Vivek Sehgal

Inspirational

4.7  

Vivek Sehgal

Inspirational

सिरज

सिरज

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340


उदय

डॉक्टर वेदसार चोपड़ा साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित एक प्रसिद्ध लेखक रह चुके थे। अपनी विधाओं के विधाता माने जाते थे। चोपड़ा जी ने अपने जीवनकाल में अधिक समय अपने पारिवारिक संतापों के साये तले ही गुज़ार दिया। समाज और परिवार के उत्पीड़न से उप चुके चोपड़ा जी ने दुनिया को निम्न और क्रूर ही पाया। इसका निष्कर्ष कुछ इस प्रकार हुआ कि खुद्दारी और स्वाधीनता उनके ह्रदय में जल प्रपात की तरह बहती थी। उन्होंने जीवन में इतना ऊँचा मुकाम हासिल किया जिससे कि उनके दुःख उन भौतिक सुखों के समक्ष पराजित हो जाएँ। प्रेम उनके लिए हलाहल के समान था। जिसे घर में प्यार न मिला हो, समाज में स्वीकृति न मिली हो वो मनुष्य मानवीयता से बैर ही कर सकता है । जिसने शैतान से द्वंद्व किया हो उसे परियों की कहानी मिथ्या ही लगती है।

हर बच्चे का अधिकार होता है की वह सभी सुखों और सुविधाओं से युक्त हो, सहनशील हो, सद्भावी हो और उसकी मासूमियत उसके साथ रहे। समाज वेद जी का गुनहगार था, क्योंकि उसने उनसे उनकी मासूमियत और वो सभी सपने ले लिए जिनपर उनका अधिकार था। वेदसार जी ने खुद को कभी कम नहीं आँका । सदैव खुदको बेहतर मानते थे और साबित भी करते थे। अपनी कला और श्रेष्ठता से उन्होंने हर ताज फ़तेह कर लिया था। पर जो भय उनके दिल को आहत कर-करके उनके मन-मस्तिष्क में दहशत बन चूका था, उससे वो कभी मुक्त हो ही नहीं सके।

सब हासिल करने के बावजूद उनके ह्रदय में उत्कंठा और अपमान की एक अग्नि सुलगती रहती थी। वो अकेले बैठते तो उन सब दृश्यों का आचमन करते थे। उनकी रूह रुदन करती और वो खुदका गला घोटके खुदको चुप करा दिया करते थे। चेहरे पर सदैव एक शिकन, भौहें तनी हुई और नाक पर एक चश्मा रहता था। उनकी आँखें निरोगी थी पर ऐंठ का प्रतीक बन चूका चश्मा उनके अध्ययन का प्रतीक था। नियमित और प्रतिबंधित ही उनके जीवन की परिभाषा थी एक मैगज़ीन का संपादन करते थे । पूरे देश में सबसे प्रचलित मैगज़ीन "सारंग" उनकी संतान की तरह थी। उन्होंने अपने जीवन और करियर का अधिकतर हिस्सा इसे बिना किसी शर्त और संकोच के समर्पित कर दिया था। दफ्तर में उनका बहुत खौफ था। सब उनसे आँखें मिलाने में भी डरते थे। पर सब उनका बहुत सम्मान करते थे, वो पारस पत्थर थे या फिर कल्पवृक्ष ?पता नहीं ! पर जो उनके संपर्क मैं आता था वो उसका जीवन बदल देते थे और उनका पथ प्रदर्शित कर दिया करते थे। आज भी देश में जितने प्रमुख और प्रख्यात लेखक हैं, सब उनके ही शिष्य थे।

अहंकार की छवि से उन्होंने अपने अंदर बसे सभी मनोभावों का शमन कर दिया था। बंजर ज़मीन की तरह उनका ह्रदय केवल ईश्वर से अपरोक्ष रूप में जल और उर्वरता की भीख मांगता था। वो यथार्थ और सर्वस्व रूप से ऐसे ही बन चुके थे। अपने ही आप में अकेले और तनहा। स्वयं से यह वियोग दुखदायक था। पर अपने इस उदासीन गीत को किसी के भी समक्ष गाने से डरते थे। अपने उपहास के भय से चुप रह जाया करते थे। उन्हें तो कितनों ने पूछा की कैसे हो? इन्होंने कहा ठीक हूँ! कितनों ने इन्हें अपने प्यार का गीत भी सुनाया, पर यह उन्हें प्यार के बदले प्यार नहीं दे पाए। इज़हार तो इश्क़ का भी हुआ था पर इन्होंने कहा की मैं कोई मुरव्वत का साहिल नहीं केवल दश्त-ओ -सेहरा हूँ, अब ऐसे में कोई कैसे कोई कदम उठाये।

"आपकी फाइल टेबल पर रखी है, सर!" नताशा ने कहा, चेहरे पर एक चहचहाती मुस्कान और नादान सौंदर्य लिए,

उसने ठीक वैसे ही उनका स्वागत किया जैसे वे चाहते थे। उनका मानना था की कोई भी क्षण व्यर्थ न जाये, हल-चल और शुभदिन कहने में भी समय न व्यर्थ न किया जाये। आते ही काम में लग जाओ और पूरा दिवस काम में ही लगाओ। पर ऐसा नहीं था की वह दूसरों पर काम का बोझ डालते थे, सब लोग निर्धारित अवधि के लिए काम करते थे क्योंकि वेद जी मानते थे की परिवार को भी समय देना चाहिए वरना बच्चों के जीवन में अराजकता आ जाती है। पर जब तक सब दफ्तर में हैं तब तक एक लफ्ज़ भी फालतू काम मैं ज़ाया न जाये। उन्होंने नताशा को कोई जवाब नहीं दिया। नताशा बहुत खुश थी और दफ्तर में उसके सहकर्मी उसकी सराहना करने लगे। चोपड़ा जी से तारीफ की उम्मीद करना निरर्थक था और सच कहूँ तो असंभव भी, अगर वो बिना किसी त्रुटि की हिदायत किये बिना या डांटे बिना किसी को कुछ नहीं कहते थे तो उसे तारीफ़ ही मानना निश्चित किया गया। यह अब परम्परा बन चुकी थी।

वेद जी के जीवन और चरित्र का उल्लेख करूँ तो केवल एक ही उपमा ज्ञात आती है, सूरज की। सूरज अँधेरी रात में विचरण और तप करके सुबह दिव्यता और महात्मय लेकर उदय होता है। सब उसका नमन करते हैं। उसकी महानता का गीत गाते हैं। उससे जल अर्पित करते हैं और उसकी ऊष्मा का शुक्र करते हैं पत्र-पत्र, काली-काली, डाली-डाली और रोम-रोम उसकी शक्ति से खिल उठता है। सूरज को जब अपनी शक्ति का आभास होता तो उसकी ऊष्मा में इतनी वृद्धि हो जाती है की सब उसके ताप से जलने लगते हैं। जब सूरज में मैं आती है तो उसकी सुखवर्धक ऊष्मा, व्यथा बन जाती है। गाली देते हैं और उसका परित्याग कर देते हैं। पर यह ऊष्मा उसके बस मैं नहीं वो तो वही करता है जो उससे ठीक लगता है, पर कुदरत समय के साथ उसकी ऊष्मा को विलीन करने लगती है। संध्या तक वह ठंडा हो जाता है, जिस सूर्य को वह दोपहर में आँखें भी नहीं मिला पा रहे थे अब उसकी लालिमा के गीत गाने लगते हैं। नदी भी अपना वेग रोक कर उसको सलाम करती है, और सब अपने घरों में दीप जलाते हैं। उसकी ऊष्मा को धन्यवाद कहते हैं और सूर्य कुदरत की गोद में सो जाता है।

अस्त

बात अगर हाल की करें, तो मैं यह कह सकता हूँ कि उन दिनों चोपड़ा जी कुछ तनाव में थे। अपने जीवनकाल में उन्हें कभी तनाव नहीं हुआ था , यहाँ मैं उनके लेखन के सन्दर्भ में बात कर रहा हूँ। दरअसल उनके बाजू की सोसाइटी में नए परिवार आये थे। और पूर्ण दिवस बच्चे शोर करते थे। सोसाइटी में एक बाग़ था और वो चोपड़ा जी के बँगले के ठीक सामने था। चोपड़ा जी वहां कभी नहीं जाते थे।। उनका खुदका एक बहुत बड़े व्यास में स्थित एक मैदान था। उसमें हर प्रकार के पेड़ और फूल थे , वो अकसर शाम को वहां चाय पिया करते थे। उन्हें वहां सुकून मिलता था। पर कहानी के इस मुख्य प्रसंग पर बाद में बात करेंगे पहले हम उस किस्से की बात करेंगे जिसने चोपड़ा जी को ८ साल बाद उपन्यास लिखने के लिए विवश कर दिया था। हुआ यूँ की कुछ दिनों पूर्व उन्हें एक विश्व विख्यात मीडिया चैनल ने एक इंटरव्यू बुलाया, जहाँ वो इनसे इनके कार्यों के बारे में बात करने वाले थे।

वैसे तो इंटरव्यू दिए इन्हें कई साल हो गए थे पर 'सारंग' के मार्केटिंग हेड ने इन्हें पी-आर के लिए इंटरव्यू देने को कहा। इंटरव्यू के दौरान कुछ ऐसा हुआ -

"आपका कोई उपन्यास बहुत समय से प्रकाशित नहीं हुआ?" साक्षात्कर्ता ने पूछा

"क्योंकि लिखा ही नहीं!" वेद जी ने कहा

"क्या आज के ज़माने में आपके समय के उपन्यास का मार्केट है? क्योंकि समाज काफ़ी बदल गया है!"

"क्या साहित्य अब व्यवसायी करण का मोहताज है?" वेद जी तुलना होने पर बिगड़ गए

"नहीं! पर एक कलाकार की कला की आयु होती ही है, एक समय के बाद समाज में उनके कार्य की प्रासंगिकता कम हो ही जाती है ! नहीं?"

"प्रासंगिकता तो केवल पत्रकारिता की कम हो गयी है! सच कहूं तो इस समय मैं पत्रकारों से बढ़ा कोई तुच्छ और विषैला नहीं है!"

"लगता है आप बुरा मान गए!" साक्षात्कर्ता ने कटाक्ष में कहा

"बुरा और सही वहां माना जाता है जहाँ समझ की गुंजाइश हो, और मीडिया में कोई समझ नहीं बची न ही कोई तजुरबा! आज्ञा दीजिए!"

इंटरव्यू बेहद बुरा घटित हुआ और १ घंटे के स्थान पर ३ मिनट में समाप्त हो गया।

इस बात ने बाकी सब बातों की तरह इनके मन में घर कर लिया। मानसिकता ऐसी ही होती है। इतने मुकम्मल कलाकार होने के बावजूद, आज चोपड़ा जी ने खुद को असुरक्षित महसूस किया । उन्होंने घर छोड़ने के पश्चात सम्पूर्ण जीवन अपनी बेजोड़ मेहनत से कमाए प्राधिकार से जिया था - स्वच्छंद और निडर। पर इस बात ने उन्हें छील के रख दिया था। समाज में अपना दबदबा कम होते देख, वो भयभीत हो गए थे। एक समय था जब मीडिया में लोग उनका नाम लेने से भी डरते थे, और अब सामने से बहस कर रहे थे।

पर सत्य तो यह है की कब तक वो ज़िंदा रह सकते थे? और यह भी सत्य है की समय के साथ आदर्शों की मूरत खंडित हो ही जाती है। और वेद जी तो खुद एक बाघी माने जाते थे। और कब तक वो खुदको साबित करने के लिए कलम पकड़े रह सकते थे? सत्य तो यह है की उनकी श्रेष्ठ कला की तो लोग सौगंध खाते हैं और उनका लेखन तो अमर है, इसलिए उन्हें किसी को कुछ साबित करने की क्या आवश्यकता थी?! उन्हें भला आज के मार्केट में प्रभाव ज़माने की ज़रूरत क्यों लगी? यह उनके अंदर का अहंकार ही था जो इतनी जड़े मज़बूत कर चूका था।

मैथिलीचरन गुप्त जी ने वित्त को तुच्छ ऐसे ही नहीं कह दिया, उन्होंने ने इसे मदांध होने के सामान ही माना है। और आश्चर्य यह है की 'मनुष्यता' वो साहित्यक हीरा है, जिसने चोपड़ा जी को उनकी लेखन की अलख से वाकिफ़ कराया था। हर एक कलाकार को एक दिन यह दर्शन होता है की उसमें प्रभु का दिए एक तोहफा है, जो उससे अता किया गया है । और आज वो खुद मनुष्यता का पाठ भूल गए । यह विडंबना ही है और दुर्लभ भी।

जब इन्होंने अपना पहला उपन्यास "सिरज" प्रकाशित किया था, तब इन्होंने इसका नाम "आचमन" सोचा था। पर तबके सबसे बढ़े प्रकाशक - 'नीरज सिंघल' - ने कहा की "वेद तुम इतने प्रभावशाली हो, तुम्हारी द्युति अद्वितीय है, क्यों न इससे सिरज कहें?"

२ सप्ताह तक यही प्रसंग चलता रहा, पर चोपड़ा जी को हर माननी ही पढ़ी। छोटी उम्र में ही इतने बढ़े प्रकाशक से यूँ बात करना कोई छोटी बात नहीं थी । इनके लेखक मित्रों ने कहा की 'नीरज जी की परछाई बन जाओ , तुम्हारी गरीबी और दुःख ख़त्म हो जायेंगे'। पर चोपड़ा जी सोचते थे की यह सम्मान उन्हें इसलिए नहीं मिला की नीरज जी को उनकी सूरत व सीरत पसंद आयी , वो एक व्यवसाय करते थे इसलिए उन्हें एक अच्छे लेखक की तलाश थी और उस समय उनकी प्रकाशन कंपनी के पास कोई विलक्षण लेखक नहीं थे, इसलिए यह सम्मान उनकी कला का था। अपनी कला को उनके व्यवसाय को देकर ही वो यह ख्याति पा रहे थे, इसलिए उन्होंने अपने स्वाभिमान को हमेशा सर्वोपरि माना और कभी किसी के तलवे नहीं चाटे। शायद इसलिए वो सदी के महान लेखक बन पाए।

प्रकाशक जी ने एक इंटरव्यू में कहा था "मेरे एक इशारे पे लोग मेरे आगे पीछे भागने लगते हैं, खासकर लेखक, क्योंकि लेखक का सम्मान काफ़ी कम होता है और रोटी सबको चाहिए, पर वेद एक स्वाभिमानी बालक था, उसने हमेशा अपनी सोच को श्रेष्ठ माना इसलिए कोई उसका सानी नहीं और उसका प्रभाव अमर और अदम्य है।"

यह इंटरव्यू उन्होंने तब दिया था जब वेद जी ने अपनी प्रकाशन कंपनी खोली थी । "अविरल" उनका सपना था और मकसद भी। 'अविरल' ने नीरज जी की कंपनी २ साल में बंद करवा दी थी। जिस दिन प्रकाशक जी ने अपनी कंपनी परिसमापन के लिए भेजी थी उस दिन इन्हें फ़ोन किया था।

"अपनी प्रकाशन कंपनी खोलने के बाद आज जाकर मुझे दुबारा सुख मिला है, साहित्य के जगत में मैं एक ऐसा दीप छोड़कर जा रहा हूँ जो हमेशा साहित्य के जगत का नाम ऊँचा रखेगा"

प्रकाशक जी बहुत शीतल और महान थे । वेद जी ने उनकी बात का मान रखा । पर वेद जी यह न समझ पाए की उन्हें भी अपने से ऊपर सोचकर साहित्य के जगत के लिए कोई दीप प्रज्वलित करना चाहिए था। जिस विधा ने उन्हें सब दिया वो उस विधा के ज्ञान के घमंड में अंधे होकर अपना दायित्व भूल गए थे। पर अब उनका मार्गदर्शन करने वाला कोई था ही नहीं।

तो अब जब वो खुद को साबित करने के लिए किताब लिखने बैठते तो पहले १ घंटा अपनी ही किताब पढ़ते ताकि याद कर सकें की कैसे लिखते थे। उन्होंने एक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने लेखन की गलतियाँ बताई थीं , यह गलती पहले नंबर पर रखी थी और आज खुद यही कर रहे थे। पहले उनके प्रेरणा कुछ और थी और आज प्रेरणा है ही नहीं केवल ईर्ष्या थी, ईर्ष्या।

पर अब जब भी बच्चे खेलते तब वह भ्रमित हो थे। इसलिए कुछ लिख ही नहीं पाते थे। पर कोलाहल केवल एक सुगम बहाना था। ऐसे कितने ही रविवार चले गए पर एक भी पन्ना न भर पाए। एक दिन शाम को चाय पीने के लिए छत पर गए तो देखा की उनके मैदान में वो बच्चे खेल रहे हैं।

उन्हें यह अपराध अक्षम्य लगा। यह उन्हें मौलिकता के विरुद्ध भी लगा। दरअसल उनके विस्तीर्ण महल के बाहर एक खुला मैदान था। वो मैदान उनके पिता जी की मृत्यु के बाद उन्हें विरासत में मिला। मैदान काफी विस्तृत था । उसका अधिकतर भाग उन्होंने विभिन्न प्रकार के वृक्षों से सहेज कर रखा था। सुबह का सूरज जब उगता तो पूरा मैदान स्वर्ण से वर्णित हो जाता था। उस दृश्य की विनम्रता और सुंदरता देखकर वो अकसर चकित रह जाते थे । अलौकिक दृश्य । केवल यह पेड़ ही थे जिन्होंने इनको कभी लांछन या हानि न दी थी । इन्हीं पेड़ों के तले वह बचपन में अपने मन के दुःख फ़ोल लिया करते थे। अपने दुखों का वर्णन कर दिया करते थे। यह पेड़ कभी उन पर हँसते नहीं थे, उन्हें समझते थे । उनके मन में उठती आंधी को समेत लिया करते थे । उन पर अमृत की वर्षा करते थे । मैदान के मध्य उन्होंने एक आरग्वध का पेड़ लगाया हुआ था। इसका बीज वो अपने घर में लगे अमलतास के पेड़ से लाए थे । इस पेड़ ने उन्हें कभी उनकी मृत माता की याद आने न दी । आज भी जब श्रावण में अमलतास का वृक्ष अपना पीला सौरभ उनपर बरसाता है तब उन्हें अपनी माँ की याद आती है। वो उस पेड़ को अकसर गले लगा लिए करते हैं।

उस मर्यादा और प्रभुत्व से युक्त पेड़ की शोभा का ऐसा अपमान उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ । कोई अन्य उसपर अपने पैर रखे, उसकी टहनियों के साथ छेड़ छाँड़ करे इससे अशोभनीय और क्या ही हो सकता था।

पर इससे पहले वो कुछ कहते उनकी नज़र उन बच्चों पर गयी । वो चारों के नाम नहीं जानते थे। न ही उनके संबंध । उन्होंने देखा की वह बचे शायद ८ साल के होंगे । २ लड़के थे और २ लड़कियां । पिछले ३ सप्ताह से वह बच्चे सोसाइटी के गार्डन में ही खेलते थे। पर वो क्या बैग जिसमे कंकरीट के पेड़ और सीमेंट की झाड़ियां हो !?

बच्चे भला वहाँ कैसे खेलते? उन्मुक्त और स्वच्छंद वो बच्चे खुले आसमान और लताओं की चाह में इस मैदान में आ बैठे । मैदान स्वर्ग के सामान भव्य और दिव्य था । प्रवेश द्वार सफ़ेद रंग का था जिसके ऊपर स्वर्ण रंग का लोहे का बैनर था -"पैराडाइस" ।

अंदर आते ही मध्य में अमलतास का पेड़ उन्हें पुकार रहा था , आस पास जितनी भी लता पता थी उसको देखकर वह पहले तो शायद मूर्छित ही हो गए होंगे। प्रदूषण की कालिमा से मुक्त और पूर्ण रूप से पवित्र यह धरा उनके बाल मन को सुशोभित कर रही थी।

अपनी मासूमियत से उन्होंने उस बगीचे को पुनः जीवित कर दिया। अपनी खिलखिलाहट और चहचहाहट से उन्होंने उसकी शांति भंग की और एक संगीतमय काफिला भी शुरू कर दिया। बगीचे ने उनका स्वागत किया और उनको अपनी बाँहों में बसा लिए ।

माँ की ममता के लिए कोई निषेद थोड़ी ही होता है । प्रेम कभी बँटता नहीं ,विकीर्ण होता है। अपने बगीचे की यह बगावत देखकर वेद जी दंग रह गए । यह विधर्म उनसे बर्दाश्त न हुआ। मन ही मन सोचने लगे 'यह बच्चे तो पराये हैं, पर यह बगीचा तो मेरा है यह इनका आलिंगन क्यों कर रहा है भला?"

जिसे पूरा जीवन प्यार न मिला हो वो प्यार के लिए उतना ही बेबस और बेचैन हो जाता है। और जब उसे प्रेम मिलता है तो वो उसके लिए इतना जुनून भर लेता है की कभी उसे खुद से भिन्न नहीं होने देता । मोह की ज़ंजीरें उसे बाँधने लगती हैं और वो प्यार पाकर भी अपूर्ण और दुखी ही रहता है। पर प्यार तो संपन्न करता है , नहीं?

वेद जी ने सोचा की बगीचे को तो बाद में सबक सिखाएंगे पहले बच्चों को बाहर निकाले । उन्होंने निश्चय किया की आज इन बच्चों को जीवन का पाठ पढ़ाएंगे, जीवन की असलियत बतलायेंगे और यह बचकानापन उनसे अलग कर देंगे ।

वेद जी ने आज उनकी मासूमियत का शमन करने का निश्चय किया । उन्होंने प्रवृत्ति वश पहले अभ्यास करने का निर्णय लिया । अभ्यास करते वक्त बच्चों को मन ही मन डाँटने लगे, अपने हॉल में घूमते हुए उन बच्चों को डाँट रहे थे शान्त माहौल में उनकी साँसे और पैरों की टक-टक सुनाई दे रही थी ।

एकाएक उनका ध्यान उनके बचपन की तस्वीर पर गया। अकस्मात अहसास का बदल उनपर ऐसा फटा की वो काँप उठे। आजीवन वो जिस पाप के खिलाफ थे, आज वो वही करने जा रहे थे । जिस प्रकार उन्हें बचपन में ही उनकी मासूमियत से अलग कर दिया गया था और समाज के बोझ तले उन्हें दबा दिया गया था, वैसे ही आज वो उन बच्चों को उनकी मासूमियत से वंचित करने चले थे।

अपने बीते जीवन के संतापों की माला को उन्होंने आजीवन फेरा, इसलिए कभी उससे ऊपर नहीं उठ पाए , अपनी तकलीफों के गायन में इतने रुझे रहे की जिन्होंने उन्हें प्यार और सत्कार दिया उन्होंने उनका भी बहिष्कार कर दिया। उन्होंने सबको एक ही पैमाने पर नापा। सब से विनय की जगह अविनय किया। जितना दुःख दुनिया ने उन्हें नहीं दिया उन्होंने उससे भी अधिक पीड़ा खुदको दी।

ब्रह्माण्ड ने तो बहुत लोग भेजे पर उन्होंने किसी से रिश्ता नहीं बनाया, इस भय से की कहीं उन्हें खो न दें , पर आखिर हम किसको आजीवन अपने साथ रख सकते है? किसी को नहीं।

आज अपने ही दमन की वजह से वो अकेले हो गए थे , संपन्न होकर भी अपूर्ण और सफल होकर भी शून्य । वो अपने घर में इतने असुरक्षित थे की कलात्मक विधाओं में महारत होते हुए भी अपने स्थान के लिए मंथन कर रहे थे। मरणशील होते हुए भी अविनाशी होने की हसरत रख रहे थे।

यह आभास उनपर ऐसा हावी हुआ की वह असंतुलित हो गए । वो चीख-चीख कर रोने लगे और सबसे मन ही मन माफ़ी मांगने लगे। उनका मन किया की उन सब लोगों को फ़ोन करें जिनका उन्होंने दिल दुखाया था , उनका मन किया की मंदिर जाकर भगवन के सामने हाथ जोड़कर सब पापों की माफ़ी मांग ले। पर वो सब लोग अब नहीं रहे थे । और मंदिर घर से बहुत दूर था । उनके पिता जब मरने वाले थे तब उन्होंने हर माध्यम से वेद जी को बुलाया, वेद जी उनके इकलौते अंश थे इसलिए वो चाहते थे की उनका मुख देख ले । पर वेद जी नहीं गए, और उनकी राह देखते-देखते उनके पिता जी गुज़र गए। इसी श्राप के खौफ से वेद जी की रातों की नींद गायब थी , ८० साल की उम्र में भी इतने जतन करने पढ़ रहे थे। और डॉक्टर के मुताबिक इनका शरीर बिलकुल ठीक था । उन्हें यह डर दिन रात सताने लगा था की अब जब उनकी मृत्यु होगी तो उनके पास कोई नहीं होगा।

वो नीचे गए तो बच्चे डर के एक साथ खड़े हो गए । उनमें से एक सबसे आगे आ गया। उसका साहस देख कर वेद जी को अपनी छवि याद, कैसे निडर और सशक्त थे वह।

उत्सुकता वश पूछते हैं - "नाम क्या है तुम्हारा?"

"दृग"

"ख़ूबसूरत नाम है, मेरे दोस्त बनोगे?"

दृग ने मुस्कराकर कहा "हाँ !" और सब बच्चों ने उन्हें गले लगा लिया। तेज़ हवा चलने लगी और अमलतास से सुधा बरस पढ़ी। वेद जी ने अपनी सभी जायदाद एक बाल सशक्त करण संस्था को सौंप दी। और दिन रात दृग, रिधा , अश्म और माया के साथ बिताते थे ।

अपनी माँ की तरह उन्हें प्रेम देते थे। और उनमें सभी सद्भावों का सिंचन करते थे। वो उन्हें एक अच्छी परवरिश देना चाहते थे। उनके माता पिता के साथ भोजन किया करते थे और बच्चों को नित नए तोहफे दिया करते थे । एकाएक उनका एक परिवार भी बन गया।

रोज़ सुबह बच्चे उनके कमरे में एक कागज़ की गेंद फेंककर उन्हें नीचे बुलाया करते थे । एक दिन दृग ने ऊपर गेंद फेंकी तो कोई जवाब नहीं आया । वो अपने घर गया और बाकी बच्चे भी अपने माता-पिता को लेकर वेद जी के घर पहुंचे ।

घर को खोला तो पाया की वेद जी अपने स्वांस त्याग चुके थे । उनके चेहरे पर संतोष, वात्सल्य और विनम्रता से भरी एक मुस्कान थी । बच्चे उनके चरणों में सर रखकर रोने लगे और बढ़े उन्हें सँभालने लगे । वेद जी के हाथ में एक पुस्तक थी , एक डायरी जिस में उन्होंने लिखा था -'नन्हे सिपाही'। बीते दिन की तारीख थी और ४० पन्नों में अपने जीवन में आये इन नन्हे देवताओं का वर्णन था। इन बच्चों के साथ खिचवाई एक फोटो थी और एक गुलाब जो दृग ने उन्हें दिया था।

इस डायरी का संपादन हुआ और सारा लाभ उनकी संस्था को गया। इस पुस्तक ने बिक्री के सारे रेकॉर्ड तोड़ दिए और उस वर्ष लगभग सभी पुरस्कार भी जीते।

निहारिका माथुर जिन्होंने इनका आखिरी इंटरव्यू लिया था, रोज़ अपने मीडिया चैनल पर एक घंटे के लिए लेखकों के जीवन का दर्शन और उनके चरित्र का वर्णन करती थी। उन्होंने ने इस प्रख्यात सेगमेंट के विचार का श्रेय वेद जी को दिया।

अपने पहले एपिसोड में कहती हैं "मैंने अपने बचपने में श्री वेदसार चोपड़ा जी से प्रासंगिकता की बात की थी। पर सत्य तो यही है की प्रासंगिकता केवल पत्रकारिता की कम हुई है , क्योंकि स्वर्ण स्वर्ण ही रहता है; उसकी प्रासंगिकता कभी नहीं गिर सकती। और वेद जी यह महान पुस्तक 'नन्हे सिपाही' इसका सबूत है, 'नन्हे सिपाही' नामक, यह एक सरल पर उनका सबसे मार्मिक साहित्य है, जी हाँ साहित्य! आज भी उन जितना महान लेखक मैंने कभी नहीं देखा, उन्होंने हर पीढ़ी और हर दौर में सफलता पायी है, यह दुर्लभ नहीं तो और क्या है? शायद अलौकिक !"

मैं यह मानता हूँ की केवल ४० पन्नों में जो अपने जीवन का सार लिख सकता है, उनसे ज़्यादा उल्लेखनीय कौन होगा। आज मैं दृग सहगल, 'सारंग' का मौजूदा संपादक अपना साहित्य अकादेमी पुरस्कार श्री वेदसार चोपड़ा जी को समर्पित करता हूँ जिन्होंने मेरे अंदर एक महान लेखक बनने की अलख जगाई। मैं यह नहीं जानता की मैं नीरज सिंघल जी द्वारा वर्णित साहित्य का दीपक बन पाया हूँ या नहीं, पर यह ज़रूर जानता हूँ की मैं दिन-रात उन अद्वितीय हस्तियों के पथ पर चलकर, लेखन को नई ऊंचाइयों ले जाने का पूरा प्रयास करूँगा।

दृग अपनी स्पीच पढ़ते हैं और सभी लोग अश्रुओं से भरी आँखों लिए , उनके सम्मान में खड़े हो जाते हैं। तालियाँ गूँज उठती हैं। पीछे लगी स्क्रीन पर उनकी पुस्तक का कवर पेज प्रदर्शित होता है, पुस्तक का शीर्षक है 'आचमन'।


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