Jyotsna (Aashi) Gaur

Abstract Drama Inspirational

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Jyotsna (Aashi) Gaur

Abstract Drama Inspirational

रिश्तों का ब्याज

रिश्तों का ब्याज

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अक्षिता की बात सुन कर हर कोई नि:शब्द खड़ा था। रोहन भी चुप था। कुछ तो कहना चाह्ता था पर अक्षिता की दृढ़ता के आगे आज उसने मौन को बेहतर विकल्प जाना। ये नि:शब्द्ता, मौन यूँ ही नहीं थी। कुछ लोग मौन रह कर अक्षिता की विद्रोही सोच के प्रति अपना क्रोध व्यक्त कर रहे थे तो कुछ उसके साहस का समर्थन व्यक्त कर रहे थे।

कहते हैं कि मनचाहा बोलने के लिए अनचाहा सुनना पड़ता है और पिछ्ले चार सालों में बहुत कुछ अनचाहा देखा और सुना था अक्षिता ने। उस दिन से, जब से उसके माता-पिता का एक दुर्भाग्यपूर्ण असमय दुर्घटना में निधन हुआ था। तब से कितना कुछ उसने सुना और देखा था ‘अकेले’। उसके पिता अक्सर उसे सिखाते थे कि “बुरे वक़्त में अपनों से पहले पराये तुम्हारा हाथ थामे मिलेंगे और तुम पर उंगलियाँ पहले अपनों की उठेंगी बाद में परायों की।“ माता पिता के देहांत के बाद हुआ भी यही। ऐसा नहीं था कि अक्षिता के माता पिता किसी से रिश्ता नहीं रखते थ पर अपने सरल स्वभाव के कारण ऐसी कई परिस्थितियाँ उन्होंने अपने जीवन में देखी थी इसलिये अक्षिता को मानसिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना सदैव उनकी प्राथमिकता रही।

आज अक्षिता की बड़ी बुआ चल बसी थीं। एक महीने की बीमारी के बाद आज पीडा से मुक्त हुईं। अक्षिता को दुख था। घर से एक और बुज़ुर्ग का साया हट गया, रोहन भैया के भी दर्द का अन्दाजा था। चाहे अपना परिवार हो, गृहस्थी हो मगर माता पिता का जाना.......

 बुआ के दाह संस्कार से लौट कर, जब सभी लोग मौन बैठे थोड़ी थोड़ी देर में एक दूसरे से नज़र बचा कर घड़ी देख रहे थे कि विदा लेने के समय में कितना समय शेष है, तभी अचानक अक्षिता उठी और बोली – “रोहन भैया, मैं चलती हूँ। कल दोपहर तक आ जाऊँगी वापिस। अभी मुझे कुछ काम है।“

“लो जी, ये कोई समय है क्या ऐसी बात करने का? इसे ज़रा भी तमीज़ नहीं रही क्या माँ बाप के जाने के बाद ? सुना ही था की तेज स्वभाव की है अक्षिता, पर क्या इतनी भी समझ नहीं बची कि कब किस वक़्त क्या बोलना है इसे। आई बड़ी काम वाली। काम ज़्यादा ज़रूरी है या इस दुख की घड़ी में परिवार के साथ रहना ? हम सब भी तो यहीं हैं, पर इसे जाना है।“

जैसे किसी ने भूसे के ढेर को चिन्गारी दिखा दी हो। रोहन की सास, व्यास आंटी की बातें सुनते ही, जैसे आज अक्षिता के अन्दर का सोया हुआ ज्वालामुखी फिर धधक उठा हो।

“सही कह रहे है आप आँटी जी। मम्मी पापा को जब विदा किया था तभी उनकी सिखाई तमीज़ को भी विदा कर दिया था मैनें। हाँ, कुछ संस्कार बाकी रह गये थे इसलिये शान्ति से जा रही थी।“

व्यास आँटी के अन्दर का आत्मसम्मान अचानक जागा और बोला “बस, बस, अब और ज़बान मत लड़ाओ मुझसे। ये नहीं की भाई भाभी के पास बैठे। हिम्मत बंधाये। ऐसा ज़रूरी काम था तो आई ही क्यों थी ? तुम्हारे ना आने से कोई फर्क नहीं पड़ जाता यहाँ। देखो जी, छोटे बड़े का तो लिहाज ही नहीं रहा इसमें। 28 की हो गयी है पर इस के स्वभाव की वजह से ही शायद अब तक घर बैठी है।“

“सही कह रहे हैं आप आंटी जी। मेरे आने ना आने से कोई फर्क नहीं पड़ता यहाँ क्योंकि आप जो है यहाँ पर। आज से चार साल, 11 महीने 29 दिन पहले मैं जब अकेली थी, तब किसे फर्क पड़ा था? तब भी तो सब एक-एक कर के चले गये थे। क्या किसी ने सोचा था कि किस तरह मैं अकेले रात काटूँगी ? किस तरह सुबह अपने लिये कोई नाश्ता या खाना बना पाऊंगी जबकि मुझे मम्मी ने कभी रसोई में काम नहीं करने दिया था। जिस परिवार की आप बात कर रहीं हैं वो उस समय अपने-अपने “व्यस्त” जीवन में लौटने की जल्दी में था ना। क्या रोहन भैया अगले दिन बैठक में आये थे ? उनकी ज़रूरी मीटिंग नहीं थी क्या?”

रोहन की तरफ देखते हुए अक्षिता ने सवाल दाग ही दिया आज आखिरकार।

“अच्छा। तो अब तुम इन बातों का भी हिसाब रखोगी ? छोटी हो, इतनी बड़ी बातें मत करो तो अच्छा रहेगा तुम्हारे ही लिये।“ रोहन की पत्नी, शालिनी ने बड़ी भाभी का रौब दिखते हुआ कहा।

पर शायद अब अक्षिता ने ठान ही लिया था कि एक मामला तो आज खत्म कर के ही रहेगी।

“क्या करुँ शालिनी भाभी, बड़ों ने आखिर रिश्तों का इतना कर्ज़ जो दिया है, लौटाना तो होगा ही। हाँ, मै छोटी हूँ, तो क्यूँ नहीं आप को ये खयाल उस वक़्त आया जब समझने का वक़्त था कि बड़ी होने के नाते आपकी भी कुछ ज़िम्मेदारी बनती है मेरे लिये। छोटी हूँ, छोटी थी और बड़ों की ज़रूरत भी थी पर किसी ने बडप्पन तब क्यों नहीं दिखाया।“ 

“क्यूँ आँटी जी, शलिनी भाभी को क्या गाडी चलानी नहीं आती ? उन्हें दहेज के साथ थोड़ी सीख भी तो दे दी होती कि ऐसे मुश्किल वक़्त में कैसे छोटों को कैसे सम्भालना चाहिए फिर चाहे वो सगा हो या नहीं। अक्षिता को कुछ दिन खाना पहुँचा आ और थोड़ा-थोड़ा कर खाना भी बनाना सिखा दिया कर रोज़।“

समाज के बड़ों को अक्सर अच्छा नहीं लगता है कि छोटे बड़ी बात करें, पर बड़े जब बडप्पन भूलते हैं तब मुँह खोलना ही पड़ता है। “

इस वाक्युद्ध को जैसे एक नतीजे पर पहुँचाने का दृढ निश्चय कर चुकी अक्षिता आज हर नये पुराने सवाल का जवाब लेना और देना भी चाह्ती थी। क्यूँ परिवार के होते हुए भी उसने अपने दुख और मुश्किल हालातों में खुद सब कुछ सम्भाला? क्यूँ सबके लिए अक्षिता का हाल चाल पूछना या उस के लिए खड़े रहना रास्तों से ज़्यादा मन की दूरियों की बात थी ? क्यूं सब ने उस से ये तो कहा कि अपना ध्यान रखना पर किसी ने नहीं पुछा कि बता अक्षिता तू अपना ध्यान कैसे रख रही है, क्या परेशानी आ रही हैं? क्यू……क्या परिवार ऐसे होते हैं? 

आज अक्षिता के “तेज स्वभाव” से दो चार होने पर शालिनी की माताजी ने अब अपना पल्ला झाड़ना ठीक समझते हुए कहा – “अब भाई तुम्हारे परिवार के बीच में कैसे और क्या बोलूँ भला? तुम्हारी बुआ को सोचना चाहिए था ये सब तो? मुझे क्यों सवाल करती हो ?” “ठीक ही कह रहे हैं आप आँटी” अक्षिता ने बुआ की तस्वीर की तरफ देख हाथ जोड़ते हुए कहा, “बुआ ने मौका दिया होता तो उनसे भी सवाल पूछती कि मम्मी पापा ने उनके लिये अपने प्यार और अपनेपन में क्या कमी रखी जो उन्होनें भी मुझे अकेला छोड़ दिया था? पर अब वो भी मम्मी पापा के पास ही हैं शायद तो खुद ही बात करते होंगे।“

“चलती हूँ भैया भाभी आज मम्मी पापा को मुझे अकेले छोड़ कर गये 5 साल हो गये हैं, उन्हीं की याद में असहाय बच्चों के लिए खाना ले कर जा रहीं हूँ। आप को समय मिले तो आइएगा घर।“

तूफान में बिजली गिरने के बाद के सन्नाटे को अपने पीछे छोड़ते हुए अक्षिता अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करने निकाल पड़ी।


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