शर्मिंदगी
शर्मिंदगी
" आज का तो दिन ही ख़राब था। सुबह नाश्ता भी नहीं मिला। ऑफिस को देर से भी पहुंचे और थोड़ी सी काम में गलती क्या हुई पूरे दिन बॉस रूपी कौए की काँव-काँव झेली। अब शाम पत्नी से सुलह प्रयासों के नाम करनी पड़ेगी "
मेट्रो में बैठा मनोज धीमे धीमे बड़बड़ा रहा था। जिस सीट में था उस की तरफ वो टीशर्ट के साथ पायजामा पहने हल्की दाढ़ी वाला लड़का बढ़ ही रहा था पर फुर्ती दिखा कर मनोज ने सीट हथिया ली थी। गनीमत है की उसे बैठने के लिए सीट मिल गयी थी। आस -पास कुछ लोग अभी भी खड़े थे। मनोज ने खड़े यात्रियों पर नजर डाली। एक वृद्ध सज्जन , एक मॉडर्न सी युवा लड़की , चालीस एक साल की कुछ गरीब सी दिखती महिला और वो लड़का जिसे उसने सीट हथियाने से रोक दिया था ।
अगला स्टेशन आया तो लड़के के सामने वाली सीट के सज्जन उतरने के लिए सीट से उठ खड़े हुए।
"आजकल के लड़के भी। अब देखना या तो खुद बैठ जाएगा या लड़की को इम्प्रेस करने की कोशिश करेगा "
मनोज की बड़बड़ाहट जारी थी।
लेकिन आशा के विपरीत लड़के ने वृद्ध सज्जन को इशारे से सीट पर बैठ जाने को बुला लिया।
अगला स्टेशन आया तो फिर लड़के के पास एक सीट खाली हुयी । इस बार लड़के ने कोई हरकत नहीं की और सीट की तरफ देखा भी नहीं।
मॉडर्न लड़की और गरीब महिला ने एक दुसरे की तरफ देखा। पता नहीं आँखों ही आँखों में क्या इशारा हुआ पर इस बार लड़की को सीट मिल गयी।
"ये अमीर लोग सार्वजनिक संपत्ति पर भी अपना ही हक़ समझते हैं बेचारी गरीब महिला को सीट देनी चाहिए थी !"
लेकिन अगले स्टेशन पर जब गरीब सी महिला भी मेट्रो से उतर गयी तो उन्हें समझ आया कि क्यों उस महिला ने सीट लेने की कोशिश नहीं की।
इस बार आखिरकार लड़के को भी सीट मिल ही गयी। ठीक उनके सामने।
लड़का किसी से मोबाईल पर बात कर रहा था।
"नहीं कोई खास दर्द नहीं है। अरे अगले हफ्ते कट ही जाएगा "
लड़का पता नहीं क्या कटवाने वाला था।
फिर अचानक उनकी नजर लड़के के पैरों पर पडी। दोनों पैरों में अलग अलग जूते थे क्योंकि एक पैर में नीचे की तरफ प्लास्टर लगा था जो ढीले ढाले पायजामे से ढका हुआ था।
पता नहीं क्यों पर अचानक ही वो अपने और अपनी बड़बड़ाहट पर शर्मिंदा हो गया।
