आनन्दवन में टुक टुक
आनन्दवन में टुक टुक


सुहाना था मौसम,
और स्वस्थ था वातावरण
नदी किनारे पेड़ों की ठंडी छाँव में,
माँ के आँचल सी हिलोरे देती हवा में,
ऊँची हरी भारी वादियों में कोयल मीठा गीत सुना रही थी ।
गुन्नु जी भी आ पहुँचे वहाँ पर,
गुटका भैया के साथ थोड़ा धीरे धीरे चल कर ।
और जल्दी, थोड़ा जल्दी आओ प्यारे गुटका भैया
जोश बढ़ाता, कूद लगाता निकला गुन्नु वर्जिश करने,
गुटका भैया को अपने संग ले कर ।
गुटका जी भी थोड़ा हसते, थोड़ा रफ्तार बढ़ाते,
पहुँच गये हल्के उजियारे में नदी किनारे ।
सूरज जी भी आ पहुँचे,
झांकते हुए पहाड़ी से,
फैली लालिमा किरणों की,
दूर हुई रात अन्ध्यारी ।
गहरी साँस भर कर गुन्नु ताजी ठंडी हवा की
करने बैठा अनुलोम विलोम जैसे ही,
चौंक गया कुछ देख कर अमिया के पेड़ के नीचे ।
कर के आँखे बड़ी बड़ी लपका झट से गुटका भैया के पास ।
देखो भैया ये कौन नया प्राणी आनन्दवन में अपने आया है आज !
आया सो आया, लेकिन ऐसे छुप कर दुबक कर क्यूँ है ये सोया !?
समझदार गुटका धीरे धीरे, धीमे धीमे, जान कर उसे खतरा अनजान,
पास पहुँच कर…..
ध्यान से देख कर…..
अरे ये तो टुक टुक है अपना,
कह कर गले लगाया,
आनन्दवन की शान ।
चौंक उठा टुक टुक घोड़ा घबरा कर,
अरे कौन है जिस ने मेरा अपना नाम पुकारा !?
देखा जब प्यारे गुटके को तो उस का भी दिल भर आया,
पूरे मन से मिला गले दोस्त के जब,
घबराया सा थोड़ा उत्साहित सा,
मन टुक टुक का भी आँखों से छलक आया ।
पूछा दोस्त ने हाल चाल,
पूछा कहा खोया था टुक टुक इतने साल,
और पूछा कैसे हो आया आज फिर आनन्दवन का खयाल !।
इतना सुनना था कि हो गया टुक टुक उदास ।
बोला मत पूछो भाई मेरे किया क्या शहर ने मेरा हाल ।
नाम सुन कर शहर का लपका गुन्नु उन के पास,
मुझ को भी है शहर जाना,
है पैसा कमाना,
और खुब मौज उड़ाना ।
मैं तो सुनूँगा कैसी होती है शहरी जीवन की चाल ढाल ।
इशारा किया भैया गुटकू ने तो भी नहीं माना गुन्नु,
आखिर था गुन्नु अब तक थोड़ा जिद्दी ।
पाल भर में समझ गया टुक टुक की ना समझ ज़िद का हाल,
हँसते हुए बोला, “आ सुनाऊँ तुझ को ये कहानी, दोस्त मेरे पिद्दी ।“
मैं भी गया था प्यारा ये घर छोड़ कर शहर
कमाने पैसा और उड़ाने मौज,
ये भले दोस्त लगते थे मुझ को सीधे सादे और बेकार का बोझ ।
सबने रोका और समझाया था,
पर ज़िद ने मेरी बन्द ही कर दी थी मेरी भी सोच ।
छोटों का प्यारा था मैं बड़ों का राज दुलारा,
महाबली वनराज का
सेनापति था,
क्या चाहिये था और ।
पर ज़िद ना छोड़ी मैंने,
चल ही दिया विदा ले कर सब से एक दिन
उस चमकते शहर की ओर,
अपने ही अपनों का दिल तोड़ ।
मिला एक निराला कवि,
था उस के संग एक संगीतकार ।
बोले मुझ पर गीत लिखेंगे,
बच्चों का मन बहलाएंगे,
खूब धन कमायेंगे ।
मैं तो फ़ूला ना समाया,
आते ही शहर में धन चल कर खुद मेरे सामने आया ।
बस इसी तरह इतराते काम तो पूछा,
और बाकी सब बिसराया ।
दोनों ने बिठा दिया लकड़ी की एक काठी पर,
और खूब मेहनत से वो गीत बनाया -
“अरे भाई, क्या हूँ मैं घमंडी और क्यूँ गया सब्जी मण्डी ?
खैर,”
......घोड़ा था घमंडी, पहुँच सब्जी मंडी,
गीत पूरा करते करते भर आई आँखें टुक-टुक की,
फिर दुबक गया बेचारा अमिया के पेड़ की छाँव में ।
गुटका भैया ने अपने टुक टुक को हौंसला बन्धाया,
और आनन्दवन परिवार से मिलने का आदेश सुनाया ।
अपने परम मित्र का प्यार भर आदेश मान कर,
गुन्नु और गुटका को अपनी पीठ पर बिठा कर,
हवा से बातें करता,
चला टुक टुक अपने प्यारे परिवार की ओर ।
फिर से आनन्दवन में हवा को यूँ भागता देख हर कोई बढ़ चला उसी दिशा
जिस ओर पड़ते जा रहे थे टुक टुक के पैरों के निशान ।
देखा जब वनराज ने टुक टुक को,
अपने पास बुलाकर उसे गले लगाया ।
गुटका जी ने वहाँ उपस्थित सभी से कह सारा हाल सुनाया ।
सभी चुप थे,
एक दूसरे को देख रहे थे,
आदरणीय वनराज के फैसले का रास्ता देख रहे थे ।
वनराज जी ने सेनापति गजराज से कान में कुछ धीमे से फरमाया ।
भागे भागे गये श्रीमान सेनापति गजराज,
सूंड में उठा लाये आनन्दवन की ध्वजा,
थमाई टुक टुक को और बोले –
“लो भाई सम्भालो अपना काम,
वरना भागते भागते हो ना जाए मेरा काम तमाम ।“
हँसे सभी ठहाका लगा कर ज़ोर से,
दी सब ने टुक टुक को गले लगा कर बधाई ।
छोटा सा गुन्नु हाथ पकड़े खड़ा था चुपचाप मिनी मम्मी का,
देख कर टुक टुक आया उन के पास ।
“क्यूँ इतना चुप हैं मेरा पिद्दी सा दोस्त प्यारा प्यारा”
गुन्नु बोला प्रणाम करता और आदर देता हुआ –
“सेनापति जी, शहर नहीं जाऊँगा, सबकी बात मानूँगा,
और ज़िद भी नहीं करूँगा अब से मैं पिद्दी ।
बस एक ज़िद नहीं छोडूंगा, अपनी बात मनवाऊंगा –
हर रोज़ सुबह शाम अपनी पीठ पर सवारी कराओगे ।“
टुक टुक ने उठाया गोद में गुन्नू को और बोला –
“हाँ मेरे प्यारे से पिद्दी दोस्त, बिल्कुल कराऊंगा ।“