रूम नम्बर 114अनीता गंगाधर
रूम नम्बर 114अनीता गंगाधर


मोबाइल की रिंगटोन सुनके अचानक माही सोते से हड़बड़ा के उठी। उसने टाइम देखा, सुबह के 5:00 बज रहे थे। चारों तरफ अँधेरा था। जनवरी की रातें भी सर्द और सुबह तो और भी सर्द होती है। धक्-धक् करते कलेजे से उसने फोन उठाया। हॉस्पिटल से फोन था, “माही! मैं डॉक्टर दीक्षित बोल रहा हूं। तुम जल्दी से हॉस्पिटल आ जाओ।“ कहकर डॉक्टर दीक्षित ने फोन रख दिया। “मां मम्मी जी! मम्मी जी!” चिल्लाते हुए माही अपने कमरे से अपनी सास के कमरे की तरफ भागी। भागते भागते तीन-चार सीढ़ी फिसल भी गई, लेकिन उसे अभी अपना होश कहाँ था। “क्या बात है बेटा! इतना घबराई हुई क्यों हो?” “माँ! डॉक्टर दीक्षित का फोन आया है। उन्होंने जल्दी से हॉस्पिटल बुलाया है।“ सुनते ही माँ का कलेजा भी एक बार को काँप गया, लेकिन फिर खुद को संभालते हुए उन्होंने सबको जल्दी से हॉस्पिटल चलने को कहा। घर में रुपए- पैसे की कोई कमी नहीं थी। नौकर-चाकर, बँगला, गाड़ी सब कुछ था। माही के ससुर जी का कपड़ों का बहुत अच्छा बिजनेस था। सभी फटाफट कार में बैठ गए। कार के आगे बढ़ने के साथ ही माही पिछले दिनों की तरफ चल पड़ी।
हां! आज 14 जनवरी मकर-संक्रांति है, और आज से चार साल पहले भी यही दिन था। सब कितने खुश थे। यह शादी के बाद उसकी पहली मकर-संक्रांति थी। अपनी मां के बताए रिवाज अनुसार माही ने सास-ससुर को कुँए पर ले जाकर नए कपड़े पहनाए थे। तिल-गुड़ का दान करने के साथ ही चौदह चीजों का कल्पना (भेंट देना) भी उठाया था। आज नारियल से उसने इसकी शुरुआत की थी। “माही! तुम दाल की पकौड़ी बनाकर ऊपर ले आओ। अनूप, संदीप और उनके सब दोस्त छत पर पतंग उड़ा रहे हैं। मैं भी ऊपर जा रही हूं।“ रसोई में काम करती माही से उसकी सास ने कहा। “ठीक है मम्मी जी! आप यह एक प्लेट पकौड़ी ले जाओ और बाकी मैं अभी तल के और लाती हूँ।“ कहते हुए माही ने सासू माँ को एक प्लेट पकौड़ी पकड़ा दी। उसमें चटनी और तिल के लड्डू सजाकर माही ने सासू मां को पकड़ा दिए। खुद और पकौड़े तलने लग गई। “भाभी! और पकौड़ी..” नरेंद्र ने थोड़ी देर बाद प्लेट उसके सामने बढ़ा दी। कुछ समय पश्चात सब काम निपटा कर वह भी छत पर गई। वहाँ सब खूब मस्ती कर रहे थे और पतंग उड़ा रहे थे। अनूप माही को छत पर देखते ही खुश हो गया और बोला, “अब आएगा मजा...” कहते हुए उसने माही को छेड़ा। सबके सामने अनूप के ऐसा कहने से माही मन ही मन तो खुश हुई लेकिन उसे सबके सामने शर्म आ गई।
“अनूप पतंग उड़ाने में बहुत होशियार है, आज के दिन बीस पतंग तो वह जरूर काटता है।“ मां अपने बेटे की तारीफ करते हुए माही को बता रही थी। अचानक अनूप को जाने क्या सूझी वह बड़ी छत छोड़कर, छत के ऊपर बने छोटे से दमदमे की छत पर चढ़ गया और जोर-शोर से पतंग उड़ाने लगा। आसपास के लोग भी उसके पतंग उड़ाने के कायल थे। सब ओर से उसे जोश दिलाया जा रहा था। इसी पतंग उड़ाने की धुन में अनूप ने अपना होश खो दिया और एकाएक उसका संतुलन बिगड़ गया। वह धड़ाम से सर के बल छत पर गिर गया। इतनी ऊपर से गिरने से अनूप गिरते ही अचेत हो गया। सभी उसे लेकर तुरंत बदहवास से अस्पताल भागे। वहाँ डॉक्टर ने फटाफट इलाज शुरू कर दिया। रीढ़ की हड्डी टूट गई थी और दिमाग में गहरी चोट आई थी। छह घंटे चले के ऑपरेशन के बाद जब डॉक्टर ने बताया कि ऑपरेशन तो ठीक हो गया लेकिन अनूप कोमा में चला गया है तो मानो समय ठहर सा गया। माही पर तो जैसे बज्रपात हो गया। होनी के आगे किसकी चली है। अब रोज हॉस्पिटल आना, अनूप से घंटों बैठकर एकतरफा बातें करना, यही माही की दिनचर्या बन गई थी। समय अपनी गति से चल रहा था लेकिन माही के लिए समय जहां अनूप रुका था, वहीँ रुक गया था।
कार रुकने के साथ ही माही वापस वर्तमान में लौटी, देखा हॉस्पिटल आज चुका था। माही का दिल तो इतनी जोर से धड़क रहा था मानो अभी उछलकर हलक में आ जाएगा। सभी दौड़ते हुए डॉक्टर दीक्षित के कक्ष में गए। वहां नर्स ने रूम नंबर 114 में जाने को कहा, इसी कक्ष में अनूप भर्ती था। ना जाने यह कुदरत का क्या हिसाब है, अपनों की चिंता में बुरे-बुरे खयाल ही आते हैं। अच्छे ख्याल तो ना जाने कहाँ जाकर छुप जाते हैं।
114 नंबर रूम तक पहुँचने का रास्ता माही को मीलों सा लग रहा था। उसका एक-एक कदम वज्र सा भारी हो गया था। जैसे-तैसे सभी वहाँ पहुंचे तो वहाँ का दृश्य देखकर सभी एकदम जहाँ थे वहीं स्तब्ध से खड़े रह गए। किसी को अपनी आँखों पर यकीन ही नहीं हुआ। अनूप बैठकर डॉक्टर दीक्षित से बातें कर रहा था। यह सब देख कर सब की खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। माही तो खुशी के मारे रो पड़ी। आज 14 जनवरी मकर संक्रांति के दिन ही उसका समय रुका था और आज फिर उसी दिन से उसके समय ने गति पकड़ी है। आज के दिन उसकी खुशियां वापस लौट आई थी।