अंधविश्वास का पर्दा हटाओ
अंधविश्वास का पर्दा हटाओ
"कल तो पापा का श्राद्ध है न विवेक और तुम अभी तक दीदी के घर से रवाना नहीं हुए, सुबह कबतक यहां पहुंच जाओगे...." सरिस्का फोन पर अपने पति विवेक से बात करते बोली
विवेक की दीदी का घर दूसरे शहर में होने से वो अक्सर ही मिलने चला जाता और दो तीन दिन रूककर ही आता है अब आप क्यों पूछेंगे तो भई सगी और इकलौती बहन हैं जिनके घर आए दिन कुछ न कुछ क्रार्यक्रम देने लेने का चलता रहता और इसी बहाने विवेक को भी अपनी दीदी से मिलने का अवसर मिल जाता था।
"हाँ ..हाँ याद है सुबह तड़के ही निकल चार पाँच घंटे में पहुंच जाऊँगा" विवेक तस्सली दिखाता बोला
अगले दिन सुबह सरिस्का ने सुबह भोर नहा धोकर पूरी, खीर, तोरी की सब्जी और एक और रसेदार सब्जी सबके लिए बना ली। तबतक विवेक भी अपने कहे समय पर पहुंच गया पर अब विवेक को दुविधा ने घेर लिया। विवेक का मानना था कि हमें श्राद्ध में पितृ तर्पण पूरे नियम कायदे कानून के साथ करने चाहिए।
विवेक जब पाँच साल का था तभी उसके पिताजी भयंकर बिमारी के चलते इस दुनिया को अलविदा कह गये तब से सासू माँ ने ही बड़ी कठिनाई उठा कर विवेक और उसकी बहन सुलभा को पाला था। विवेक घर में श्राद्ध विधी जो बचपन से देखता आया था वैसे ही करता था।
पंद्रह दिन का विधी विधान सर के बाल नहीं काटने, शेविंग नहीं करवानी, नाखुन नहीं काटने, श्राद्ध के वक्त साबुन से नहीं नहाते वगैरह वगैरह। सरिस्का को समझ ही नहीं आता कि श्राद्ध तर्पण में तो तन से ज्यादा मन की श्रद्धा होनी चाहिए पर वो चाह कर भी विवेक को समझा न पाती।
उस रोज़ भी जब विवेक अपनी दीदी के यहाँ से आए तो अब कोरोना के डर से साबुन लगा कर नहाना ज़रूरी था पर करे क्या उस दिन पापा का श्राद्ध भी था। अब असंमजस में पड़ गया विवेक तब सरिस्का ने समझाया कि तन की सफाई के साथ
मन की सफाई भी अत्यंत ज़रूरी है। तो अभी साबुन से नहाना ज़रूरी है क्योंकि तुम बाहर से आए और पितृ तर्पण तो मन की श्रद्धा भाव से करोगे तो भी हो जाएगा। विवेक मान गया और साबुन लगा कर नहा कर पितृ तर्पण किया।
पर उसके मन में शंका का बीज उत्पन्न हो गया जब किसी कौए ने खाना नहीं खाया और न ही कोयले पर भोग ठीक से लगा। खुद को कोसने लगा। अगले दिन सरिस्का ने एक आखिरी बची हुई पूरी जाकर छत पर डाल दी और कौए ने खा ली। तब विवेक ने देखा सरिस्का तो इतने नियम नहीं रखती फिर भी कौए ने खा ली पूरी।
तब सरिस्का बोली "विवेक मैंने अपनी मम्मी को देखा था बचपन में सबकुछ शारिरिक विधी विधान से करतीं थीं और उसके पीछे उन अंधविश्वासों के कारण मानसिक यातना झेलती थीं। तबसे उन्होंने हम बच्चों को इन सबसे दूर रखा था। अब तुम बताओ अभी आफिस जाते तो दाढ़ी मूछ बनवाते ना? या कि गंदे नाखुनों से खाना बनाना और खाना ज़रूरी है? या कि पंद्रह दिन त सर न धोना कैसा नियम है? नहीं विवेक तुम गलत हो नियम भी वही करने चाहिए जो मन से भी फलीभूत हों वो भी जितने ज़रूरी हैं जैसे सुबह नहा के पितृ तर्पण करो, नाखुन काट कर, बाल कटवा कर, सर धोकर हम साफ सुरक्षित तरीके से तन और मन से पितृ तर्पण करें। हाँ बाहर से कुछ नया मत खरीदो बस इतना ही ज़रूरी है पर सबसे पहले मन का श्रद्धा भाव ज़रूरी है। तुमने कोयला ठीक से नहीं सुलगाया था और कौओं को भी खाना दोपहर बाद दिया तो सब कौओं, गायों और कुत्तों का पेट भर गया।इसलिए अंधविश्वास का पर्दा हटाओ विवेक और पितृ तर्पण मन से करो। "
आज विवेक बहुत संतुष्ट था कि उसकी आँखों से अंधविश्वास का पर्दा हट गया था। वो सरिस्का को इसके लिए मन ही मन धन्यवाद कर रहा था। अगली बार जब पितृ तर्पण किया तो सबकुछ सही और अच्छे तरीके से हुआ।