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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Tragedy

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Tragedy

रियल स्टोरी - मैं व्यथित हूँ

रियल स्टोरी - मैं व्यथित हूँ

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निश्चित ही उन्हें मेरी याद आई होगी। जब रात उनकी तबियत बिगड़ी और उन्हें इमरजेंसी में अस्पताल ले जाने की जरूरत आई थी। जैसे तैसे उन्हें अस्पताल ले भी जाया गया था। तब भी उन्हें अस्पताल में उपचार के लिए भर्ती नहीं कराया जा सका था। रात ऐसे किसी प्रभावशील व्यक्ति से उनका संपर्क नहीं हो पाया था, जो अस्पताल अथॉरिटी पर दवाब डाल कर उन्हें भर्ती किए जाने में मदद करता। रात दो बजे अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण अनहोनी हुई और वे दुनिया छोड़ गए। 

आज सुबह अपने भाई बहनों के साथ मैं, दस बजे वीडियो कॉल पर पाठ पढ़ रहा था। तब उनके मोबाइल से एक के बाद एक तीन कॉल आए, पाठ के बीच कॉल का उत्तर न देकर, मैं सोच रहा था कि पाठ पूरा करने पर मैं उनसे बात करूंगा। 

तब मैंने देखा कि उनका कॉल, रचना के मोबाइल पर आ रहा है। इस बार इसे अनसुना करना मुझे उचित नहीं लगा। पढ़े जा रहे पाठ को, रचना जारी रख पाए, इस हेतु मैंने अन्य कमरे में जाकर कॉल रिसीव किया। आशा थी कि मुझे उनका स्वर सुनने मिलेगा। 

दूसरी तरफ, वे कैसे हो सकते थे। वे तो जन्नत के लिए रवानगी ले चुके थे। कॉल पर उनकी बेटी थी, जो रोते हुए कह रही थी - अंकल पापा चले गए। 

मैं सुनकर स्तब्ध रह गया था। अत्यंत दुःख की अनुभूति से मेरी आँखे नम हो गई थी। बेटी, रात का पूरा घटनाचक्र कह रही थी। उसका रोना निरंतर जारी था। रोते रोते ही उसने बताया - दोपहर दो बजे, पापा को सुपुर्दे खाक किया जाएगा। 

उसको सांत्वना देने के लिए मुझे शब्द नहीं मिल रहे थे। मैं इतना ही कह पाया था - 

बेटा, खुद को सम्हालो, मम्मी को सम्हालो। जो हो गया वह बहुत दुखद है। 

ऐसा दुखद समाचार सुनने मिलेगा इसका मुझे जरा भी अंदेशा नहीं था। जब बोलने के लिए कुछ नहीं सूझा तो मैंने कहा - 

बेटा, शाम के समय, तुम्हारी आंटी कॉल करके तुम्हारी मम्मी से बात करेगी। 

उसका रोना बंद नहीं हुआ था। मैंने कॉल बंद किया था। 

अभी पिछले वर्ष जब सेवानिवृत्ति लेने के बाद मैं जबलपुर छोड़कर, हैदराबाद में सेटल होने के लिए आ रहा था, तब कोरोना का समय होने से, मैं बहुत से परिचितों से उनके घर जाकर विदा नहीं ले पाया था। आज मुझे अत्यंत पछतावा होता यदि मैंने उनके घर जाकर विदा नहीं ले होती। जबलपुर से निकलने के एक दिन पूर्व मैंने पाँच मिनट, उनके घर पर उनसे बात की थी। 

शमीम भाई को, मैं ‘सर’ संबोधित करता था। वे मुझसे 3-4 साल छोटे थे। तब वे पूर्ण रुपेण स्वस्थ और फिट थे। उन्हें मेरा जबलपुर छोड़ देना अच्छा नहीं लग रहा था। उस समय मैं कल्पना नहीं कर सकता था कि सिर्फ एक वर्ष ही बीतेगा और मुझे इतना दुखदायी समाचार सुनने मिलेगा। 

मैं व्यथित हूँ …. नियति के आगे, कोई चाहे - नहीं चाहे, नत मस्तक सबको होना पड़ता है। अब मुझे फ़िक्र हो रही है उस परिवार की। एक ही बेटी का विवाह शमीम भाई कर गए हैं। बाकी बेटे-बेटी अभी अनब्याहे हैं। ठीक तरह उन्हें सेटल किया जाना भी अभी बाकी है। मगर शमीम भाई, उनके पापा की छत्रछाया उन पर नहीं रह गई हैं। 

अश्रु नम आँखों के बीच, मैं अभी यही लिख सकता हूँ -

आपका अल्लाह आपको जन्नत नसीब करे, अलविदा शमीम भाई ! मैं समझ सकता हूँ, आपके वश में होता तो आप यूँ सबको रुला कर नहीं जाते। 

विनम्र श्रद्धांजलि  - विनम्र श्रद्धांजलि  - विनम्र श्रद्धांजलि .....  

(आज नहीं लिख पाऊंगा लेकिन लिख पाया तो, मैं जैन और वे मुस्लिम, दो बिलकुल ही विपरीत धार्मिक आस्थाओं वाले, हम दोनों के पारिवारिक ताल्लुकात की रियल स्टोरी, मैं आगे किसी दिन लिखूंगा।) 


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