Sudershan Khanna

Abstract

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Sudershan Khanna

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शपथ

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‘तुम्हें सुनहरे रंग में क्यों रंगा गया है?’ कलमों के कारखाने में कलमों का उत्पादन हो रहा था और एक काले रंग की कलम सुनहरी होती कलम से पूछ रही थी। ‘अभी तो मुझे नहीं मालूम, पर कोई न कोई कारण तो होगा ही, पता लग जायेगा’ सुनहरी आवरण ओढ़े कलम ने कहा। ‘और तुम्हें चांदी जैसा रंग दिया जा रहा है?’ काली कलम ने एक अन्य कलम से पूछा। ‘यह तो भगवान ही जाने!’ चांदी रंग में रंगी जा रही कलम ने कहा। ‘पर तुम यह सब क्यों पूछ रही हो’ सुनहरी और चांदी रंगों में रंगी जा रही कलमों ने काले रंग में रंगी कलम से पूछा। ‘मैं यह जानना चाहती हूं कि रंगों का यह भेदभाव क्यों?’काले रंग की कलम ने कहा। ‘जहां तक हमें याद है ऐसा प्रश्न पहले कभी किसी ने नहीं किया होगा’ बीच में बोली लाल रंग की कलम जो इन बातों को सुन रही थी। ऐसी बातें सुनकर हरी, नीली, पीली, गुलाबी, भूरी, तथा अन्य रंगों की कलमें भी वहां आ पहुंची ‘हां … हां … पहली बार ऐसा पूछा गया है।’ जिस प्रकार से अनेक रंगों की कलमें वहां इकट्ठा हो गयी हैं लग रहा था कि कोई इन्द्रधनुष खिल गया हो।

इतने में कारखाने की मशीनें कुछ देर के लिए बन्द कर दी गईं क्योंकि दोपहर के भोजन का समय हो गया था। ‘यार, एक बात बता कि भोजन का समय मात्र आधे घंटे के लिए क्यों होता है’ मंगू ने राधे से पूछा। ‘क्यों, इसमें तेरा पेट नहीं भरता क्या’ राधे ने तीखा जवाब दिया। ‘नहीं, मेरा मतलब है कि आधे घंटे में कुछ टाइम तो हाथ-मुंह धोने में निकल जाता है, फिर एक ही नल पर बारी कई बार देर में आती है। ऊपर से घर में बाबू जी का आदेश है कि खाना चबा-चबा कर खाना चाहिए और जब तक चबाया जा रहा खाना खत्म न हो जाये, खाने का अगला कौर हाथ में नहीं लेना चाहिए’ मंगू ने कहा। ‘वो तो ठीक है मगर ऐसा क्यों कि अगला कौर हाथ में नहीं लेना चाहिए?’ राधे ने पूछा। ‘पिताजी बताया करते हैं और यह तो मैंने भी आजमाया हुआ है कि यदि चबाते चबाते हम दूसरा कौर हाथ में ले लें तो चबाये जाने वाले भोजन को हम यूंही निगल लेंगे ताकि हाथ में आ चुका दूसरा कौर मुख में प्रवेश कर सके, यकीन न हो तो आजमा के देख लो’ मंगू ने कहा तो राधे ने यह तथ्य आजमा कर देखा। ‘अरे वाह, तुम्हारे पिताजी तो बिल्कुल ठीक कहते हैं’ राधे बोला तो मंगू को गर्व का अनुभव हुआ। ‘मैं इसीलिए तो कह रहा था कि कम से कम इतनी छुट्टी तो दी जानी चाहिए कि भोजन चबा चबा कर खा सकें। अगर यूंही भोजन को निगलते रहेंगे तो अपच होगा, पेट खराब होगा और ऐसा होने पर हम कारखाने में चुस्ती से काम नहीं कर पायेंगे’ मंगू ने कहा। ‘भई मंगू तू तो बहुत समझदार है’ राधे ने कहा। ‘नहीं मैं नहीं, मेरे पिताजी। ये सब उन्होंने ही बताया है’ मंगू बोला। राधे मंगू की सरलता पर मुस्कुरा उठा।

बातों बातों में भोजन का समय खत्म हो गया। जैसे तैसे दोनों ने खाना निगला क्योंकि देर हुई तो वेतन में से पैसे कट जायेंगे। मशीनें चालू हो चुकी थीं। कारखाने का सुपरवाइजर मशीनों की जांच करता जा रहा था। इतने में कारखाने के मालिक का चपरासी भीखू आया ‘मंगू, तुम्हें साहब बुला रहे हैं…’ इतना सुनते ही मंगू ने मशीन रोकी और चलने को उद्यत हो गया। ‘अरे मंगू भाई, पूरी बात तो सुन लो। सभी रंगों की एक-एक कलम साथ लेकर चलो’ भीखू ने कहा। ‘अच्छा’ कहते हुए मंगू ने सभी रंग की कलमों का एक एक नमूना ले लिया। ‘साहब जी, मंगू को बुला लाया हूं’ कहते हुए भीखू कमरे के बाहर जाकर स्टूल पर बैठ गया। उसकी यही ड्यूटी होती थी। हर समय साहब का आदेश बजाने को तैयार।

‘कहां हैं कलमें, मंगू’ साहब ने कहा। ‘ये लीजिए हुजूर’ कहते हुए मंगू ने मेज़ पर कलमें रख दीं। सामने दीवार पर टंगे बड़े टीवी से नज़रें हटाते हुए साहब ने गौर से देखा और सबसे पहले सुनहरी कलम उठाई और कागज पर लिखने लगे तो कुछ नहीं लिखा गया। ‘मंगू, तुम तो बेजान कलमें उठा लाये हो, बिना आत्मा के’ साहब ने हंसते हुए कहा। ‘बेजान, बिना आत्मा के!!!’ मंगू ने कहा ‘कलमों में भी जान होती है, आत्मा होती है…?’ ‘आज देहरादून में देश की सेवा करने का जज़्बा लिये नये रंगरूटों ने शपथ ली है जिसकी एक झलक हम आपको दिखा रहे हैं’ समाचार वाचक ने कहा। ‘मैं …….. भगवान के नाम पर शपथ लेता हूं कि मैं भारत के संविधान के प्रति सच्चा विश्वास और निष्ठा धारण करूंगा, जैसा कि कानून द्वारा स्थापित है और मैं कर्तव्य के रूप में, ईमानदारी से और ईमानदारी से संघ की नियमित सेना में सेवा करूंगा। भारत, और जहाँ भी भूमि, समुद्र या वायु ….’ नये रंगरूट बारी-बारी से शपथ ले रहे थे और देश के लिए अपनी जान तक कुर्बान कर देने की प्रतिज्ञा कर रहे थे।

साहब ने टीवी का वाल्यूम बंद किया और फिर बोले ‘मंगू, इन कलमों में भी जान होती है, आत्मा होती है’ साहब ने कहा ‘ये जो हम इनके अन्दर स्याही भरते हैं न वह एक तरह से इनकी जान होती है और जो इन्हें लिखने के लिए प्रेरित करती है वह इनकी आत्मा होती है। समझे मंगू! जाओ, इनमें जान डाल कर लाओ।’ ‘अभी लाया साहब’ कहता हुआ मंगू कलमें वापिस उठा कर ले गया। ‘क्या हुआ मंगू, काम हो गया, क्यों बुलाया था साहब ने?’ राधे ने पूछा। ‘अभी कहां हुआ है काम, साहब जी ने कहा है इनमें जान डालकर लाओ’ मंगू ने कहा। ‘जान?’ राधे ने भी हैरानी से पूछा। ‘हां, जान, मतलब इनमें स्याही भर कर ले जाओ’ मंगू ने कहा। ‘तो फिर देरी किस बात की, सामने रिफिल पड़े हैं अभी वही डालकर ले जा’ राधे ने कहा।

मंगू कलमों में रिफिल भरता जा रहा था। यकायक उसने कहा ‘राधे, साहब ने कलमों में आत्मा होने की बात भी कही।’ ‘आत्मा!!!’ राधे बोला ‘कलम में आत्मा?’ ‘हां, मुझे भी समझ नहीं आया इसका क्या मतलब है?’ मंगू ने कहा। ‘तुम्हें समझ नहीं आया’ अचानक सुनहरी कलम बोल पड़ी। ‘हां हां, मुझे समझ नहीं आया राधे, तुम्हें समझ आया!’ मंगू ने कहा। ‘क्या बात कर रहे हो?’ राधे ने काम करते करते पूछा। ‘अभी तो तुमने कहा कि तुम्हें समझ नहीं आया’ मंगू ने कहा। ‘ये मैंने कहा था’ सुनहरी कलम फिर बोली। ‘कौन बोल रहा है’ दोनों ने कहा। ‘मैं बोल रही हूं, नीचे मेज पर देखो सुनहरी कलम को’ सुनहरी कलम ने कहा। ‘तुम बोल भी लेती हो!’ दोनों हैरान हुए। ‘हां, हम बोल भी लेते हैं, हमारे अन्दर जान होती है, आत्मा होती है’ सुनहरी कलम ने कहना जारी रखा ‘हमारी जान तो वह स्याही है जो तुमने अभी डाली और जो हम लिखेंगे हम हमारी आत्मा है।’ ‘जल्दी से समझाओ, मुझे साहब के पास जाना है’ मंगू ने कहा। ‘चलो, पहले साहब के पास चलो, फिर वापिस आकर सब बताती हूं’ सुनहरी कलम ने कहा। मंगू ने सभी कलमों में रिफिल भर लिये और साहब के पास ले गया।

‘तो डाल लाये जान इनमें’ साहब ने कहा और हरेक कलम से कागज पर कुछ न कुछ लिखकर देखा। ‘हूं, पर तुमने अलग अलग जिस्मों में अलग अलग जानें डाल दी हैं’ साहब ने कहा। ‘क्या मतलब?’ मंगू सिर झुकाए खड़ा था। ‘अरे भई, सीधी सी बात, सुनहरी में सुनहरी स्याही, लाल में लाल, हरी में हरी, नीली में नीली … इसी तरह, समझ गये, ले जाओ, सब ठीक है पर जैसा मैंने बताया वैसा कर देना’ साहब ने कहा। ‘जो आज्ञा’ कहते हुए मंगू चला गया।

‘अब बताओ सुनहरी कलम तुम क्या कह रही थीं?’ मंगू ने कहा। ‘सुनो, हमारा इतिहास बहुत पुराना है। आत्मा की बात कर रहा थे तो हमारी आत्मा भी होती है जो प्रसन्न भी होती है तो घायल भी होती है’ कलम ने कहा। ‘कैसे भला?’ दोनों ने कहा। ‘जब महर्षि वाल्मीकि लिखते तो रामायण रचित हो जाती, श्री गणेश जी लिखते तो महाभारत की रचना होती, जब कालिदास के हाथों में होती तो अभिज्ञानशाकुन्तलम जैसी रचनाएं रचित होतीं, जब सम्राट जहांगीर कलम से न्याय लिखता था तो हमारी आत्मा प्रसन्न होती थी। अब्दुर्रहीम खानखाना के हाथों में हमारी सजावट देखते ही बनती। अमीर खुसरो के हाथों में भी हमने इतिहास रचा। गालिब के हाथों में आतीं तो गजब ही हो जाता। रवीन्द्रनाथ टैगोर के हाथों में हमारी शान कुछ और ही होती। मुंशी प्रेमचन्द लिखते तो दिलों पर हम छा जातीं, रामधारी सिंह दिनकर ओजस्वी कविताएं लिखते तो हमारी आत्मा गर्व की अनुभूति करती थी। माखन लाल चतुर्वेदी पुष्प पर कविता लिखते तो हमारी आत्मा आत्मविभोर हो जाती। जब सुभद्रा कुमारी चैहान झांसी की रानी लिखतीं तो हमारी आत्मा में देशभक्ति का जज़्बा जाग उठता। भारतेन्दु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, गोपालदास नीरज और न जाने कितने महान लेखक और कवि जिन्होंने हमें अत्यधिक सम्मान दिलाया।

न्यायाधीशों द्वारा मृत्यु-दण्ड दिये जाने पर हम भी टूट जाती थीं। वकीलों के हाथों में तो हमें खुद अपनी चाल का पता नहीं होता। डाक्टरों के हाथों में आकर हम जिन्दगी भी देती हैं। नेताओं के हाथों में जाकर हमें विविध अनुभव होते हैं। शिक्षकों के हाथों में तो हम तरह-तरह के अनुभव करते हैं, कभी शून्य, कभी कम तो कभी ज्यादा तो कभी पूरे अंक देकर हमारी आत्मा अलग अलग अनुभव करती है। इसी प्रकार विद्यार्थियों के हाथों में हमारी अलग अलग स्थिति होती है। कुछ हमारे सहारे ऊंचाइयां छूते जाते हैं तो कुछ के हाथों में आकर हम उनकी रोजी रोटी बन जाती हैं। पर हम नकल करने वालों से सख्त नफरत करती हैं फिर चाहे वह कोई विद्यार्थी हो, शोध छात्र हो, लेखक हो, कवि हो, मतलब कोई भी हो। नकल करते पकड़े जाने पर हम उनका साथ नहीं देतीं। नकल करके टाप पर पहुंचा तो क्या पहुंचा? हमें बहुत दुःख होता है जब लिखने वाले देश की हालत को ठीक से पेश नहीं करते और जो वास्तव में मुसीबतजदाओं की सहायता कर रहा होता है उसमें भी राजनीति का रंग डाल देते हैं। ऐसा लिखने वालों से भी हमें नफरत है। जो लिखे सत्य लिखे, ना मालूम हो तो कुछ न लिखे। न तो कलम द्वारा चापलूसी करे, न ही कलम द्वारा घृणा करे और न ही उकसाये।

खैर, शब्दों का अस्तित्व भी हम ही से है। हम न हों तो शब्द हवाओं की भांति इधर से उधर लहराते ही रहें। हम शब्दों को धरा प्रदान करते हैं। मनुष्य के हाथों में आकर हम सुख-दुःख दोनों लिखती हैं। शब्द-बाण, व्यंग-बाण ये भी हमारे तरकश में होते हैं। हम किसी अमीर की जेब की शान बनती हैं तो कभी किसी गरीब की रोटी जो वो हमें बेचकर कमाता है। हम बच्चों की मुस्कान भी बनती हैं जब कागज पर इन्द्रधनुषी रंगों में बस कर उनका मनोरंजन करती हैं। हम शायरी भी लिखती हैं, गजल भी रचती हैं और गीत भी लिखती हैं। न जाने कितनी फिल्मों में हम गीतकारों के हाथों में चली हैं। अक्सर तुम गुनगुनाते हो ‘तेरे बिना जिंदगी से शिकवा तो नहीं…’ यह गुलज़ार साहब की कलम से निकला है। तो इस प्रकार बहुत सी बातें हैं’ कलम ने लंबी सांस लेते हुए कहा।

दोनों ही विस्मित होकर कलम की बातें सुने जा रहे थे। जब कलम रुकी तो राधे कुछ कहने को हुआ ‘यार मंगू ….’ तभी कलम ने रोक दिया। ‘मंगू जी, आपको ध्यान है कि जब आप हमें साहब के पास ले गये थे तो साहब टीवी देख रहे थे।’ ‘हां, याद है’ मंगू ने कहा। ‘टीवी में एक समाचार था जिसमें नये रंगरूट मातृभूमि की मान मर्यादा और सुरक्षा के लिए शपथ ले रहे थे’ कलम ने फिर कहा। ‘हां, मैं भी देख रहा था’ मंगू ने कहा। ‘तो सुनो तुम दोनों, हम भी जब यहां से नये रंगरूटों की तरह निकलती हैं तो हम भी शपथ लेती हैं कि हम कभी झूठ नहीं बोलेंगी, सदा सत्य का पालन करेंगी, किसी का दिल नहीं दुखायेंगी, बच्चों के चेहरों पर मुस्कान लायेंगी, धोखेबाजी नहीं करेंगी, सदा ही ईमानदारी का पालन करेंगी, आदि आदि’ कलम ने कहा। ‘अच्छा!’ दोनों ने कहा। ‘हां, हमें हमारी आत्मा तब बहुत कचोटती है जब हम गलत हाथों में चली जाती हैं’ कलम ने गहरी सांस लेते हुए कहा। इस बात पर राधे बोला ‘तभी तो कहा गया कि सत्य की इच्छा होती है उसे सभी जान लें और असत्य को सदा भय होता है कि उसे कोई पहचान न ले। तुम जब सत्य का पालन करने की शपथ लेकर निकलती हो तो तुम्हें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं होनी चाहिए। असत्य को खुद ही दण्ड मिलेगा। भगवान के घर में देर है, अंधेर नहीं। चित्रगुप्त की कलम कभी रिश्वत नहीं लेती। कलमो, तुम जिस भी रंग की हो, वास्तव में कमाल हो।’ यह सुनकर ऐसा प्रतीत हुआ कि सभी कलमें चमक कर सुनहरी हो गई हों और एकसाथ बोल उठी हों ‘हमें हमारे प्रश्न का उत्तर मिल गया है’ इसमें काले रंग की कलम की आवाज में प्रखरता थी।


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