो वह हंसती मेरे गालों पर थपकी देकर बोलती "अरे इन्हीं सबके साथ" I मैं सोचती यहां तो कोई नहीं है I धीरे-धीरे बड़े होते होते समझ में आने लगा कि शायद उस जमाने में जब खत को पहुंचने में भी एक महीना लग जाता था शायद दादी अपनी सहेलियों से अपने परिवार से यादों में बातें करती होंगी। आज तो टेलीफोन व्हाट्सएप सब तरह की सुविधाएं हैं तो परिवार जनों से और सहेलियों से तो खूब सारी बातें हो जाती हैं। पर वह जो दूर चले गए हैं पर दिल में बसते हैं उनसे बातें करने का तो एकमात्र माध्यम कल्पनाएं ही है ना। 

तो क्या लगता है आपको कल्पनालोक में जीना सही है या गलत ?


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