Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Drama Classics

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Drama Classics

सीता जैसी

सीता जैसी

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मैं, दूरस्थ ग्रामीण अंचल में पली बड़ी थी। कुशाग्र बुध्दि होते हुए भी, वहाँ उपलब्ध विद्यालय में कक्षा 12 तक ही पढ़ सकी थी। तब एक महानगरीय परिवार से रिश्ता आने पर मेरे कृषक पापा ने, 19 वर्ष की आयु में ही मेरा विवाह कर दिया था। कन्यादान, ग्रामीण परिवेश में एक अत्यंत पुण्य का काम माना जाता है, मेरी माँ-बापू ने वह कमा लिया था। 

गाँव में धार्मिक रीति रिवाज बहुत होते हैं। मैं उनसे अछूती नहीं थी। 13 वर्ष की आयु से ही मैं, विभिन्न व्रत उपवास करने लगी थी। मैं महिने में, औसतन चार दिन में पूर्ण उपवास रहती थी। 

मुझे, विवाह उपरांत परिवेश बिलकुल नया मिला था। गाँव के खुली आबोहवा से विपरीत यहाँ घर छोटा था। कुछ ही दिन में बहू के रूप में, दिन भर सारे कामकाज का जिम्मा मेरा हो गया था। मेरा जीवन, उसी व्यस्तता में तथा छोटे घर में एक तरह से कैद सा हो गया था। 

मैं सीधे-सरल, माँ-पिता की बेटी थी। धार्मिक उपक्रमों के अतिरिक्त, जीवन से, मेरी ना कोई शर्त थी, और ना कोई अभिलाषा ही थी। पति मेरे से 7 साल बड़े थे। अतः उनका लिहाज भी मैं, अपने बापू जैसा ही करती थी। उनसे तथा घर में अपने सास श्वसुर एवं 23 वर्षीय ननद से, मैं कोई तर्क नहीं करती थी। 

पति अपने काम पर, सुबह 7 बजे जो निकलते तो, रात 9 के पहले नहीं लौटते थे। उनके आने तक मैं दिन भर, घर के कामों में लगे रहने से निढाल सी हो जाती थी। पति को भोजन कराने के साथ ही, मैं सो जाना चाहती थी। उनके टिफिन बनाने के लिए सुबह मुझे साढ़े चार बजे उठना होता था। अपने इस जीवन से मुझे कोई शिकायत नहीं थी। तब लेकिन शादी के डेढ़ साल बाद, करवा चौथ के व्रत खोलने के बाद, मुझे पता चला था कि मेरे पतिदेव को मुझसे, शिकायत ही शिकायत हैं। 

हुआ यूँ था कि करवा चौथ के उपलक्ष में, पति मेरे लिए कान के बुँदे उपहार में लाये थे। मुझसे, रात सोते समय वे, उन्हें पहन कर दिखाने कह रहे थे। मैंने कहा था कि आज मुझमें हिम्मत नहीं, मुझे सो लेने दीजिये। 

इस पर उनको गुस्सा आ गया था। पतिदेव ने कहा था कि डेढ़ साल से जो देख रहा हूँ, उसमें, तुमसे शादी, मुझे शादी हुई जैसी लगती नहीं। कभी उपवास के बहाने कभी और किसी बहाने, बिस्तर पर पत्नी का कर्तव्य निभाने, तुम तैयार ही नहीं मिलती। कभी राजी भी हो गईं तो, बिलकुल निष्क्रिय, ऐसे करती हो जैसे, मुझ पर एहसान कर रही हो। 

उनकी नाराजी देख मैंने बुँदे पहने थे। बिस्तर पर भी, उनके चाहे अनुसार साथ दिया था लेकिन उनका मूड, बिगड़ा ही रहा था। मेरा करवा चौथ का व्रत फलीभूत नहीं हो सका था। 

कोई महीने भर बाद, पतिदेव मुझे, गाँव, मेरे मायके ले आये थे। फिर वापस चले जाने के बाद, उन्होंने ना कोई बात ही की, ना कभी लिवाने ही आये और ना आने ही कहा था। 

मेरे दो भाई ही हैं, जो मुझसे छोटे हैं। उनमें बड़ा 18 वर्षीय भाई, कारण समझने, मेरे ससुराल गया था। पतिदेव ने यह कह कर उसे वापिस भेज दिया था कि तुम्हारी बहन से, मेरा मानसिक कोई मेल नहीं हो पाता है। उसे मैं, अपने साथ न रख सकूँगा। गलती का एहसास कर कभी वे लेने भी नहीं आये थे। 

अच्छा यह रहा कि उनसे मेरी कोई संतान नहीं हुई थी, अन्यथा उसे मैं क्या बताती ? 

अब 17 वर्ष हो गए। विवाह विच्छेद प्रक्रिया बिना हम स्थाई अलग हो गए। शायद इस बीच उन्होंने नई शादी करली। शायद बच्चे भी हो गए, लेकिन मैंने कोई दोष नहीं दिया, कोई दावा नहीं किया। 

मेरे माँ-बापू द्वारा मेरा, ऐसा किया कन्यादान उन्हें पुण्यकारी होगा या नहीं, इस पर मुझे संशय था।   

कुशाग्र बुध्दि मैं थी ही, यूँ परित्यक्ता हो जाने के दुःख से उबर कर मैंने, (विवाह कर दिए जाने के बाद भी) मैं मायके पर भार न बन जाऊँ, इस फ़िक्र से साइंस ग्रेजुएशन किया। माध्यमिक शाला में, मुझे नौकरी भी मिल गई। 

मैंने जहाँ जैसा व्यवहार मिलता, उसमें कोई प्रतिरोध भी नहीं किया। मैं घर परिवार में अपने कार्य करती रही। धार्मिक होना अच्छी बात मानी जाती है, वह तो मैं थी ही। 

ग्रामीण संकीर्ण परिवेश में फुरसती लोग, अकारण मेरे बापू को गलत ठहराते कि क्यों, उन्होंने मेरे ससुराल से मेरे अधिकार की न्यायालीन लड़ाई नहीं लड़ी?

अपने किसी कार्य में मुझे कोई दोष नहीं दिखता था। स्कूल एवं मंदिर और वहाँ जाने-आने को छोड़, मैं किसी और सार्वजनिक जगहों पर नहीं जाती थी। फिर भी इन सत्रह वर्षों में कई पुरुषों से, मुझे अपमान जनक और उनके धिक्कारणीय कृत्यों की चुनौतियाँ मिलती थी। 

उन्हें शायद लगता था कि कोई परित्यक्ता स्त्री, शारीरिक रूप से अतृप्त होती है। उसे पति का साथ नहीं होता है, अतः वह उनकी वासनापूर्ति का सॉफ्ट टारगेट हो जाती है। ऐसे भ्रमित कुछ पुरुष मुझ में, अपनी कामुकता पूर्ति की संभावना देखते थे।

जब जब कोई पुरुष मेरे स्वाभिमान को आहत करने वाले, ऐसे प्रयास, हरकत या बातें करता है। मुझे, अपने नारी होने का अफ़सोस होता। माँ-बापू एवं भाई से छिप मैं रोया करती थी। उन्हें बताना, मेरा, उनके लिए समस्या रूप हो जाना होता। मैं इसे, अपनी ही समस्या रहने देना चाहती थी। 

भाईयों के विवाह हुए। भौजाइयों को, मैं घर पर कलंकनीय धब्बा सा लगती थी। वे, भाईयों के सामने तो ठीक रहतीं, मगर अकेले में, ऐसे उकसाऊ भड़काऊ शब्द कहतीं ताकि, जिनसे क्षुब्ध हो मैं घर से अलग हो जाऊं। अपमान के घूँट पी ले लेना, मेरी नियति जैसे मैं स्वीकार कर चुकी थी। मुझे एक वह आसरा चाहिए था, जिसमें मैं, अकेली सी न दिखूँ ताकि ज़माने के कामी भेड़ियों से, परित्यक्ता होकर भी, अपना बचाव कर लेने में समर्थ रह सकूँ। मैं, भौजाइयों से, अपने को छोटी मान, व्यवहार कर लेती, उनकी बातें सहन कर लेती। 

मैं धार्मिक ख्यालों की तो थी ही। जब मैं अपने बारे में सोचती तो, इस जीवन में मुझे अपने ऐसे, मेरे कोई कार्य लगते नहीं थे, जिनके प्रतिफल में जीवन ऐसे कष्टों वाला मिलता। 

अतः मैं यह मानने लगी थी कि निश्चित ही, मेरे पूर्व जन्म में मैं पुरुष रही हूँगी, जिसने अपनी पत्नी पर ऐसा अत्याचार किया होगा। उसको त्याग दिया होगा और उस पत्नी के दुःखी ह्रदय से मिले अभिशाप से, मुझे यह ऐसा जीवन मिला है। 

अपने ऐसे विश्वास से, किसी के परेशानी या अपमान का व्यवहार मिलने पर भी मुझे, उसके लिए क्षमा भाव ही होता। ऐसे सोच लेने से मुझे, राहत और संतोष होता कि जो मैं भुगत रहीं हूँ, वह मेरे ही पापों का दंड है।  

मेरे साथ बस यही अच्छा था कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होकर मैं, विद्यालय में, बच्चों में अच्छी अध्यापिका की पहचान रखती थी। 

जीवन को यूँ निभाते कभी सोच भी ना सकती थी कि मेरे जीवन में कोई अच्छा मोड़ भी आएगा। ऐसे में इस वर्ष मार्च से, कोरोना विपदा आई हुई है। सभी लोग ज्यादा घरों में बंद रह रहे हैं। ऐसे में अचानक आश्चर्यजनक रूप से, कल मेरे पति आये हैं। अपने आने का प्रयोजन बताने के लिए, उन्होंने माँ-बापू को रात बताया है कि कोरोना प्रकोप ने मेरी सास,श्वसुर और उनकी दूसरी पत्नी का जीवन लील लिया है। मेरी ननद का ब्याह भी 14 वर्ष पूर्व हो चुका है। घर में पति की दूसरी पत्नी से, दो बेटियाँ हैं। उनके काम पर जाने के समय उनकी देखरेख को कोई नहीं होता है। यह बताते हुए उन्होंने मुझे भी सामने बुलवाया। सबसे रुआँसे स्वर में, क्षमा माँगते हुए कहा कि ये अपने घर वापिस चलें तो, मुझे मेरे पापों के प्रायश्चित कर लेने का अवसर मिले। सब सुनने के बाद किसी ने, तब उन्हें कोई उत्तर नहीं दिया। आज, बापू मुझसे पूछ रहे हैं - बेटी, क्या सोचा तुमने?मैंने उत्तर दिया है - बापू, ये राम जैसे नहीं, मगर मैं अवश्य ही, सीता जैसी हूँ। मैं वापिस जाऊँगी, अपने ग्लानिबोध में डूबे पति को उससे निकालने में सहायता करुँगी।


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