स्कूल
स्कूल
कमला के भाई को देखो, हेड मिस्ट्रेस की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी। यह यहां से वहां, वहां से यहाँ, यही कर रहा है इतनी देर से। मैने बिल्कुल अनसुना कर दिया। माध्यमिक विद्यालय की छट्ठी कक्षा के विद्यार्थी थे हम सब। स्कूल के आंगन को समतल किया जा रहा था, कक्षा छह के बच्चों द्वारा। जगनमोहन, राजेन्द्, देवेन्द्र, दिलीप, मदन, नरेंद्र सभी उम्र और कद काठी में मुझ से बड़े थे। मैं किसी तरह समय बिता रहा था। हेड मिस्ट्रेस मेरा ही जिक्र कर रही थी, सावित्री मैम, भूषण सर, ओ पी मिश्रा सर और अनिल सर से। मेरी बड़ी बहन मुझ से दो क्लास आगे इसी स्कूल में पढ़ती थी।
पढ़ने में तो अच्छा है, पूरा सेंटर टॉप किया इसने दुबले पतले भूषण सर ने कहा। अरे वो ठीक है, पर शरीर भी मजबूत होना चाहिए, काम करना चाहिए मिश्रा सर की आवाज़ ज़ोरदार थी। अब मुझे कुदाल पकड़नी पड़ी। हेड मास्टरनी मैम के ऊपर गुस्सा भी आ रहा था। परसों तो बहुत तारीफ़ कर रही थी, लिखना सीखना है तो इस से सीखो कितना अच्छा लिखता है। आज बुराई कर रही है, दोगली कहीं की। तभी अनिल सर की आवाज़ सुनाई दी, अरे सबसे छोटा भी तो है। मन कुछ खुश हुआ। हूं सबसे छोटा उस दिन इतना ज़ोर से थप्पड़ मारा था, तब छोटा नहीं था। हटो मुझे दो कुदाल जगनमोहन की आवाज़ आई, क्या सोच रहा है? कुछ नहीं अभी खोदता हूं, अरे तू रहने दे, मैं अभी बराबर कर देता हूं, तुम पत्थर बीन कर अलग कर दो। और कुदाल उसने ले ली। तभी लंच की घंटी बज गई।
जाओ अब तुम लोग, बाकी काम सातवीं/आठवीं वाले करेंगे। भाग कर अपनी क्लास में आए। छठी क्लास एक खुले टीन शेड के नीचे लगती थी, उसमे खच्चर के गोबर की बदबू आती रहती थी। क्योंकि वो शेड मोहन खच्चर वाले का था, रात में उस में खच्चर बांधी जाती, दिन मे हम लोग पढ़ते थे। पहली से पांचवीं तक की पढ़ाई खुले में होती थी, जब मौसम साफ होता तो मैदान के अलग अलग हिस्सों में टाट बिछा कर पहली से छह तक की क्लास चलती थी। सातवीं और आठवीं क्लास के लिए एक कमरा था जो अलमारियों से दो हिस्सों में विभाजित था। सातवीं के साथ साथ आठवीं की पढ़ाई भी कर सकते थे। और आठवीं के साथ साथ सातवीं की छूटी हुई पढ़ाई।
बरसात में कक्षा पांच तक की क्लास एक साथ धर्मशाला में लगती थी, (किसी ने दान में स्कूल को दी थी) और कक्षा छह खच्चर खाने में। छठी क्लास को जल्दी पास करना मतलब गोबर की बदबू से छुटकारा।
स्कूल का ऑफ़िस धर्मशाला के मैनेजर के कमरे में चलता था, उसमें मुश्किल से तीन कुर्सियां आ पाती थी। हिंदी वाली टीचर कभी भी ऑफ़िस में नहीं बैठ पाई। जगह ही नहीं होती थी। बेचारी कौर मैम। कौर मैम लाइब्रेरी की भी इंचार्ज थी, लाइब्रेरी जो एक बड़े से बक्से में बंद थी। जब मैं आठवीं में था, तब उस लाइब्रेरी को बंद करने का काम मुझे मिला था, क्योंकि बाकी सब बच्चों को बस से जाना होता था। मेरे घर का रास्ता पैदल था, ढाई/तीन किलमीटर । उसी दौरान मैने उस लाइब्रेरी की सारी किताबें पढ़ डाली थी, रोज़ चुपके से एक किताब ले जाता और फिर वापिस रख देता। एक दिन मेरी चोरी पकड़ी गई, दरअसल सोने का थाल नाम की एक मोटी सी किताब मैं ले गया था, पूरी पढ़ नहीं पाया, अनिल सर ने वो किताब मांग ली। कौर मैम ने मुझे बचा लिया था, यह कह कर कि वो किताब उन के पास है, मैने उनको थैंक्यू भी नहीं बोला। पता नहीं अब वो बक्सा है भी या नहीं। धर्मशाला का क्या हुआ होगा।खच्चरखाने का क्या हुआ होगा।??