शोषण
शोषण
ये काम है की ख़तम होने का नाम ही नहीं लेता"बड़बड़ाते हुए शिखा ने कहा। ऑफ़िस को लेट हो रही हूँ अभी बस निकल गई तो ऑफ़िस देर से पहुँचने पर बॉस की झाड़ सुनो पसीना पोछ्ते हुए शिखा ने सोचा। "अरे भाई चाय नहीं दी अभी तक पता नहीं क्या करती रहती हो सुबह" सरजत की चिल्लाने की आवाज़ कानों में पड़ी। शिखा ने सोफे पर पसरे हुए पति की तरफ देखा और वितृष्णा से उसका मन भर उठा। दिन भर घर में पड़े रहने के सिवाय कोई काम नहीं था उसके पास। नौकरी छूट गई थी और दूसरी नौकरी तलाशने की जरूरत नहीं थी क्योंकि बीबी जो कमा रही है कुछ करने की जरूरत ही नहीं है बस रॉब झाड़ते रहो। किसी तरह चाय देकर शिखा तैयार होने लगी। "इतना सज कर ऑफ़िस जाती हो किसे दिखाना है बॉस को "व्यंग कस्ते हुए रजत ने कहा। खून का घूँट पीकर रह गई शिखा ये रजत का रोज का काम था उसे तो बस बर्दाश्त करना है। घर के बहार खुली हवा में आकर घुटन से पल भर के लिए राहत की सांस ली शिखा ने। कैसे कटेगी जिंदगी इस घुटन में सोचकर शिखा का मन डूबने लगता था। मायके में वृद्ध माँ पिता से क्या कहती, बस एक रजनी थी उसकी सहयोगी जिससे वो अपनी परेशानी बाँट लेती थी। शाम को घर पर वही ताने भाई देर कैसे हो गई पड़ोस वालों की बहू तो जल्दी घर आ जाती है तुम्हें इतनी देर कहाँ लग जाती है। जवाब देते देते थक चुकी थी शिखा। चुपचाप काम पर लग गई। महीने की पहली तारिख थी कल। तनखाह सास को देनी होती है वो महीने के आने जाने के पैसे देती है और कोई जरूरत हो तो मांगो पैसे सास से। मैं तो बंधुआ मज़दूर हो गई हूँ शिखा सोचती। शोषण का सहूलियत वाला चेहरा जहाँ ऊपर से सब ठीक लगता है पर अंदर ही अंदर सुलगता रहता है, किसी का अंतर्मन की जाने कब इस शोषण का अंत होगाे "
