साहसिक विदेशी यात्रा
साहसिक विदेशी यात्रा
"क्या तुम चलना चाहोगी हमारे साथ तीन दिनों के लिए, हमारे आईटी विभाग के सारे कर्मचारी जा रहे हैं" मैनेजर ने पूछा
"जी मैं कल तक बताती हूँ " मैंने असमंजस में कहा
घर आकर सोचा क्या करूँ, कैसे जाऊंगी, मेरे दोनों नन्हों का ध्यान कौन रखेगा, इनको तो कुछ भी नहीं आता बनाने, कैसे करेंगे यह लोग सब चीज़।
अब अगर नहीं जाऊंगी तो भी ख़राब लगेगा, सभी तो जा रहे हैं और मना करुँगी तो नौकरी भी खतरे में पड़ सकती है। खुद से सवाल किया कि मैं क्या चाहती हूँ , मन ने कहा जाओ ऐसे सुनहरे अवसर बहुत कम लोगों को नसीब होते हैं, इसके बाद तो नन्हे बड़े हो जाएंगे फिर शायद कभी पंख न फैला पाऊँ।
सोच ही रही थी कि पति महाशय आये और बोले क्या तुम जाना चाहती हो, मैं सब देख लूंगा तुम जाओ अपनी ज़िन्दगी तीन दिन के लिए आज़ाद हो। मैंने मन की बात मानकर मैनेजर को हाँ कर दिया और मन ही मन अपने पति जी को धन्यवाद किया। आज मुझसे ख़ुशनसीब मुझे कोई नहीं दिख रहा था।
ख़ुशी तो एक हफ्ते पहले से ही झलकने लगी थी। कपड़े और अन्य तरह के ज़रूरी सामान खरीद रही थी। पर थोड़ा सा मन विह्वल भी हो रहा था परिवार को ले के। जब भी ऐसे खोया हुए देखते मेरे पति, तो हमेशा मेरे कंधे पे हाथ रख कर ढांढस बंधाते। बारह साल के करियर में बतौर क्वालिटी इंजीनियर आईटी विभाग में काम करते हुए हो गये थे मुझे तब ये सुनहरा अवसर विदेश जाने का मिला था।
सभी कर्मचारियों का नाम लिखा जा चूका था। एयरलाइन्स में काम करने की वजह से हम कर्मचारियों को बस कुछ मामूली सी रकम दे कर अपना टिकट आसानी से किसी भी जगह जाने के लिए मिल जाता था पर उसके लिए फ्लाइट में सीट मिलना जरूरी होता था जो कि दूसरे यात्रियों जो कि पूरा पैसा दे के जाते थे पर था।
हमारे विभाग में कुल पचास कर्मचारी थे। अब फ्लाइट में सीट की भारी दिक्कत की वजह से हमें आधे आधे कर पच्चीस कर्मचारी एक फ्लाइट में और अन्य पच्चीस दूसरी फ्लाइट में जाने को तैयार हुए और पहुँच गए थाईलैंड, बैंकाक। सब कुछ एक सपने जैसा लग रहा था पर वहां जाके हमें थाईलैंड की सरकार ने रोक दिया क्यूंकि हमारे किसी के पास वीज़ा नहीं था और कंपनी ने इसके बारे में किसी भी कर्मचारी को बताया नहीं था।
सबको बोला गया कृपया अपना वीज़ा का खर्चा खुद दें। सबके मुंह उतर गए। वापिस भी नहीं जा सकते थे क्यूंकि कोई फ्लाइट थी ही नहीं दो दिन बाद आने वाली थी फ्लाइट। तो मजबूरन सबको अपना वीज़ा का इंतज़ाम खुद ही करना पड़ा।
अलग अलग समय वाली फ्लाइट होने पर हम सभी अटपटे समय पर पहुंचे। वहां पहुँच के पहले दो घंटे विज़ा बनाने की कतार में लगना पड़ा। फिर सारे लोग बिना कहीं रुके एयरपोर्ट से सीधे चिड़िया घर के लिए रवाना हो गए। हमें मैनेजर पर बहुत गुस्सा आ रहा था पर कोई कुछ भी नहीं बोल रहा था क्यूंकि बारह बजे से पहले किसी भी होटल में रूम नहीं मिलता।
तो सुबह सात बजे एयरपोर्ट से निकल कर हम दो घंटे में चिड़ियाघर पहुंच गए। वहीं हम सब लोग फ्रेश हुए और नाश्ता किया। फिर जाके जान में जान आई। फिर चिड़िया घर विदेश में देखा और तरह तरह के करतब करते हाथी , चीता , मछली के शोज देखे।
सब तरफ हरियाली और इतना साफ़ सुथरा शीशे जैसा देश , देख कर मन हर्षित हो उठा। सारी थकान मिट गई थी हम सब लोगों की। खाना वगैरह खाके हमलोग दो घंटे में होटल पहुंचे और सबको रूम मिल गए।
मेरा रूम मेरी एक महिला कर्मचारी के साथ था। वो तो बस दूसरी महिला कर्मचारीयों के साथ उनके ही रूम में थी। मैंने कपड़े बदले और जाने कब आँख लग गई। दुनिया की और जिम्मेदारियों की भीड़भाड़ से दूर इतना होश खो के सोई की उठने के बाद हल्का हल्का लग रहा था। शाम को सब लोग घूमने निकले सागर की लहरों के साथ पहले भी गोवा में खेली थी पर यहाँ विदेश में नीला नीला समुद्र देखते ही बनता था। मैं मस्त पवन के झोके सी अठखेलियां करती ज़िन्दगी के मज़े अपनी यादों में कैद कर लिए बस।
वापिस रूम जाके मेरे महिला कर्मचारियों ने कहा "सब रात भर जागेंगे कोई सोयेगा नहीं" , सोने की अहमियत माँ बनाने के बाद मुझसे बेहतर कौन जान सकता था, सो मैंने जागने से मना कर दिया।
मेरी सह कर्मचारी ने कहा "ठीक है मैं जब आऊं तो दरवाज़ा खोल देना" , मैंने हाँ में उत्तर दिया और अपने रूम में चली गई। इतना सुकून मगर बीच बीच में बच्चों की याद भी आ जाती थी।
अगले दिन सुबह उठी तो देखा मेरे साथ वाला बिस्तर खाली है मुझे लगा वो आई नहीं रात भर। तभी अचानक प्रियंका (जो मेरी सहकर्मचारी रूम पार्टनर ) आई और बोली "क्या घोड़े बेच के सोती हो, तुमने खोला क्यों नहीं मैं तीन बजे रात को आई थी" हाहाहा लो कर लो बात "तीन बजे भला कहाँ घोड़े छोड़ कर आती" मैंने कहा और सारे हँसने लगे।
चलो अब हम शॉपिंग जाने वाले थे तो वहां मूसलाधार वर्षा शुरू हो गई फिर भी हम लोग पानी में चल चल के शॉपिंग के लिए गए बड़े मुश्किल से एक टैक्सी मिली। अभी एक दिन शेष था जाने में पर फ्लाइट में सीट की कमी के कारन अचानक मैनेजर ने सबको बुला कर कहा अब हमें आज रात ही रवाना होना होगा। जो लोग चलना चाहते हैं आ जायें नहीं तो कल का खर्चा खुद उठायें। मन तो नहीं था पर मेरा काफी सारा काम हो चूका था।
सबके लिए कुछ न कुछ खरीदारी में बहुत खर्चा हो गया था तो मैंने हाँ कर दी और अधिकतर कर्मचारी दो फ्लाइट करके वापिस भारत आ गए अपने वतन। बस मन किया की उड़ के अपने घर पहुँच जाऊँ। हमारा देश चाहे कैसा भी हो पर मुझे इस पर गर्व है , यहाँ के जैसा प्यार और अपनापन कहीं नहीं।
फ्लाइट सीट पर टिकती नज़रों की वजह से एक साहसिक दौरा बन गया था मेरा पहला विदेशी दौरा जहाँ अकेले मैंने जा कर एक आत्मविश्ववास पा लिया था।