रुक्मणी
रुक्मणी


मधुबाला....इसी नाम से सब बुलाते थे उसको। ये उसका नाम था या नही, ये तो नहीं पता पर जिसने भी ये नाम उसको दिया था, सही दिया था। उम्र उसकी होगी कोई 25 के पार पर अपनी खूबसूरती से वो बीते जमाने की हिरोइन मधुबाला की हमशक़्ल लगती थी। उसको जब भी देखती थी, बड़ा तरस आता कि ईश्वर ने इसको इतना तराश के बनाया पर बुद्धि हर ली। मेरी ज़िंदगी के 30 साल मनोरोगियों के इलाज में बीत गए पर जितनी रहस्यमयी ये लगती, उतना रहस्यमयी आजतक कोई न लगा। पता नहीं ये कौन सा राज़ अपने अंदर दबाये घूम रही थी और पता नही क्यों उसके राज़ जान लेना मेरे लिए सनक की हद तक ज़रूरी होता जा रहा था। मधुबाला, मानसिक चिकित्सालय में रहने वाले सभी रोगियों से एकदम अलग थी। वो औरों की तरह न तो शोर मचाती न ही कभी हिंसक होती थी। वो खुद में खोई रहती थी हमेशा जैसे इस दुनिया की है ही नहीं। कैम्पस में एक छोटा सा बगीचा था, उसकी एक कोने वाली बेंच पे बैठ जाती और सामने के छोटे से ताल में छोटे छोटे कंकड़ फेंक के कभी कभी मुस्कुराती भी थी।
आज जब मैं सुबह सुबह राउंड पे पहुँची तो जूनियर डॉक्टरों की चहल पहल कुछ ज़्यादा ही थी। मुझे देखते ही सब शांत हो गए। कुछ पलों के मौन के बाद जब मेरी सवालिया नज़रें डॉ निशि से टकरायीं तो वह पहले तो कुछ असहज हुई लेकिन अन्ततः उसने चुप्पी तोड़ी।
" मैम.. वो मधुबाला के कमरे में जब मैं राउंड पे गयी, तो मुझे उसके तकिये के नीचे ये फ़ाइल मिली।"
डॉ निशि ने एक लाल रंग के कवर की एक मोटी सी फ़ाइल मुझे पकड़ाई। फ़ाइल को खोलते ही मुझे थोड़ी देर पहले की चहल पहल की वजह समझ मे आयी। दरअसल वो एक स्केचेस की फ़ाइल थी। ज़्यादातर स्केच कृष्ण-राधा के थे, कुछ एक गणेश जी के, कुछ शिव-पार्वती के थे। स्केच बहुत ही खूबसूरत थे। उस फ़ाइल को देखकर कोई भी कहता कि ये किसी मंझे हुए कलाकार के हाथों का कमाल है। सबसे ज़्यादा जो अजीब बात थी, वो था हर स्केच के नीचे अंग्रेज़ी के अक्षर 'R' में किया गया हस्ताक्षर। एक पल को ऐसा लगा कि मानो मेरे आस पास सब शून्य में चला गया हो। पिछले 1 साल से जब से मधुबाला आयी है इसका रहस्यमयी व्यक्तित्व मुझे अनायास ही अपनी ओर खींचता था। आज इस फ़ाइल के हर पेज के स्केच के नीचे के हस्ताक्षर ने मेरे शक़ को यकीन में बदल दिया। ज़रूर इसका असली नाम कुछ और है। अब इसके रहस्य को जानने का एक जुनून सा सवार हो गया था मेरे सर पर।मैंने वो फ़ाइल उठायी और अपने राउंड पे निकल गयी।
शाम को मैं वो फ़ाइल लेकर उसी बगीचे के कोने वाली बेंच के पास पहुंच गई। मेरा अनुमान सही था, मधुबाला मुझे वहीं बैठी हुई मिल गयी। मैंने बिना वक़्त बर्बाद किये वो फ़ाइल उसके आगे बढ़ा दी। एक पल को वो सकपका गयी फिर बड़ी सधी हुई आवाज़ में बोली, "ये आपको कहाँ मिली?"
" देखो मधुबाला...मैं 30 साल से रोज़ मनोरोगियों के बीच में लगभग सारा समय बिताती हूँ। मुझे पूरा यकीन है कि तुमको कोई मनोरोग नही है। तुम पूरी तरह से सामान्य हो। सवाल सिर्फ इतना है कि किस मजबूरी के चलते तुम अपनी ज़िंदगी यहाँ खराब कर रही हो ? क्या है तुम्हारी कहानी ?" मैंने लगभग 1 साँस में अपनी बात कह दी।
वो मुझे अपलक थोड़ी देर देखती रही, फिर बोली, " मैं आपकी बहुत इज़्ज़त करती हूँ डॉ, पर एक वादा करिये कि सब कुछ जानने के बाद भी मुझे यहाँ से जाने को नहीं बोलेंगी।
मेरे पास उस वक़्त उसकी शर्त को मानने के अलावा कोई रास्ता नही था, सो मैंने खुद को बंध जाने दिया उसके वादे में। मैं बस यही सोच रही थी कि कौन सी ऐसी मजबूरी है जिसके चलते ये इन पागलों के बीच रह रही है और जाना भी नहीं चाहती।
उसने लगभग शून्य में देखते हुए अपनी बात शुरू की।
मैं श्री मुकुन्दी लाल शुक्ला की इकलौती बेटी हूँ। मेरे पिता इसी शहर के नामी गिरामी उद्योगपति और रुक्मणी इंडस्ट्रीस के मालिक है। मैं जब शादी लायक हुई तो शादी के लिए रिश्तों की लाइन लगी थी। उसी साल मुझे बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में मास्टर्स इन फाइन आर्ट्स में गोल्ड मैडल मिला। मेरा बहुत मन था कि मैं अपनी आर्ट गैलरी खोलूँ, पर मेरे घरवाले मेरी शादी के पीछे पड़े थे। कुछ ही दिनों में मेरी शादी सानिध्य से करा दी गयी और मैं रुक्मणी शुक्ला से श्रीमती रुक्मणी सानिध्य त्रिपाठी हो गयी। मुझे लगा कि शायद मैं ही दुनिया की सबसे खुशकिस्मत लड़की थी। उस वक़्त मुझे क्या पता था डॉ, कि मेरी खुशियों को खुद मेरी ही नज़र लग जायेगी। इतना कहते ही उसका गला रुँध गया । मैंने उसको पानी पिलाया तो वो थोड़ा मुस्कुराई और एक लंबी सांस ले कर मेरी ओर देखने लगी। मैंने भी अपनी मौन स्वीकृति दी कि वो अपनी कहानी जारी रखे।
सानिध्य सरकारी नौकरी में ऊँचे पद पर थे। देखने में बेहद आकर्षक व्यक्तित्व के थे। उनका परिवार भी शहर में नामी गिरामी परिवारों में था। शादी के बाद जब मैं अपनी ससुराल आयी, सभी मुझे बहुत प्यार करते थे। पर कुछ तो था जो खटक रहा था। कुछ था जो सबकुछ को कम कर दे रहा था और वो था सानिध्य का मेरे प्रति रवैय्या। पता नही क्यों मुझे सानिध्य का व्यवहार सामान्य नहीं लग रहा था। मेरे प्रति उसका रूखापन, उसका बोझिल से रवैय्या मुझे अंदर तक झकझोर देता था। पहले मैंने सोचा कि ये मेरा वहम है पर जैसे जैसे हमारी शादी को 1 महीना हुआ, मेरा शक़ यकीन में बदल गया था। 1 दिन अपने मन की तसल्ली के लिए मैंने सानिध्य से सीधे सीधे बात करने की सोची। मैंने सानिध्य से शाम में कहीं बाहर चलने को कहा और वो मान गए। बाहर हम एक पार्क में गए और मैने अपने मन के डर को उनके सामने रखा। पता है डॉ , सानिध्य ने क्या बताया मुझे ? बोलते बोलते मधुबाला या अब रुक्मणि मुझसे सवाल कर बैठी।
मैं भी अबतक उसकी कहानी में पूरी तरह खो चुकी थी। मैंने पूछा, "क्या बताया उसने ?"
उसने मुझे बताया कि वो अपनी सहकर्मी सुष्मिता से प्रेम करता है , पिछले करीब 10 साल से। उसके इस रिश्ते के बारे में घर मे सबको पता था पर विजातीय होने के कारण उन दोनों की शादी नही हो पाई और घरवालों के दबाव में आकर सानिध्य ने मुझसे शादी कर ली।
" तो क्या इसी ग़म में तुम्हारी मानसिक स्थिति खराब हो गयी और तुमको यहाँ भेज दिया गया ?", मैंने अपनी स्वाभाविक जिज्ञासावश उससे पूछा। जवाब में वो बहुत ज़ोर से हँसी। उसकी हँसी का वो दर्द किसी का भी दिल बैठ जाता।
उसने अपनी कहानी जारी रखी। वो बीती यादों में खोई बस बोलती जा रही थी, "मैं सानिध्य की ईमानदारी पे मर मिटी। उस घर मे कुछ समय रहने के बाद मैं शायद उसकी मजबूरी को समझ सकती थी। मैंने उसी वक़्त सानिध्य और सुष्मिता के बीच से हटने का निर्णय लिया। पर असल मे हट पाना इतना आसान भी नहीं था। इसलिए मैंने अगले 6 महीने पहले लगातार सर दर्द का नाटक किया, उसके बाद मैंने अवसाद का नाटक किया। अब सबको यक़ीन हो चला था कि कुछ तो कमी है मुझ में। फिर एक दिन मैंने घर में भयानक गुस्से में आ कर घर मे तोड़फोड़ की। साल भर की कड़ी तपस्या के बाद एक डॉ ने मुझे मानसिक रूप से बीमार होने का प्रमाणपत्र जारी किया। मेरे घरवालों को भी इसी बीच इतना कुछ भला बुरा मेरे ससुराल वालों ने सुना दिया था कि दोनों परिवारों की मान मर्यादा को बचाने के लिए आपसी सहमति से तलाक़ लेने का निर्णय लिया गया।
इस नाटक में पागल का किरदार निभाते निभाते मैं टूट चुकी थी। अगर मेरे नाटक का पर्दाफाश होता तो शायद सानिध्य और सुष्मिता के रास्ते फिर मुझसे टकराते। इसलिए ये राज़ मैंने अपने दिल मे दफ़न कर दिया हमेशा के लिए और मैं यहाँ चली आयी।"
" तुमने जिनके लिए ये नाटक किया, क्या वो एक हो पाए?", मेरे लिए ये जानना अब बहुत मायने रखता था क्योंकि अगर वो एक न हो पाए तो इसकी तपस्या, इसका त्याग, सब व्यर्थ हो जाता।
" मेरे यहाँ आने के बाद मेरे घरवाले पहले अक्सर आते थे। धीरे धीरे उनका आना भी कम सा हो गया। पिछली बार जब माँ पापा आये थे, लगभग 6 महीना पहले तो माँ मेरी किस्मत को कोस रहीं थीं। तभी रोते रोते उनके मुँह से निकल गया था कि , " दामाद जी का क्या है, उन्होंने तो कर ली किसी सुष्मिता नाम की लड़की से शादी। ग्रहण तो हमारे नसीब में ही था।"
"सच पूछिए डॉ तो मुझे पता नहीं क्यों उस दिन अच्छा नहीं लगा था। मैं उन दोनों के रास्ते से हटी ज़रूर थी पर कहीं न कहीं मुझे सानिध्य को हमेशा के लिए खो देने का दर्द मुझे कचोटता रहा। पता है डॉ , मेरे नाम मे ही दोष था शायद। रुक्मणी की बस शादी ही होती है कृष्ण से, कृष्ण मिलते तो सिर्फ अपनी राधिका को ही हैं न।
मैं उसी कोने वाली बेंच पे बैठी रही जाने कबतक और वो अपने शब्दों से अपने दिल में दफन दर्द के लावे को मेरे कानों से सीधा मेरी आत्मा में उतार के जाने कब वहाँ से उठ के चली गयी। वो अब मेरे लिए रुक्मणी थी....मधुबाला नहीं।